नवी शताब्दी के दौरान भारत कई जातियों, परम्पराओं और दर्शन का घर हुआ करता था, उस समय बहुत ही प्रसिद्ध धार्मिक सुधारक और आचार्य अवतरित हुए थे. जैसे आदि शंकराचार्य, रामानुजाचार्य, माधवाचार्य और बसवेश्वर. गुरुपूर्णिमा के अवसर पर आईये आपको कुछ जानकारी देते हैं धार्मिक गुरों और सामजिक सुधारकों की.
आदिशंकराचार्य
आदि गुरू शंकराचार्य का जन्म केरल के कालडी़ नामक ग्राम मे हुआ था. वह अपने ब्राह्मण माता-पिता की एकमात्र सन्तान थे. बचपन मे ही उनके पिता का देहान्त हो गया. शन्कर की रुचि आरम्भ से ही सन्यास की तरफ थी. अल्पायु मे ही आग्रह करके माता से सन्यास की अनुमति लेकर गुरु की खोज मे निकल पडे.. वेह बचपन से ही बड़े मेधावी थे. उन्होंने सात वर्ष की आयु में कई पांडुलिपियों का अध्धयन किया. वेदान्त के गुरु गोविन्द पाद से उन्होंने वेद और पुराण का ज्ञान प्राप्त किया. शंकराचार्य ने उपनिषद और ब्रह्मसूत्र का भी गहन अध्धयन किया. शंकराचार्य एक महान समन्वयवादी थे. उन्हें हिन्दू धर्म को पुनः स्थापित एवं प्रतिष्ठित करने का श्रेय दिया जाता है. एक तरफ उन्होने अद्वैत चिन्तन को पुनर्जीवित करके सनातन हिन्दू धर्म के दार्शनिक आधार को सुदृढ़ किया, तो दूसरी तरफ उन्होने जनसामान्य में प्रचलित मूर्तिपूजा का औचित्य सिद्ध करने का भी प्रयास किया.शशंकराचार्य के अद्वैत का दर्शन के सार के अनुसार-
ब्रह्म और जीव मूलतः और तत्वतः एक हैं.
हमे जो भी अंतर नजर आता है उसका कारण अज्ञान है.
जीव की मुक्ति के लिये ज्ञान आवश्यक है. जीव की मुक्ति ब्रह्म मे लीन हो जाने मे है.
आचार्य शंकर ऐसे महासागर बन गए, जिसमें अद्वैतवाद, शुद्धाद्वैतवाद, विशिष्टा द्वैतवाद, निर्गुण ब्रह्म ज्ञान के साथ सगुण साकार की भक्ति की धाराएँ एक साथ हिलोरें लेने लगीं. उन्होंने अनुभव किया कि ज्ञान की अद्वैत भूमि पर जो परमात्मा निर्गुण निराकार ब्रह्म है, वही द्वैत की भूमि पर सगुण साकार है. उन्होंने निर्गुण और सगुण दोनों का समर्थन करके निर्गुण तक पहुँचने के लिए सगुण की उपासना को अपरिहार्य सीढ़ी माना. ज्ञान और भक्ति की मिलन भूमि पर यह भी अनुभव किया कि अद्वैत ज्ञान ही सभी साधनाओं की परम उपलब्धि है.उन्होंने ‘ब्रह्मं सत्यं जगन्मिथ्या’ का उद्घोष भी किया और शिव, पार्वती, गणेश, विष्णु आदि के भक्तिरसपूर्ण स्तोत्र भी रचे, ‘सौन्दर्य लहरी’, ‘विवेक चूड़ामणि’ जैसे श्रेष्ठतम ग्रंथों की रचना की.प्रस्थान त्रयी के भष्य भी लिखे.अपने अकाट्य तर्कों से शैव-शाक्त-वैष्णवों का द्वंद्व समाप्त किया और पंचदेवोपासना का मार्ग प्रशस्त किया.उन्होंने आसेतु हिमालय संपूर्ण भरत की यात्रा की और चार मठों की स्थापना करके पूरे देश को सांस्कृतिक, धार्मिक, दार्शनिक, आध्यात्मिक तथा भौगोलिक एकता के अविच्छिन्न सूत्र में बाँध दिया.उन्होंने समस्त मानव जाति को जीवन्मुक्ति का एक सूत्र दिया-
दुर्जन: सज्जनो भूयात सज्जन: शांतिमाप्नुयात्.
