आज पूज्य श्री देवकीनंदन ठाकुर जी महाराज ने प्रह्लाद चरित्र का सुंदर वर्णन सुनाया।
महाराज श्री बोले – बहुत पहले दिति के एक महावीर पुत्र था जिसका नाम था हिरण्यकशिपु। उसने ब्रह्मा जी के दिये वर से त्रिलोकी को अपने वश में कर लिया था। वह स्वयं ही वायु अग्नि जल चन्द्र पर राज करने लगा था, तथा धन का स्वामी भी स्वयं ही बन गया था और यम का पद भी उसने छीन लिया था। वह स्वयं ही सभी यज्ञ फलों को भी भोगता था।
उस समय सभी देवता स्वर्ग त्याग कर मनुषी रुपों में धरती पर विचरने लगे और वह असुर ब्रह्मा जी के दिये वर से गर्वित हुआ गन्धर्वों द्वारा गीयमान होती हुआ प्रिय लगने वाले विषयों को भोगता था। मदिरापान में लगे उस महान असुर हरिण्यकशिपु की सभी नाग और गन्धर्व उपासना करते थे।
हिरण्यकशिपु का एक ही पुत्र था जिसका नाम था प्रह्लाद। वह अपने गुरु के यहां पढता था। एक दिन जब हरिण्यकशिपु मदिरापान में लगा हुआ था, तो उस के सामने उसका वह धर्मात्मा पुत्र अपने गुरु के साथ आया। अपने उस तेजस्वी पुत्र को प्रणाम करते देख हिरण्यकशिपु बोला:
हे वत्स। अब तक तूने जो कुछ भी पढा है, उसे तु हमे सार रूप से बता।
प्रह्लाद बोले: सुनिये पिताजी, आप की आज्ञा से मैं वह सार बताता हूं जो मेरे मन में समाया हुआ है। ‘जिसका कोई आदि नहीं है, मध्य नहीं है, अन्त नहीं है, जो वृद्धि और क्षय से परे है, उन अच्युत को मैं प्रणाम करता हूं जो अन्त करण में स्थित हैं और सभी कारणों के कारण हैं’।
महाराज श्री बोले: यह सुन कर वह दैत्य क्रोध से लाल हुई आँखों से उन के गुरु को देखते हुए, काँपते होंठों से बोला: हे दुर्मति ब्राह्मण, तुने मेरी आज्ञा के विरुद्ध इसे क्यों विपक्ष की स्तुती करने की प्रेरणा दी ।
इस पर गुरु बोले: हे दैत्येश्वर, आप क्रोधित न हों। आपका यह पुत्र मेरा सिखाया हुई नहीं बोल रहा है।
हरिण्यकशिपु होला: इस प्रकार की अनुचित बातें तुमने कहां से सीखीं प्रह्लाद। तुम्हारे गुरु तो कहते हैं कि उन्होंने यह नहीं सिखाया।
प्रह्लाद बोलेः वह विष्णु तो सबके हृदय में स्थित हो कर सभी को सिखाते हैं। उन परमात्मा के अतिरिक्त और भला कौन किसे कुछ सिखा ही सकता है।
हिरण्यकशिपु बोला: कौन है यह विष्णु जिसकी तू महादुर्बिद्धि बार बार बात किये जा रहा है। इस जगत का ईश्वर तो मैं हूं जिसके सामने तू यह सब कह रहा है।
प्रह्लाद बोले: जो शब्दों के विषय नहीं हैं, योगीयों द्वारा चिन्तनीय परं पद हैं। जिनसे यह संसार आया है, वही विष्णु परेश्वर हैं।
हिरण्यकशिपु बोले: मेरे सामने तु और किस को परमेश्वर कहता है। इस प्रकार बार बार मृत्यु की इच्छा क्यों कर रहा है।
प्रह्लाद बोले: हे पिता। न केवल मेरे और इस प्रजा के, वह परमेश्वर तो आप के भी धाता और विधाता हैं। प्रसन्न होईये, क्रोध क्यों करते हैं।
हिरण्यकशिपु बोले : न जाने कौन इस दुरबुद्धि के हृदय में प्रवेश कर चुका है जिसके कारण यह पापी कठोर हृदय से ऐसी असाधु बाते कर रहा है।
प्रह्लाद बोले: न केवल मेरे हृदय में, वह विष्णु तो इस संपूर्ण संसार में स्थित हैं। वह मुझे, आपको और सभी अन्य लोगों को अपनी अपनी चेष्टाओं में प्रवृत करते हैं।
हिरण्यकशिपु बोले: इस पापी को यहां से निकालो और गुरुगृह में सही से सिखाओ। न जाने किसने इसे विपक्ष की स्तुति करने में लगा दिया है।
