रथयात्रा 2018 : भगवान जगन्नाथ की निकली सवारी
जगन्नाथ धाम – पुरी श्री जगन्नाथ मंदिर को हिन्दुओं के चार धाम में से एक गिना जाता है। यह वैष्णव सम्प्रदाय का मंदिर है, जो भगवान विष्णु के अवतार श्री कृष्ण को समर्पित है। यह भारत के ओडिशा राज्य के तटवर्ती शहर पुरी में स्थित है। जगन्नाथ शब्द का अर्थ जगत के स्वामी होता है। इनकी नगरी ही जगन्नाथपुरी या पुरी कहलाती है।
ध्यान देने वाली बात यह है कि जग प्रसिद्ध भगवान जगन्नाथ की रथ यात्रा अवसर पर 10 दिनों तक धार्मिक कार्यक्रम का आयोजन किया जाता है जिसमें काफी संख्या में श्रद्धालुगण भाग लेते हैं। जगन्नाथ रथ उत्सव आषाढ़ शुक्ल पक्ष की द्वितीया से आरंभ करके शुक्ल एकादशी तक मनाया जाता है। इस दौरान रथ को अपने हाथों से खींचना बेहद शुभ माना जाता है।
इस वर्ष भगवान जगन्नाथ 14 जुलाई 3018 को बहन सुभद्रा और भाई बलदाऊ के साथ रथ में सवार होकर नगर भ्रमण करेंगे।
जानिए रथ यात्रा की कुछ रोचक जानकारी
नीम की लकड़ी की बनीं है मूर्तियां। भगवान जगन्नाथ, बहन सुभद्रा और भाई बलदाऊ की मूर्तियां नीम की लकड़ी से बनीं हैं। जो अपने आप में अदभुत हैं। ऐसी ही मूर्तियां होशंगाबाद के जगन्नाथ मंदिर में स्थापित हैं। जो प्राचीन कालीन हैं।
हर 12 साल में बदलीं जाती हैं मूर्तियां
परंपरा के अनुसार जगन्नाथ पुरी में इन मूर्तियों को हर 12 साल बाद बदल दिया जाता है। तीनों मूर्ति में हाथ और पैर के पंजे नहीं होते। भगवान जगन्नाथ, बहन सुभद्रा और भाई बलदाऊ की मूर्तियां जो बनाई जाती हैं। उनकी हाथ और पैर के पंजे नहीं होते हैं। इन मूर्ति में कमर से नीचे का हिस्सा नहीं होता है।
14 जुलाई 2018 को निकलेगी रथ यात्रा
आषाढ़ शुक्ल पक्ष की द्वितीया को स्वस्थ होकर भगवान जगन्नाथ, सुभद्रा बलदाऊ सहित रथ पर सवार होकर नगर भ्रमण करेंगे। यह परंपरा प्राचीन है पहले जनकपुरी में यात्रा सात दिनों तक रूकती थी।
महास्नान से रथयात्रा तक का सफर
28 जून को जेष्ठ पूर्णिमा पर भगवान जगन्नाथ, बहन सुभद्रा, भाई बलदाऊ का महास्नान पंचामृत से किया जाता है। शीत लगने के कारण बीमार हो जाते हैं इसके बाद मूल सिंहासन से हटकर भगवान शयन कक्ष में चले जाएंगे। जहां वैद्य आयुर्वेदिक औषधियों से उनका उपचार करते हैं। इस दौरान भगवान को हल्का भोजन दिया जाता है।
आषाढ़ माह के शुक्लपक्ष की द्वितीया तिथि को ओडिशा के पुरी नगर में होने वाली भगवान जगन्नाथ की रथयात्रा सिर्फ भारत ही नहीं विश्व के सबसे विशाल और महत्वपूर्ण धार्मिक उत्सवों में से एक है जिसमें भाग लेने के लिए पूरी दुनिया से लाखों श्रद्धालु और पर्यटक आते हैं। इस साल यह रथयात्रा बुधवार 6 जुलाई से आरम्भ होगी। सागर तट पर बसे पुरी शहर में होने वाली जगन्नाथ रथयात्रा उत्सव के समय आस्था का जो विराट वैभव देखने को मिलता है वह और कहीं दुर्लभ है। तो आइए जानते हैं इस रथयात्रा की क्या है कहानी