शान्तो मुच्येत बंधेम्यो मुक्त: चान्यान् विमोच्येत्॥
अर्थात दुर्जन सज्जन बनें, सज्जन शांति बनें.शांतजन बंधनों से मुक्त हों और मुक्त अन्य जनों को मुक्त करें.अपना प्रयोजन पूरा होने बाद तैंतीस वर्ष की अल्पायु में उन्होंने इस नश्वर देह को छोड़ दिया.
शंकराचार्य ने चार मठों का निर्माण किया. हिंदू धर्म की एकजुटता और व्यवस्था के लिए चार मठों की परंपरा को जानना आवश्यक है. चार मठों से ही गुरु-शिष्य परम्परा का निर्वाह होता है. चार मठों के संतों को छोड़कर अन्य किसी को गुरु बनाना हिंदू संत धारा के अंतर्गत नहीं आता.
शंकराचार्य जी ने इन मठों की स्थापना के साथ-साथ उनके मठाधीशों की भी नियुक्ति की, जो बाद में स्वयं शंकराचार्य कहे जाते हैं. जो व्यक्ति किसी भी मठ के अंतर्गत संन्यास लेता हैं वह दसनामी संप्रदाय में से किसी एक सम्प्रदाय पद्धति की साधना करता है. ये चार मठ निम्न हैं:-
श्रृंगेरी मठ
श्रृंगेरी मठ भारत के दक्षिण में रामेश्वरम में स्थित है.श्रृंगेरी मठ के अन्तर्गत दीक्षा प्राप्त करने वाले संन्यासियों के नाम के बाद सरस्वती, भारती तथा पुरी सम्प्रदाय नाम विशेषण लगाया जाता है जिससे उन्हें उक्त संप्रदाय का संन्यासी माना जाता है. इस मठ का महावाक्य ‘अहं ब्रह्मास्मि’ है तथा मठ के अन्तर्गत ‘यजुर्वेद’ को रखा गया है. इस मठ के प्रथम मठाधीश आचार्य सुरेश्वरजी थे, जिनका पूर्व में नाम मण्डन मिश्र था.वर्तमान में स्वामी भारती कृष्णतीर्थ इसके 36वें मठाधीश हैं.
गोवर्धन मठ
गोवर्धन मठ भारत के पूर्वी भाग में उड़ीसा राज्य के जगन्नाथ पुरी में स्थित है. गोवर्धन मठ के अंतर्गत दीक्षा प्राप्त करने वाले सन्यासियों के नाम के बाद ‘आरण्य’ सम्प्रदाय नाम विशेषण लगाया जाता है जिससे उन्हें उक्त संप्रदाय का संन्यासी माना जाता है. इस मठ का महावाक्य है ‘प्रज्ञानं ब्रह्म’ तथा इस मठ के अंतर्गत ‘ऋग्वेद’ को रखा गया है. इस मठ के प्रथम मठाधीश आदि शंकराचार्य के प्रथम शिष्य पद्मपाद हुए.इस मठ के पहले मठाधीश आदि शंकराचार्य के पहले शिष्य पद्मपाद हुए. वर्तमान में निश्चलानंद सरस्वती इस मठ के 145 वें मठाधीश हैं.