महाराज श्री बोले: उन के इस प्रकार कहने पर प्रह्लाद जी पुनः अपने गुरु घर में आ गये और गुरु सेवा और शिक्षा प्राप्त करने लगे। बहुत समय बीत जाने पर वे फिर अपने पिता के पास गये। तब उनके पिता नें उन्हें कुछ सुनाने को कहा।
प्रह्लाद बोले: जिन से प्रधान (मूल प्राकृति) और पुरुष (आत्मा) आये हैं, जिन से यह चर अचर जगत उत्पन्न हुआ है, जो इस सकल सृष्टि के कारण हैं, वह विष्णु हम पर प्रसन्न हों।
हिरण्यकशिपु बोले: इस दुरात्मा को मार डालो। इस के जीने से अब कोई लाभ नहीं है क्योंकि यह स्वयं के कुल के लिये ही हानिकारक हो गया है।
महाराज श्री जी बोले: हिरण्यकशिपु के इस आदेश पर हजारों दैत्य श्री प्रह्लाद जी को मारने के लिये उन पर टूट पडे।
प्रह्लाद बोले: भगवान विष्णु शस्त्रों में हैं, मुझ मैं और जो भी यहां लोग हैं सब में हैं। इस सत्य के पराक्रम से इन शस्त्रों का मुझ पर कोई प्रभाव न हो।
महाराज श्री बोले: तब सैंकडों दैत्यों द्वारा शस्त्रों के प्रहार होते हुऐ भी प्रह्लाद जी को कुछ नहीं हुआ और न ही तनिक भी वेदना हुई।
हिरण्यकशिपु बोले: हे दुर्बुद्धि। विपक्ष की स्तुति करना बंद कर दे। मैं तुझे अभय दान देता हूं, ज्यादा मूर्ख मत बन।
प्रह्लाद बोले: भयों का नाश करने वाले अनन्त जब मन में स्थित हों तो मुझे भला भय कैसे हो सकता है हे तात। जिन्हें याद करने से मनुष्य जन्म जरा अन्त आदि सभी भयों से मुक्ति पा लेता है।
हिरण्यकशिपु बोले: हे सर्पा। इस दुराचारी अत्यन्त दुर्मति का तुम अपने विष ज्वाला भरे दांतों से अन्त कर दो।
महाराज श्री जी बोले: यह सुनकर साँपों ने प्रह्लाद जी को काटना शुरु किया। लेकिन भगवान में आसक्त मति के कारण उन्हें जरा सी भी वेदनी नहीं हुई।
सर्प बोले: हमारे दाँत टूट गये, मणियां हिलने लगीं, फण तपित हो गये हैं और हृदय काँपने लगा है, लेकिन इसकी त्वचा तनिक भी भेद नहीं पाये। हमे कोई और कार्य दीजीये हे दैत्येश्वर।
हिरण्यकशिपु बोले: हे हाथिओ। तुम अपने दाँतों से इसे रौंध डालो।
महाराज श्री बोले: फिर प्रह्लाद जी को हाथिओं ने जमीन पर गिरा कर अपने पैरों और दाँतों से कुचला शुरु किया। लेकिन गोविन्द को याद करते रहने के कारण हाथियों के हजारों दाँत प्रह्लाद जी की छाती से टकरा कर टूट गये। तब प्रह्लाद जी अपने पिता से बोले : यह जो हाथियों के कठोर दाँत टूट गये हैं, यह मेरा बल नहीं है। यह तो महा विपत्ति नाशक भगवान जनार्दन का स्मरण करने का प्रभाव है।
हिरण्यकशिपु बोले: हट जाओ हाथियो। ज्वाला जलाओ असुरो और हे वायु तुम अग्नि को प्रज्वलित करो । इस पापकृत को जला डालो।
महाराज श्री बोले: अपने स्वामी का आदेश सुन कर दैत्यों ने एक बहुत बडे कुण्ड में अग्नि प्रज्वलित की।
प्रह्लाद बोले: हे पिताजी। वायु द्वारा बढी हुई आग भी मुझे नहीं जला रही है। मुझे तो ऐसा लग रहा है जैसे सभी दिशायें कमल के पत्तों के समान शीतल हैं।
महाराज श्री बोले: तब भार्गव के पुत्र और अन्य पुरोहितों ने राजा हिरण्यकशिपु से यह कहा।
पुरोहित बोले: हे राजन । आप अपना क्रोध त्याग दीजिये । यह आप का अपना पुत्र है । क्रोध तो देवतायों पर करना चाहिये । बचपन तो सभी दोषों का घर होता है । हम इसे समझायेंगें, और यदि फिर भी यह न माना तो हम इस के वध के लिये अग्नि कृत्या उत्पन्न कर देंगें जिस से धुटकारा पाना संभव नहीं है ।
महाराज श्री जी बोले: पुरोहितो की यह बात सुनकर दैत्यराज ने अपने पुत्र को वहां से निकलवाया और वे वापिस अपने गुरुघर चले गये ।
