साधु और डेरा (यह दुनिया रैन बसेरा, यहाँ नहीं किसी का डेरा)
‘साधु और डेरा’ आज कल हमारे देश में इस विषय पर खूब चर्चा चल रही है। वैसे इन दोनों शब्दों के भावार्थ का दूर-दूर तक संबंध नहीं बनता है; दोनों शब्द एक दूसरे के विरोधी हैं। “यह संसार नित्य परिवर्तन शील एवं चलायमान है”- ग्यानी ऋषियों के द्वारा ‘द्वैतवाद’ के सिद्धांत में भी प्रकृति को नित्य परिवर्तनशील ही परिभाषित किया गया है। ‘त्रैतवाद’ के सिद्धांत में जहां ईश्वर, प्रकृति और जीव के अस्तित्व को स्वीकारा जाता है, वहां भी प्रकृति को नित्य परिवर्तनशील ही बताया गया है। फिर वो साधु, संत और सन्यासी जो निरंतर इस संसार की परिवर्तनशीलता का उपदेश समाज को देते रहते हैं, वो कैसे इस नित्य परिवर्तनशील संसार में डेरा बना कर बैठ जायेंगे। अतः इसीलिए साधु और डेरा का सम्बन्ध विरोधात्मक है। लेकिन आज के वर्तमान समय में साधु को डेरा और संस्थान से जोड़ कर हीं देखा जा रहा है। आइये थोडा सनातन धर्म ग्रंथों में देखते हैं कि साधु और संन्यासी को कैसे परिभाषित किया जा रहा है।
लिंगपुराण(10/11) के पूर्व भाग में कहा गया है –
यतमानो यतिः साधु: स्मृतो योगस्य साधनात्।
एवमाश्रमधर्माणां साधनात्साधवः स्मृतः ।।
जो योग के साधनो में साधनारत हो कर धर्म में यत्नमान होता है वही यति है। आश्रम और धर्म के साधनो को जो साधते हुए व्रत-परायण रहता है, वह साधु कहा गया है।
ग्रहस्थो ब्रम्हचारी च वानप्रस्थो यतिस्तथा।
धर्माधर्माविह प्रोक्तौ शब्दावेतौ क्रियात्मको ।।
गृहस्थ, ब्रम्हचारी,वानप्रस्थ और सन्यास(परिव्राज) ये चारों साधु कहे गए हैं। जो नियमित रूप से चारो आश्रमों का पालन अनासक्त भाव से करे वो साधु ही कहलाता है। अर्थात जो नित्य यत्न पूर्वक निर्वाण की साधना में लगा हुआ है, वो साधु है। इस संसार को नित्य परिवर्तनशील समझते हुए, अपने कर्तव्यों का निर्वाह करते हुए जीवन के अंत में सम्पूर्ण आशाओं का त्याग कर दे वो सन्यासी हो जाता है। वैदिक युग में ‘संन्यास’ जीवन का आखिरी समय है। वस्तुतः संन्यास वह मनोभाव है, जिसमे सन्यासी को इस परिवर्तनशील संसार से किसी प्रकार की कोई आशा नहीं रह जाती। ना कर्म कि और न ही कर्म-फल की। ना यश-अपयश की ना ही लाभ हानि की ना ही निर्माण की और ना ही विनाश की। ना ही दुनिया बदलने की कोई महत्वाकांक्षा। कोई उसे सुनेगा या नहीं सुनेगा कोई उसे मानेगा या नहीं मानेगा; संन्यासी इन भावों से मुक्त हो जाता है।
वेश भूषा और सांसारिक त्याग के नियम के अनुसार शास्त्रों में चार प्रकार के सन्यासी बताये गए हैं – कुटीचक्र, बहुदक, हंस एवं परमहंस। परन्तु आध्यात्मिक अवस्था के आधार पर सन्यासी के दो ही भेद बताये गए हैं – ‘तुरीयातीत’ एवं ‘अवधूत’ अवस्था जहां योगी को सम्पूर्ण संसार से अनासक्ति हो जाती है।
मैत्रेय उपनिषद में बताया गया –
वमनाहारवद्यस्य भाति सर्वेषणादिषु ।
तस्याधिकारः सन्यासे त्यक्तदेहाभिमानिनः।।18
एषणा अर्थात इच्छाप्राप्ति। एषणा वो है जो भी संसार में दिखाई देता हो, उनके प्राप्ति की इच्छा अथवा विश्व में विस्तार एवं प्रसार की इक्षा । समस्त प्रकार के धन प्राप्ति की इक्षा। उपरोक्त सभी प्रकार की कामनाएं एवं इक्षाओं को वमन (उलटी) किये हुए आहार की भाँति जब लगने लगे । जिसने शरीर और नाम के सम्बन्ध से सभी प्रकार की ममता को नष्ट कर दिया है, उसे ही सन्यास का अधिकार है। श्रीमदभागवतमहापुराण के अवधूत-गीता प्रसंग में स्पष्ट रूप से वर्णित है कि संत कभी संघ नहीं बनाते। संन्यासी का संगठन तो उसके इन्द्रियों का संगठन होता है |
परन्तु आज के परिवेश में साधु संतों की बड़ी बड़ी संस्थाएं और डेरे नजर आते हैं। संस्थान के प्रचार प्रसार और अपना झंडा गाड़ने की महत्वकांक्षा नजर आती है। और गुरु-भक्ति और गुरु-घर की सेवा के नाम पर खूब धन धान्य एकत्र किया जाता है। ज्यादा धन लाने वाले सेवकों को श्रेष्ट सेवक-भक्त घोषित किया जाता है, और सेवक भी मान सम्मान के मोह में उचित अनुचित का भेद भूल जाता है। मोक्ष, स्वर्ग और विश्व-शान्ति का स्वप्न सेवको को दिखा कर उन्हें संस्थानवाद का कूप-मंडूक बना दिया जाता है। भक्तों को लगने लग जाता है कि अब बहुत जल्द विश्व-शान्ति आ जायेगी और हमारा मोक्ष तो निश्चित हो गया है; सब कुछ शांत हो जाएगा और सनातन धर्म के द्वैतवाद का सिद्धांत झूठा हो जाएगा ! सत्य तो यह है कि जिसका मन शांत नहीं हुआ, उसके लिए विश्व-शान्ति कभी नहीं आने वाली। सेवक वर्ग गुरु भक्ति के नाम पर उतना ही पढता है, और उतना ही सुनता है, जितना गुरुपद के नाम पर संस्थान का मुखिया उन्हें बताता है। और एक बहुत बड़ा समूह गुरु-भक्ति के नाम पर घोड़े का चश्मा पहन लेता है । सत्य तो यह है कि संस्थान एक माध्यम हो सकता है, लक्ष्य नहीं ! लेकिन ये संस्थानवादी भक्त, राष्ट्र एवं शास्त्रों के संविधान से ऊपर अपने संस्थान के संविधान को मानने लग जाते हैं।
अतः आज अति आवश्यक है कि साधु, सन्यासी एवं धर्म की शास्त्र-सम्मत परिभाषाओं को फिर से समझा जाए |
– मनीष देव