शारदा मठ
शारदा (कालिका) मठ गुजरात में द्वारकाधाम में स्थित है. शारदा मठ के अंतर्गत दीक्षा प्राप्त करने वाले सन्यासियों के नाम के बाद ‘तीर्थ’ और ‘आश्रम’ सम्प्रदाय नाम विशेषण लगाया जाता है जिससे उन्हें उक्त संप्रदाय का संन्यासी माना जाता है. इस मठ का महावाक्य है ‘तत्त्वमसि’ तथा इसके अंतर्गत ‘सामवेद’ को रखा गया है.
शारदा मठ के प्रथम मठाधीश हस्तामलक (पृथ्वीधर) थे. हस्तामलक शंकराचार्य जी के प्रमुख चार शिष्यों में से एक थे.हस्तामलक आदि शंकराचार्य के प्रमुख चार शिष्यों में से एक थे. वर्तमान में स्वामी स्वरूपानन्द सरस्वती इसके 79 वें मठाधीश हैं.
ज्योतिर्मठ
उत्तरांचल के बद्रीनाथ में स्थित है ज्योतिर्मठ. ज्योतिर्मठ के अंतर्गत दीक्षा प्राप्त करने वाले संन्यासियों के नाम के बाद ‘गिरि’, ‘पर्वत’ एवं ‘सागर’ सम्प्रदाय नाम विशेषण लगाया जाता है जिससे उन्हें उक्त संप्रदाय का संन्यासी माना जाता है. इस मठ का महावाक्य ‘अयमात्मा ब्रह्म’ है. इस मठ के अंतर्गत अथर्ववेद को रखा गया है. ज्योतिर्मठ के प्रथम मठाधीश आचार्य तोटक बनाए गए थे.वर्तमान में स्वामी स्वरूपानन्द सरस्वती इसके 44 वें मठाधीश हैं.
उक्त मठों तथा इनके अधीन उपमठों के अंतर्गत संन्यस्त संतों को गुरु बनाना या उनसे दीक्षा लेना ही हिंदू धर्म के अंतर्गत माना जाता है. यही हिंदुओं की संत धारा मानी गई है.
रामानुजाचार्य
१०१७ ईसवी सन् में रामानुज का जन्म दक्षिण भारत के तमिल नाडु प्रान्त में हुआ था. बचपन में उन्होंने कांची जाकर अपने गुरू यादव प्रकाश से वेदों की शिक्षा ली. रामानुजाचार्य आलवार सन्त यमुनाचार्य के प्रधान शिष्य थे. गुरु की इच्छानुसार रामानुज से तीन विशेष काम करने का संकल्प कराया गया था – ब्रह्मसूत्र, विष्णु सहस्रनाम और दिव्य प्रबन्धम् की टीका लिखना. उन्होंने गृहस्थ आश्रम त्याग कर श्रीरंगम् के यतिराज नामक संन्यासी से सन्यास की दीक्षा ली.
मैसूर के श्रीरंगम् से चलकर रामानुज शालिग्राम नामक स्थान पर रहने लगे. रामानुज ने उस क्षेत्र में बारह वर्ष तक वैष्णव धर्म का प्रचार किया. उसके बाद तो उन्होंने वैष्णव धर्म के प्रचार के लिये पूरे भारतवर्ष का ही भ्रमण किया. ११३७ ईसवी सन् में १२० वर्ष की आयु पाकर वे ब्रह्मलीन हुए.
उन्होंने यूँ तो कई ग्रन्थों की रचना की किन्तु ब्रह्मसूत्र के भाष्य पर लिखे उनके दो मूल ग्रन्थ सर्वाधिक लोकप्रिय हुए – श्रीभाष्यम् एवं वेदान्त संग्रहम्.
विशिष्टाद्वैत दर्शन
रामानुजाचार्य के दर्शन में सत्ता या परमसत् के सम्बन्ध में तीन स्तर माने गये हैं – ब्रह्म अर्थात् ईश्वर, चित् अर्थात् आत्म तत्व और अचित् अर्थात् प्रकृति तत्व. वस्तुतः ये चित् अर्थात् आत्म तत्त्व तथा अचित् अर्थात् प्रकृति तत्त्व ब्रह्म या ईश्वर से पृथक नहीं है बल्कि ये विशिष्ट रूप से ब्रह्म के ही दो स्वरूप हैं एवं ब्रह्म या ईश्वर पर ही आधारित हैं. वस्तुत: यही रामनुजाचार्य का विशिष्टाद्वैत का सिद्धान्त है.