जानिए कहां से मिली जगन्नाथ जी की मूर्ति
जगन्नाथ रथयात्रा दस दिवसीय महोत्सव होता है। यात्रा की तैयारी अक्षय तृतीया के दिन श्रीकृष्ण, बलराम और सुभद्रा के रथों के निर्माण के साथ ही शुरू हो जाती है। वर्तमान रथयात्रा में जगन्नाथ को दशावतारों के रूप में पूजा जाता है, उनमें विष्णु, कृष्ण और वामन और बुद्ध हैं। कहते हैं कि राजा इंद्रद्युम्न, जो सपरिवार नीलांचल सागर (उड़ीसा) के पास रहते थे, को समुद्र में एक विशालकाय काष्ठ दिखा। राजा के उससे विष्णु मूर्ति का निर्माण कराने का निश्चय करते ही वृद्ध बढ़ई के रूप में विश्वकर्मा जी स्वयं प्रस्तुत हो गए। उन्होंने मूर्ति बनाने के लिए एक शर्त रखी कि मैं जिस घर में मूर्ति बनाऊँगा उसमें मूर्ति के पूर्णरूपेण बन जाने तक कोई न आए। राजा ने इसे मान लिया। आज जिस जगह पर श्रीजगन्नाथ जी का मंदिर है उसी के पास एक घर के अंदर वे मूर्ति निर्माण में लग गए। राजा के परिवारजनों को यह ज्ञात न था कि वह वृद्ध बढ़ई कौन है। कई दिन तक घर का द्वार बंद रहने पर महारानी ने सोचा कि बिना खाए-पिये वह बढ़ई कैसे काम कर सकेगा। अब तक वह जीवित भी होगा या मर गया होगा। महारानी ने महाराजा को अपनी सहज शंका से अवगत करवाया। महाराजा के द्वार खुलवाने पर वह वृद्ध बढ़ई कहीं नहीं मिला लेकिन उसके द्वारा अर्द्धनिर्मित श्री जगन्नाथ, सुभद्रा तथा बलराम की काष्ठ मूर्तियाँ वहाँ पर मिली। इसके बाद राजा-रानी ने इन मूर्तियों को स्थापित करके पूजा अर्चना शुरु कर दी। तभी से हर वर्ष यह रथयात्रा नगर में निकाली जाती है।
भगवान रास्ते में रुकते हैं मौसी के घर
जगन्नाथ मंदिर से रथयात्रा शुरू होकर पुरी नगर से गुजरते हुए ये रथ गुंडीचा मंदिर पहुंचते हैं। यहां भगवान जगन्नाथ, बलभद्र और देवी सुभद्रा सात दिनों के लिए विश्राम करते हैं। गुंडीचा मंदिर में भगवान जगन्नाथ के दर्शन को ‘आड़प-दर्शन’ कहा जाता है। गुंडीचा मंदिर को ‘गुंडीचा बाड़ी’ भी कहते हैं। यह भगवान की मौसी का घर है।
इस मंदिर के बारे में पौराणिक मान्यता है कि यहीं पर देवशिल्पी विश्वकर्मा ने भगवान जगन्नाथ, बलभद्र और देवी की प्रतिमाओं का निर्माण किया था। कहते हैं कि रथयात्रा के तीसरे दिन यानी पंचमी तिथि को देवी लक्ष्मी, भगवान जगन्नाथ को ढूंढते हुए यहां आती हैं। तब द्वैतापति दरवाज़ा बंद कर देते हैं, जिससे देवी लक्ष्मी रुष्ट होकर रथ का पहिया तोड़ देती है और ‘हेरा गोहिरी साही पुरी’ नामक एक मुहल्ले में, जहां देवी लक्ष्मी का मंदिर है, वहां लौट जाती हैं। बाद में भगवान जगन्नाथ द्वारा रुष्ट देवी लक्ष्मी मनाने की परंपरा भी है। यह मान-मनौवल संवादों के माध्यम से आयोजित किया जाता है, जो एक अद्भुत भक्ति रस उत्पन्न करती है।
