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रिलिजन वर्ल्ड स्पेशल: “बहादुरशाह जफर की मज़ार” जहां दफन है एक इतिहास


यांगून (म्यांमार); कभी रंगून के नाम से मशहूर राजधानी यांगून के बीचोंबीच यह बनी बादशाह जफ़र की यह मजार दरअसल वीराने में एक बेबसी की कहानी है. बादशाह एवं शायर जफ़र भले ही अपने आखिरी दिनों में निर्वासित होकर दिल्ली के अपने लालकिले से दूर रहे हों, लेकिन मजार के बारे में एक स्थानीय निवासी बताते हैं कि उनकी इस मजार को लालकिले का नाम दिया गया है.

कैसे पहुंचे बादशाह ज़फर रंगून

इतिहास के पन्नों के अनुसार 1857 के पहले स्वतंत्रता संग्राम में शामिल होने से क्षुब्ध अंग्रेजी हुकूमत ने उन पर 1858 में फौरी मुकदमा चलाया और अक्टूबर 1858 में रात के सन्नाटे में उन्हें कलकता होते हुए एक जंगी जहाज पर बिठाकर रंगून भेज दिया और चार पीढ़ियों से भारत में राज करने के बाद मुगल सल्तनत खत्म हुई और आखिरी मुगल बादशाह, बूढ़े लाचार बादशाह के साथ उनकी बेगम जीनत महल, उनके दो बेटे, बहू और एक पोती जमानी बेगम और दो सिपाही के साथ उन्हें देश निकाला दे दिया गया.

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चार कमरों के छोटे से घर में रखा गया

तत्कालीन रंगून में उन्हें चार कमरों के एक छोटे से घर में रखा गया और दो तीन कर्मचारी दिए गए. घोर तन्हाई के इस आलम में 7 नवंबर 1862 ने बहादुर शाह जफर की 86 वर्ष की उम्र में मौत हो गई. बहादुर शाह जफ़र ने अपने जीवन के आखिरी चार साल तब के रंगून में बिताए और अपना अकेलापन शायऱी में बयान करने की कोशिश की लेकिन अंग्रेज उनसे इतने भयभीत थे कि वहां उन्हें लिखने-पढ़ने की सामग्री से दूर रखा. लेकिन कहते हैं न शायर को अपने दिल की बात कहने से कोई नहीं रोक सकता…. हालत यह थी कि वे दीवारों पर कच्चे कोयले से शायरी के जरिए अपना दर्द बयान करते थे. उनका इंतजार कभी पूरा नहीं हुआ. दर्द और तन्हाई से भरे मन से अपने वतन को दोबारा देख पाने के इंतजार में ही वे लिखते गए और दुनिया को अलविदा कर गए.

चुपचाप दफनाये गए ज़फर

यांगून में उनकी बेगम, बेटे और पौत्री, तीनों की मजार साथसाथ है, लेकिन भयभीत अंग्रेज हकूमत मौत के बाद भी बाद्शाह जफ़र से डरते रहे और उन्हें चुपचाप दफना दिया और इसी डर से उन्होंने उनकी मजार दफ़नाने के स्थान की बजाय दूसरे स्थान पर मजार बनवा दी और उनकी असली मजार गुमनाम ही रही.

देखिए पहली बार बहादुरशाह जफर की मजार कैसी दिखती है :

वास्तविक मजार का पता 1991 में चला

एक अकेली और गुमनाम मौत मरे बादशाह जफ़र की वास्तविक मजार का 1991 में एक खुदाई में पता चला. 1994 में म्यांमार सरकार ने भारत सरकार की मदद से उनकी मजार के आसपास और निर्माण कर इमारत बनाई.  अब यहां भारत सरकार के सहयोग से हर वर्ष इस तन्हा शायर तथा अंतिम मुग़ल बादशाह के सम्मान में उर्स होता है।

खास वीडियो – पहले की मजार और जीनत महल बेगम की मजार

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कई राजनेता ने किये अंतिम बादशाह की मजार के दर्शन

भारत से आने वाले शीर्ष राज नेताओं, तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गांधी, मनमोहनसिंह सहित अनेक नेता अक्सर म्यांमार यात्रा के दौरान ने इस अंतिम बादशाह को श्रद्धाजंलि देने यहां आए हैं.

मजार पर पांचो वक़्त की नमाज़ और फातिहा पढ़ा जाता है

अब भारत व म्यांमार के सहयोग से की व्यवस्था उनकी मजार पर पांचों वक़्त की नमाज तथा फातिहा पढ़ने व्यवस्था है.  मजार पर सूरत (गुजरात) से पिछली चार पीढ़ियों से म्यांमार में बसे व्यवसायी इस्माइल बाक़ीया का परिवार पांचों वक़्त नमाज पढ़वाता है तथा यहां फातिहा पढ़ते है ताकि एक उदास व गमगीन बादशाह की रूह को शायद कुछ चैन नसीब हो सके.

मजार पर मुस्लिम और म्यांमार दोनों पद्धिति से पूजा होती है

मजार पर मुस्लिम पूजा पद्धति के साथ- साथ म्यांमार पद्धति के अनुसार भी पूजा की जाती है. मजार की दीवारों पर उनकी शायरी की कुछ लाइनें भी यहां वहां लिखी हुई है-

मरने के बाद इश्क मेरा…

उड़ने लगी है खाक मेरे कुए यार से

मजार पर बादशाह जफ़र के आखिरी दिनों में ली गई तस्वीर से झांकती उदास आंखें कहीं बहुत गहरे दिलोदिमाग पर जम जाती है. यांगून यात्रा पर आने वाले भारतीय यात्री अकसर एक अजनबी मुल्क में अपनों से दूर एक गुमनाम मौत मरे अपने बादशाह की मजार पर श्रद्धा सुमन अर्पित करने ज़रूर आते हैं.
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Post By Shweta