प्रह्लाद बोले: सुनो हे दैत्यो, दिति के पुत्रो ।
मनुष्य जितनी चीजें इक्ट्ठी करता जाता है, उतना ही उस के मन में दुख बढता जाता है । जन्तु जितने भी सम्बन्धों को अपने मन से प्रिय करता है, उतने ही उस के हृदय में शोक रुपी कांटे घर कर लेते हैं ।
जन्म से लेकर मनुष्य दुख भोगता है, और फिर मृत्यु के पश्चात भी यम यातनाओं को भोगता हुआ फिर गर्भ में प्रवेश करता है । यदी आप को गर्भ में लेशभर भी सुख का अनुमान होता है तो बताईये । इस प्रकार यह संपूर्ण संसार ही दुखमयी है । इस अत्यन्त दुखों के महासागर में मैं आप लोगों से सत्य कहता हूं, एक विष्णु ही सहारा हैं ।
यह मत जानो की हम बालक हैं, क्योंकि देही इन देहों में शाश्वत है । बुढापा, यौवन, जन्म आदि देह के धर्म हैं आत्मा के नहीं । अबी तो हम बालक हैं, खेलने का मन करता हैं, बडे होने पर श्रेय का प्रयत्न करेंगें । युवा आवस्था प्राप्त कर लेने पर यह कहना की बुढापे में श्रेय के लिये मेहनत करेंगें । और वृद्ध आवस्था आने पर मैं मन्द आत्मा हूं मैं क्या करूं मैं असमर्थ हूं । इस प्रकार दुराशाओं में गिरा मनुष्य श्रेय से हाथ धो कभी अपना कल्याण नहीं कर पाता । बचपन में खेलने में लगे हुये, यौवन में विषयों में पडे, और बुढापा आ जाने पर शक्तिहीन होने के कारण वह श्रय से अभिमुख हो जाता है । इसलिये बाल्यावस्था में हीं बुद्धिमान पुरुष को सदा श्रेय के लिये प्रयत्न करना चाहिये
पुरोहित बोले: तुम त्रिलोक प्रसिद्ध ब्रह्मा के कुल में पैदा हुए हो । तुम्हारे पिता हिरण्यकशिपों दैत्यों के राजा हैं । तुम्हें भगवान से क्या लेना है, तुम्हारे पिता संपूर्ण संसार के राजा हैं और भविष्य में तुम भी होगे । इसलिये तुम विपक्ष की स्तुति करना बंद कर दो । पिता ही सभी गुरुओं में सब से परम गुरु होता है ।
प्रह्लाद बोले: आप ने जो कहा है कि यह कुल त्रिलोकी में प्रसिद्ध है इस में कुछ भी अन्यथा नहीं है । मेरे पिता भी सारे संसार में उत्कृष्ट हैं, यह भी सत्य है । और सभी गुरुओं में पिता परम गुरु है, इस में भी कोई गलत नहीं । पिता ही प्रयत्न के साथ पूजनीय हैं यह सही है, और मेरे हिसाब से तो मैं उनकी अपराधी भी नहीं हूं । लेकिन जो आपने कहा है कि मुझे भगवान से क्या लेना है, आपकी इस बात को कौन न्यायपूर्ण कहेगा ।
यह कह कर वे गुरुओं का मान रखने के लिये मौन हो गये । और फिर कहने लगे साधु साधु (अर्थात बहुत अच्छे बहुत अच्छे), यदि आप खेद न मानें तो मुझे भगवान से क्या लेना है सुनें । मनुष्य के चार पुरुषार्थ बताये जाते हैं, धर्म अर्थ काम और मोक्ष । यह चारो ही जिन से प्राप्त होते हैं उन के लिये आप यह क्यों कहते हैं कि तुझे अनन्त से क्या लेना है । मरीचि, दक्ष और अन्य बहुतों ने उन अनन्त से ही धर्म प्राप्त किया, अन्यों ने धन, और औरों नें ईच्छापूर्ति (काम) । उन्हीं के तत्व को ज्ञान और ध्यान द्वारा जान कर बहुत से पुरुषों ने अपने बंधनों को धवस्त कर मुक्ति प्राप्त की ।
सम्पदा, ऐश्वर्य़, महात्मय, ज्ञान, सन्तति, विमुक्ति आदि की मूल (जड) भगवान हरि की अराधना ही है । जिनसे धर्म, अर्थ, काम और मुक्ति भी प्राप्त होती है, उनहीं अनन्त के प्रति आप ऐसे क्यों कहते हैं ।