जैसे शरीर एवं आत्मा पृथक नहीं हैं तथा आत्म के उद्देश्य की पूर्ति के लिये शरीर कार्य करता है उसी प्रकार ब्रह्म या ईश्वर से पृथक चित् एवं अचित् तत्त्व का कोई अस्तित्व नहीं हैं. वे ब्रह्म या ईश्वर का शरीर हैं तथा ब्रह्म या ईश्वर उनकी आत्मा सदृश्य हैं.
रामानुज दर्शन की सबसे बड़ी विशेषता समन्वयवादी दृष्टिकोण है. ईश्वरवाद एवं ब्रह्मवाद, धार्मिक भावना एवं नानात्व आदि की एकांगी स्थापनाओं के व्यवस्थित समन्वय का प्रयास यहाँ मिलता है. इसके अलावा लीलावाद का सशक्त समर्थन तथा मायावाद का प्रबल विरोध कर जीव जगत की वास्तविकता की स्थापना करना उनके दर्शन की एक अन्य विशेषता है.
माधवाचार्य
भारत में भक्ति आन्दोलन के समय के सबसे महत्वपूर्ण दार्शनिकों में से एक थे. वे पूर्णप्रज्ञ व आनंदतीर्थ के नाम से भी प्रसिद्ध हैं. वे तत्ववाद के प्रवर्तक थे जिसे द्वैतवाद के नाम से जाना जाता है. द्वैतवाद, वेदान्त की तीन प्रमुख दर्शनों में एक है. मध्वाचार्य को वायु का तृतीय अवतार माना जाता है.
इनका जन्म दक्षिण कन्नड जिले के उडुपी शिवल्ली नामक स्थान के पास पाजक नामक एक गाँव में सन् १२३८ ई में हुआ. अल्पावस्था में ही ये वेद और वे
दांगों के अच्छे ज्ञाता हुए और संन्यास लिया. पूजा, ध्यान, अध्ययन और शास्त्रचर्चा में इन्होंने संन्यास ले लिया. शंकर मत
के अनुयायी अच्युतप्रेक्ष नामक आचार्य से इन्होंने विद्या ग्रहण की और गुरु के साथ शास्त्रार्थ कर इन्होंने अपना एक अलग मत बनाया जिसे “द्वैत दर्शन” कहते हैं. इनके अनुसार विष्णु ही परमात्मा हैं. रामानुज की तरह इन्होंने श्री विष्णु के आयुधों, शंख, चक्र, गदा और पद्म के चिन्हों से अपने अंगों को अंलकृत करने की प्रथा का समर्थन किया. देश के विभिन्न भागों में इन्होंने अपने अनुयायी बनाए. उडुपी में कृष्ण के मंदिर का स्थापन किया, जो उनके सारे अनुयायियों के लिये तीर्थस्थान बन गया. यज्ञों में पशुबलि बंद कराने का सामाजिक सुधार इन्हीं की देन है. 79 वर्ष की अवस्था (सन् 1317 ई) में इनका देहावसान हुआ. नारायण पंडिताचार्य कृत सुमध्वविजय और मणिमंजरी नामक ग्रंथों में मध्वाचार्य की जीवनी ओर कार्यों का पारंपरिक वर्णन मिलता है.
श्री माधवाचार्य ने प्रस्थानत्रयी ग्रंथों से अपने द्वैतवाद सिद्धांत का विकास किया. यह `सद्वैष्णव´ भी कहा जाता है, क्योंकि यह श्री रामानुजाचार्य के श्री वैष्णवत्व से अलग है.