और बहुत कहने का क्या लाभ । आप मेरे गुरु हैं । कुछ भी कह सकते हैं और मुझे तो बुद्धि भी कम है । ज्यादा कहने से क्या लाभ । वे ही जगत पति हैं । वे ही कर्ता हैं विकर्ता हैं और संहर्ता (अन्त हैं), हृदय में स्थित हैं । वे ही भोक्ता हैं (भोगने वाले), भोज्य हैं, वे ही जगदीश्वर हैं । मुझ से बाल्यवश कुछ गलत कहा गया हो तो क्षमा कर दें ।
पुरोहित बोले: हम तो तेरी अग्नि से रक्षा करना चाहते थे । फिर तुम्हें यह सब नहीं कहेंगें । हमे नहीं पता था कि तु इतना बुद्धिमान है । अगर तु हमारा कहना नहीं मानेगा तो हे दुर्मति, हम तेरे विनाश के लिये कृत्या उत्पन्न करेंगें ।
प्रह्लाद जी बोले: कौन जन्तु किसे मारता है, और कौन जन्तु किस की रक्षा करता है । आत्मा स्वयं ही साधु असाधु आचरण से मरती और रक्षती है । कर्मों से ही सब पैदा होते हैं, कर्म ही गति (स्थिति) निर्धारित करते हैं । इसलिये सभी प्रयत्नों द्वारा साधु कर्म ही करने चाहिये ।
महाराज श्री बोले: यह सुन कर दैत्य पुरोहित क्रोधित हो उठे और उन्हेंने कृत्या उत्पन्न की । वह ज्वाला से हर और भरी अग्नि की आकृति थी, अत्यन्त भीम, विषाल और पैरों से पृथ्वि को हिलाती । उस ने प्रह्लाद पर शूल फेंका । वह जलता हुआ भाला उन की छाटी से टकराते ही सैंकडों टुकडे होकर जमीन पर गिर गया । जहां भगवान हरि ईश्वर बसते हों वहीं वज्र टूट जाता है तो शूल की क्या बात है । पापहीन पर कृत्या का उपयोग करने के कारण वह कृत्या उन्हीं पर आकृमण किया और उन पुरोहितों को जला कर स्वयं नष्ट हो गई । कृत्या की अग्नि में उन पुरोहितों को जलते देख प्रह्लाद जी ‘हे कृष्ण रक्षा करियें । हे अनन्त रक्षा करिये ‘ कहते उस ओर भागने लगे ।
श्री प्रह्लाद बोले: हे सर्व व्यापि जनार्दन, हे जगद रूप, हे जगद स्रष्ट, इन विप्रों की इस दुसह मन्त्र अग्नि से रक्षा करिये । जैसे सभी जीवों में आप व्याप्त हैं हे जगदगुरु विष्णु, इसी सत्य से यह पुरोहित जी उठें । जैसे भगवान विष्णु को सभी जगह देखते हुये मैंनें सदा उन्हें विपक्षीयों में भी देखा है, उस सत्य से यह पुरोहित जी उठें । जो मुझे मारने आये, जिन्होंने मुझे विष दिया, या अग्नि में जलाया, जिन्होंने मुझे हाथी के पैरो तले कुचला, साँपों से डसवाया, उन के प्रति भी यदी मैं मित्र भाव ही रहा हूं और मेरे मन में कभी पाप (द्वेष) नहीं हुआ है तो इस सत्य के पराक्रम से यह सभी असुर याजक जी उठें ।
महाराज श्री बोले: यह कह कर उन्हें ने उन्हें स्पर्श किया तो वे पुरोहित फिर से उठ बैठे ।
पुरोहित बोले: दीर्घ आयु हो तुम्हारी पुत्र, बल वीर्य पाओ, पुत्र पौत्र धन ऐश्वर्य युक्त हो वत्स, तुम उत्तम हो ।
महाराज श्री जी बोले: पुरोहितों ने फिर राजा के पास जा कर सारा किस्सा ज्यों का त्यों सुनाया । कृत्या को विफल हुई सुन कर हिरण्यकशिपु ने प्रह्लाद को बुलाया और पूछा ।
हिरण्यकशिपु बोले: प्रह्लाद तुम्हारे इस महान प्रभाव का क्या कारण है । क्या ये जन्म से ही है या मन्त्र से उत्पन्न है ।
महाराज श्री बोले: अपने पिता द्वारा इस प्रकार पूछे जाने पर प्रह्लाद ने उन्हें हाथ जोड कर प्रणाम किया और कहा । हे पिताजी, न यह मन्त्र जनित है, और नी ही यह जन्म से है । यह प्रभाव तो उस के लिये सामान्य है जिसका हृदय अच्युत में है । जो अन्यों के लिये अपने ही सामान कोई पाप नहीं सोचता, उसके लिये पाप प्राप्त होने का कोई कारण भी नहीं रहता हे तात । कर्म मन या वाक्यों से जो किसी को पीडा पहुंचाता है, उसके फल स्वरूप उसे अशुभ फल प्राप्त होता है । इसलिये, सभी जीवों में और स्वयं में केशव का चिन्तन करते हुये मैं न पाप की इच्छा करता हूं, न करता हूं और न ही बोलता हूं । शारीरिक, मानसिक दुख, दैविक या लौकिक – सदा हर जगह शुभ चित रहते हुए मुझे कैसे प्राप्त हो सकता है । इस प्रकार ज्ञानमन्द को सभी जावों में सर्वभूतमयी हरि को ही जान कर उन की अव्यभिचारिणी भक्ति करनी चाहिये ।
महाराज श्री जी बोले: यह सुन कर दैत्यराज क्रोध से अन्धकारित मुख से बोला । इस दुरात्मा को इस यौ योजन ऊँचे महल से नीचे जमीन पर गिरा दो । धरती पर शीलाओं पर गिर कर इसके अंग भिन्न जायेंगें ।
महाराज श्री जी बोले: तब सभी दैत्य दानवों नें उस बालक को वहां से फेंक दिया और वे भी हृदय में हरि जी को याद करते गिरने लगे । तब जगद धात्री धरती माता मेदिनी नें केशव की भक्ति से युक्त उस बालक को गिरते देख उसके पास जा कर उसे उठा लिया । तब उसे स्वस्थ और अस्थियां टूटे बिना देख कर हिरण्यकशिपु नें मायावीयी शम्बर से कहा ।
हिरण्यकशिपु बोले: हम इस दुर्बुद्धि बालक का अन्त नहीं कर सकते । आप माया जानते हैं । इसे माया से ही मार दीजिये ।
शम्बर बोला: मैं इसे मार देता हूं, हे दैत्येन्द्र, आप मेरे माया बल देखिये और मेरी हजारों करोडों मायाओं को देखिये ।
महाराज श्री जी बोले: तब उस दुर्बुद्धि असुर शम्बर में हर जगह सम बुद्धि प्रह्लाद जी को मारने के लिये मायायें रचना शुरु किया । लेकिन प्रह्लाद जी फिर भी समाहित मति से मधुसूदन को याद करने लगे । तब उन की रक्षा करने के लिये भगवान का अति उत्तम अत्यन्त वेगवान ज्वाला मालाओं से युक्त सुदर्शन चक्र वहां आया । उस ने उस बालक की रक्षा करते हुये शम्बर की सभी मायाओं का अन्त करते हुय़े शम्बर का अन्त कर दिया ।
यह देख कर हिरण्यकशिपु ने अति दारुण शीत पवन से कहा कि जल्दि से वह प्रह्लाद में प्रवेश कर उसका अन्त कर दे । अपने शरीर में उस अति दुसह सूखी अती दारुण शीत पवन को प्रवेश किया जान उस दैत्य बालक (प्रह्लाद जी) में हृदय में भगवान धरणीधर को धारण किया । उस अति भीषण वायु को जनार्द ने तब क्रोधित हो कर पी लिया जिस से उस का क्षय हो गया
तब सभी मायाओं का क्षय हो जाने पर, तथा पवन का भी क्षय हो जाने पर, वे महामति अपने गुरुघर चले गये । चिरकाल बाद वहां वे शिक्षी स्माप्त कर अपने गुरु के साथ दैत्यराज के पास आये । गुरु ने हिरण्यकशिपु से कहा कि प्रह्लाद अब नीतिशास्त्र में निपुर्ण हो गया है ।
हिरणयकशिपु बोले: हे प्रह्लाद बता की मित्र से कैसे और वैरी पक्ष से राजा को कैसा व्यवहार करना चाहिये । मध्य स्थित से कैसे, मन्त्रियों से कैसे, बाहर के और अन्दर के लोगों से कैसे, और चारों वर्गों के लोगों से कैसा व्यवहार करना चाहिये । अपने रस्ते के काँटे को कैसे निकाले आदि और भी जो कुछ तूने सीखा है सब मुझे बता । मैं तेरे विचार सुनने की इच्छुक हूँ ।
महाराज श्री जी बोले: तब प्रह्लाद जी ने हाथ जोड कर अपने पिता को प्रणाम किया और कहा ।
श्री प्रह्लाद बोले: मुझे गुरु जी ने सब सिखा दिया है और मैंने सीख भी लिया है इस में कोई संदेह नहीं है । लेकिन मेरे मत से यह सद नहीं हैं । साम दान दंड भेद अदि उपाय बताये गये हैं मित्र आदि पर इस्तेमाल करने के लिये । लेकिन मुझे मित्रादि ही नहीं दिखाई देते हे तात । जब मित्र आदि ही नहीं दिखाई देते तो उन पर उपयोग करने वाले उपायों से क्या लाभ । हे तात, सर्वभूतमयी जगतमयी भगवान जगन्नाथ में परमात्मा गोविन्द में मित्र वैरी की बात ही कहां है ।