श्री माधवाचार्य ने `’पंच भेद’ का अध्ययन किया जो `अत्यन्त भेद दर्शनम्´ भी कहा जाता है. उसकी पांच विशेषतायें हैं :
(क) भगवान और व्यक्तिगत आत्मा की पृथकता,
(ख) परमात्मा और पदार्थ की पृथकता,
(ग) जीवात्मा एवं पदार्थ की पृथकता,
(घ) एक आत्मा और दूसरी आत्मा में पृथकता तथा
(ङ) एक भौतिक वस्तु और अन्य भौतिक वस्तु में पृथकता.
`अत्यन्त भेद दर्शनम्´ का वर्गीकरण पदार्थ रूप में इस प्रकार भी किया गया है :
(अ) स्वतंत्र
(आ) आश्रित
माधवाचार्य जी का विश्वास है कि प्रकृति से बनी धरती माया नहीं, बल्कि परमात्मा से पृथक सत्य है.यह दूध में छिपी दही के समान परिवर्तन नहीं है, न ही परमात्मा का रूप है.इसलिए यह अविशेष द्वैतवाद ही है.
बसवेश्वर
बसवेश्वर का जन्म बीजापुर जिले के बस्वानाबगेवादी में हुआ था. वह संस्कृत और कन्नड़ भाषा में पारंगत थे. अपने जनेऊ संस्कार के बाद वह कुदालासंगम गये और वहां एक शैव संत से ध्यान और लिंगदीक्षा प्राप्त की. अपने कार्य के प्रति लगन के कारण कलाचुरु के राजा बिजाला ने उन्हें कोषाध्यक्ष नियुक्त किया. इस दौरान मंगलावेदे में उन्होंने सामजिक और धार्मिक सुधार किये.
बसवेश्वर ने जातिगत भेदभाव के खिलाफ प्रचार भी किया. उनका विश्वास था की पवित्र भक्ति के माध्यम से कोई भी भगवान शिव तक पहुंच सकता है. उनके अनुसार कार्य ही पूजा है. और साथ ही उन्होंने श्रम की गरिमा का भी प्रचार किया.
उन्होंने यह भी प्रचार किया की समाज के विकास के लिए प्रत्येक व्यक्ति को कार्य करना चाहिए और कमाना चाहिए. बिदार जिले के बसवाकल्याना में बसवेश्वर ने शरण अध्यात्मिक संस्थान जिसे अनुभव मंटप कहते हैं को भी स्थापित किया है. इस संस्थान में बिना किसी पक्षपात के सामाजिक, आर्थिक, और धार्मिक समस्याओं का बसवेश्वर निराकरण करते थे. बसवेश्व ने महिलाओं की स्वतंर्ता और बराबरी की भी वकालत की थी. उनका मानना था की कोई भी जन्म से अछूत नहीं होता बल्कि उनकी गलत बातें और व्यवहार उन्हें अछूत बनाते हैं.
उन्होंने गलत व्यवहार की जानकारी और जागरूकता फ़ैलाने के लिए बसवेश्वर ने अपने वचनों का प्रचार प्रसार किया. उनके शिष्यों को वचनकार कहा जाता है. वचनकार संप्रदाय ने वीरशैव संप्रदाय में सुधार किया. उन्होंने सभी मनुष्य को एक सामान माना. यह संप्रदाय अनुशासन, नैतिक जीवन, वास्तविकता और दयालुता को महत्वपूर्ण मानता है. उनके अनुयायियों ने १०० से भी अधिक मठ बनाये जिसमे शिक्षा और समाज सुधार को बढ़ावा देने की बात कही गयी. बस्वश्वारा के प्रमुख शिष्य अल्लामा प्रभु, अक्का देवी, सिद्दरमा, मोलिगे, अम्बिगारा, मदिवाला, मदारा, हरल्या, किन्नरी बोमैआह थे.
श्वेता सिंह
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