आप में वे भगवान विष्णु हैं, मुझ में और अन्य सभी लोगों में भी वही हैं । तो यह मेरा मित्र है और यह मेरा शत्रु यह भेद ही कहां । इसलिये इस दुष्टता को आरम्भ कराने वाले अज्ञान को व्यर्थ जान कर हमें वह करना चाहिये जो शुभ हो । मनुष्य अविद्या के कारण ही अज्ञान को विद्या मानता है, जैसे बालक अग्नि को खेलने की वस्तु मान बैठते हैं । वही सही कर्म है जो बन्धन का कारण न हो, और वही विद्या है जो विमुक्ति करे । इस प्रकार हे महाभाग इसे आसार जान कर मैं आप को प्रणाम कर उत्तम सार बताता हूं ।
कौन राज्य के बारे में नहीं सोचता । किस को धन की इच्छी नहीं होती । लेकिन यह मिलते उसी को हैं जिसे मिलने वाले होते हैं । सभी महानता के लिये प्रयत्न करते हैं, लेकिन विभूति का कारण मेहनत नहीं भाग्य होता है । क्या जडों, बुद्धिहीनों, अशूरों, अनीतिवानों को भी भाग्यवश राज्य और सन्ति आदि भोग नहीं प्राप्त हो जाते ।
इसलिये जिसे बहुत श्रेय की इच्छा हो वह पुण्य कमाने का प्रयत्न करे । और जिसे निर्वाण की इच्छा हो वह समता की तरफ मेहनत करे ।
देव मनुष्य पशु पक्षी वृक्ष आदि यह सभ अनन्त के ही रूप हैं, विष्णु से भिन्न से स्थित दिखने वाले । यह जानकर इस संपूर्ण संसार चर अचर जगत को स्वयं के जैसे ही देखना चाहिये क्योंकि विष्णु ही इस संसार का रूप धारण किये हुये हैं । यह जान लेने पर भगवान अनादि परमेश्वर प्रसन्न होते हैं, और उन के प्रसन्न होने पर कलोशों का अन्त हो जाता है ।
महाराज श्री जी बोले: यह सुन कर हिरण्यकशिपु अपने आसन से उठा और प्रह्लाद के छाती में लात मारी । फिर क्रोध से अपने हाथ मलता हुआ, मानो सारे संसार को मार देना चाहता है, बोला:
हिरण्यकशिपु बोले: हे विप्रचित्ते । हे राहो । हे बलैष । देर मत करो, इसे नाग पाश में अच्छी तरह बाँध कर महासागर में फेंक दो । वरना यह सारा संसार और दैत्य दानव इस मूर्ख दुरात्मा के मत का ही अनुसरण करने लगेंगें । इसे बहुत समझाया हमने लेकिन यह फिर भी दुष्मन की ही स्तुति करता है, इस दुष्ट का वध करना ही उपकारी है ।
महाराज श्री जी बोले: तब दैत्यों ने उन्हें नाग बन्धन में बाँध कर, जैसा उन के स्वामी ने कहा था, सागर में फेंक दिया । वहां महासागर में प्रह्लाद के हिलने से सागर में हलचल मच गई । इस से सारी भूमि को पानी से क्षोभित होते देख हरिण्यकशिपु ने दैत्यों से कहा :
हिरण्यकशिपु बोले: हे दैत्यो । इस दुर्मति को हर ओर से बडी बडी शिलाओं से ढक दो ताकि कहीं कोई भी छेद न बचे । न इसे अग्नि जलाती है, न वायु से इसे कुछ हुआ, न शस्त्र इस भेद पाये, न ही यह विष से मरा, न कृत्या से, न माया से मरा, न ही नीचे गिराने से और न ही हाथी इसे मार पाये । यह बालक अत्यन्त दुष्ट है, इसके जीवित रहने से हमे कोई मतलब नहीं है । इसे पानी में ही धरती के तल पर पडा रहने दो । वहाँ हजारो वर्ष पडे रहने पर यह स्वयं ही अपने प्राण त्याग देगा ।
तब दैत्य दानवों ने महान पर्वतों से हजारों योजन बडे ढेर से प्रह्लाद जी को सागर में दबा दिया । वहां महामति प्रह्लाद जी ने भगवान अच्य़ुत की तुष्टी के लिये एकाग्र चित से यह प्रार्थना की :
प्रह्लाद जी बोले (इसे नृसिहं सतुति भी कहा जाता है): नमस्ते पुण्डरी काक्ष, नमस्ते पुरुषोत्तम । नमस्ते सर्व लोकों के आत्मन् । नमस्ते तेज च्रक धारी । नमो ब्रह्मण देवाय गो ब्राह्मण हिताय । जगद धाता, कृष्ण, गोविन्द आप को नमस्कार है नमस्कार है । आप ब्रह्मा बन कर विष्व की स्रष्टि करते हैं, और फिर उसका पालन करते हैं, और कल्प के अन्त में रुद्र रुप से उस का अन्त करते हैं । आप को प्रणाम है हे त्रिमूर्ति ।
ॐ नमः वासुदेवाय हे भगवन आप को सदा । आप के अतिरिक्त दूसरा कोई व्यक्ति नहीं है, और इस सब के अतिरिक्त जो एक व्यक्ति हैं (भगवान) ।
आप को प्रणाम है, आप को प्रणाम है, आप को प्रणाम है हे महात्मा । जिनका कोई भी नाम और रुप नहीं है । जो स्वयं अपनी इच्छा से ही प्राप्त होते हैं ।
जिनके परम रुप को न देखने के कारण देवता लोग जिनके अवतार रुपों की सदा अर्चना करते हैं, मैं उन महात्मा को प्रणाम करता हूं ।
जो सब के अन्त करण में स्थित होकर उनके शुभ और अशुभ को देखते हैं, उन संपूर्ण विश्व के साक्षी को नमस्कार है । हे विष्णु आप को नमस्कार है, जिन से यह संसार अलग नही है । वे अव्यय जगत के आदि मुझ पर प्रसन्न हों।
जिनसे यह विश्व ओत प्रोत है, वे अक्षर, विकार हीन (अव्यय), सब कुछ के आधार हरि मुझ पर प्रसन्न हों । हे विष्णु आप को नमस्कार है, नमस्कार है, फिर फिर नमस्कार है । जो हर जगह हैं, जिन से सब कुछ आया है, जो सब कुछ हैं, सब कुछ के आश्रय हैं, हर जगह स्थित (सर्वगत) अनन्त मुझ में भी स्थित हैं । इसलिये मुझ से ही सब कुछ है, मुझ में ही सब कुछ है, मैं ही सब कुछ हूं, सनातन हूं । मैं ही अक्षय हूं, नित्य हूं, परमात्मा हूं, ब्रह्म मेरा ही नाम है, मैं ही परम पुरुष हूं ।
महाराज श्री जी बोले: इस प्रकार चिन्तन करते हुये प्रह्लाद जी ने स्वयं को विष्णु भगवान से अभिन्न समझा । वे भगवान अच्युत से पुरी तरह तनमय हो गये । उस समय वे अपनी आत्मा को भूल कर और किसी को नही जान रहे थे । मैं ही अव्यय हूं (विकार हीन हूं), अनन्त हूं, परमात्मा हूं, इस प्रकार चिन्तन कर रहे थे । उस भावना के संयोग से उन के पाप क्षीण हो गये और उनके शुद्ध अन्त करण में ज्ञानमयी अच्युत श्री विष्णु जी स्थित हुये ।
इस योग के प्रभाव से प्रह्लाद जी विष्णुमयी हो गये । उस समय उन के तनिक से हिलते ही वह नागपाश क्षण में ही टूट गया । उन के हिलने डुलने से सभी ग्रह, चन्द्र आदि अपने मार्ग से हिल गये तथा सागर क्षोभित हो गया, और पृथ्वि हिलने लगी । तब अपने ऊपर लदा वह शिलाओं के ढेर को दूर फेंक कर वे महामति सागर से बाहर निकले ।
फिर जगत, आकाश आदि लक्षणों को देख कर उन्हें फिर से अपनी आत्मा का स्मरण हुआ । प्रह्लाद जी ने तब फिर से भगवान अनादि पुरुषोत्तम जी की तुष्टि के लिय एकाग्र मन से यह वाक्य कहे :
आप को प्रणाम है हे परम अर्थ (परमार्थ), स्थूल सूक्षम, क्षर अक्षर, व्यक्त अव्यक्त, समय चक्र से परे, सकलेश (सब के ईश), हे निरङ्जन । गुणाङ्जन, हे गुणों के आधार, हे निर्गुण आत्मा, हे गुणों में स्थित, हे मूर्तिमान अमूर्तिमान, हे महा मूर्ति, हे सूक्ष्म मूर्ति, हे दिखने वाले और अदृष्य भी । हे विकराल और सौम्य रुप, हे आत्मन, हे विद्या और अविद्या मयी अच्युत, हे सद असद आप को प्रणाम है ।
हे नित्य अनित्य, हे प्रपंच आत्मन, हे निष्प्रपंच आत्मन, हे एक अनेक, आप को नमस्कार है हे वासुदेव, हे आदि कारण । जो स्थूल भी हैं और सूक्ष्म भी, जो प्रकट भी हैं और अप्रकट भी, जो यह सब कुछ हैं और इस से परे भी हैं, जिन से यह विश्व आया है, उन पुरुषोत्तम को नमस्कार है ।
महाराज श्री जी बोले: प्रह्लाद जी जब इस प्रकार भगवान की स्तुति कर रहे थे तो उन्हें पीताम्बर वस्त्र धारी भगवान हरि ने अपने दर्शन दिये । अचानक अपने सामने भगवान को देख प्रह्लाद जी व्याकुल सी आँखों से आचम्भित होकर कहने लगे ‘आप को प्रणाम है, आप को प्रणाम है’ ।
प्रह्लाद जी बोले: हे देव, हे प्रपन्नार्तिहर (प्रपन्न आर्ति हर – शरण लेने वाले के कष्ट को हरने वाले) प्रसन्न होईये हे केशव । मुझे अपने दर्शन दान से आगे भी पवित्र करियेगा ।
श्री भगवान बोले: तुम्हारी अव्याभिचारिणि भक्ति से मैं प्रसन्न हूँ हे प्रह्लाद । तुम्हें जो भी वर की इच्छा हो माँग लो ।
प्रह्लाद बोले: हे नाथ । मैं जिन भी हजारों योनियों में विराजूं, उन उन सभी जन्मों में मैं सदा आप की निरन्तर भक्ति करूं हे अच्युत ।
श्री भगवान बोले: मुझ में तो तुम्हारी भक्ति है ही और आगे भी ऐसे ही रहेगी । तुम्हें जो भी वर की इच्छा हो मुझ से ले लो ।
प्रह्लाद बोले: आप की स्तुति करने के कारण, मुझ से जो पिता जी ने द्वेष किया, उस से उन्हें जो पाप लगा है, वह नष्ट हो जाये । मुझे जो शस्त्रों से भन्ना, ऊपर से गिराया, अग्नि में जलाया, मेरे भोजन में विष मिलाया, और बाँध कर सागर में गिराया, शिलाओं से दबाया, तथा और जो भी असाधु कार्य मेरे पिता ने मेरे विरुद्ध किये, आप में भक्तिमान मनुष्य से द्वेष करने के कारण जो उनहें पाप प्राप्त हुआ है, हे प्रभु, आप की कृपा से जल्द ही मेरे पिता उस से मुक्त हो जायें ।
श्री भगवान बोले: प्रह्लाद, मेरी कृपा से यह सब भविष्य में होगा । मैं तुम्हें और वर देता हूं, वर माँगो ।
प्रह्लाद बोले: हे भगवन, आप ने जो मुझे वर दिया की मैं आप की कृपा से भविष्य में भी आप की अव्यभिचारिणी भक्ति करूँगा, मैं तो उस से ही कृत कृत हो गया हूँ । धर्म, अर्थ, काम उसके लिये क्या हैं, वह तो मुक्ति को अपने हथेली पर स्थित किये हुये है, जो इस सारे संसार की मूल आप की भक्ति में स्थित है ।
श्री भगवान बोले: जैसी तुम्हारा चित्त निश्चल मेरी भक्ति में स्थित है, वैसे ही मेरी कृपा से तुम परम निर्वाण पद प्राप्त करोगे ।
महाराज श्री जी बोले: यह कह कर भगवान विष्णु अन्तर्ध्यान हो गये । और प्रह्लाद जी भी एक बार फिर से अपने पिता के पास जा उन के चरणों की वन्दना की । तब उन के पिता जी ने आँखों में आँसु भर उन का सिर सूँघते हुये कहा ‘जीता तो है ना बेटा’ । तब वे गुरुओं और पिता की सेवा करते हुये धर्म पूर्ण ठंग से रहने लगे ।
पिता के भगवान विष्णु के नरसिंह रूप द्वारा मृत्यु पश्चात वे राजा हुये । तब राजपद प्राप्त कर, कर्मों द्वारा शुद्धि करते हुये, बहुत से पुत्र पौत्रों को प्राप्त कर वे बलशाली और ऐश्वर्य युक्त राजा हुये । भगवान का ही ध्यान करते हुये, पाप और पुण्य से मुक्त हुये (क्षीण अधिकार हुये) उन्हों ने अन्त में निर्वाण प्राप्त किया।
जो महात्मा प्रह्लाद जी के इस चरित्र को सुनता है, उस के पापों का जल्दि ही क्षय हो जाता है । दिन और रात मे किये पाप से, महात्मा प्रह्लाद जी का चरित्र सुनने या पढने से, मनुष्य मुक्त हो जाता है, इस में कोई शक नहीं है ।
इस पावन अवसर पर महेश पोद्दार, शिखा सिंह, आशीष राजगारिया, संजय गोयल, विश्व नाथ केडिया, बेगराज गोयल, मनीष अग्रवाल, विकास शर्मा आदि मौजूद रहे।