10वें दिन होती है रथ वापसी
आषाढ़ माह के दसवें दिन सभी रथ पुन: मुख्य मंदिर की ओर प्रस्थान करते हैं। रथों की वापसी की इस यात्रा की रस्म को बहुड़ा यात्रा कहते हैं। जगन्नाथ मंदिर वापस पहुंचने के बाद भी सभी प्रतिमाएं रथ में ही रहती हैं। देवी-देवताओं के लिए मंदिर के द्वार अगले दिन एकादशी को खोले जाते हैं, तब विधिवत स्नान करवा कर वैदिक मंत्रोच्चार के बीच देव विग्रहों को पुनः प्रतिष्ठित किया जाता है। वास्तव में रथयात्रा एक सामुदायिक पर्व है। इस अवसर पर घरों में कोई भी पूजा नहीं होती है और न ही किसी प्रकार का उपवास रखा जाता है। एक अहम् बात यह कि रथयात्रा के दौरान यहां किसी प्रकार का जातिभेद देखने को नहीं मिलता है। समुद्र किनारे बसे पुरी नगर में होने वाली जगन्नाथ रथयात्रा उत्सव के समय आस्था और विश्वास का जो भव्य वैभव और विराट प्रदर्शन देखने को मिलता है, वह दुनिया में और कहीं दुर्लभ है।
प्रतिवर्ष ओडिशा के पूर्वी तट पर स्थित श्री जगन्नाथ पूरी में भगवान श्री जगन्नाथ जी की रथ यात्रा का उत्सव बड़े ही धूमधाम से आयोजित किया जाता है। यह पर्व आषाढ़ माह में शुक्ल पक्ष की द्वितीया से आरम्भ होकर शुक्ल पक्ष की एकादशी तक मनाया जाता है। तदनुसार इस वर्ष रथ यात्रा रविवार 25 जून 2017 को प्रारम्भ होकर 14 जुलाई 2018 को समाप्त होगी। रथ यात्रा में रथ को अपनी हाथों से खीचना अति शुभ माना जाता है।
जानिए रथयात्रा का इतिहास
पौराणिक मान्यताओं के अनुसार द्वापर युग में एक बार श्री सुभद्रा जी ने नगर देखना चाहा, उस समय भगवान श्री कृष्ण उन्हें रथ पर बैठाकर नगर का भर्मण करते है। इसी उपलक्ष्य में ओडिशा राज्य के पूर्वी तट पर स्थित जगन्नाथ मंदिर में हर वर्ष जगन्नाथ जी, बलराम जी एवम श्री सुभद्रा जी की प्रतिमूर्ति को रथ पर बैठाकर नगर के दर्शन कराए जाते है।
इस होता हैं रथ का रूप
जगन्नाथ पूरी रथ यात्रा में श्री कृष्ण जी, बलराम जी एवम बहन सुभद्रा का रथ बनाया जाता है। यह रथ लकड़ी से कुशल कारीगर के द्वारा तैयार किया जाता है। जगन्नाथ रथ यात्रा में जगन्नाथ जी के रथ को ‘गरुड़ध्वज’ बलराम जी के रथ को ‘तलध्वज’ एवम सुभद्रा जी के रथ को “पद्मध्वज’ कहा जाता है।
रथयात्रा महोत्सव
रथ यात्रा महोत्सव में पहले दिन भगवान जगन्नाथ जी, बलराम जी एवम बहन सुभद्रा जी के रथ को आषाढ़ माह में द्वितीया की शाम तक जगन्नाथ मंदिर से खींचकर कुछ दूर पर स्थित गुडींचा मंदिर तक लाया जाता है। तत्पश्चात आषाढ़ माह की तृतीया को भगवान की मूर्ति को विधि पूर्वक रथ से उतारकर गुंडिचा मंदिर में स्थापित किया जाता है तथा अगले सात दिन तक जगन्नाथ जी, बलराम जी एवम बहन सुभद्रा के साथ इसी मंदिर में निवास करते है।
देवशयनी एकादशी की कथा एवं इतिहास
तत्पश्चात आषाढ़ माह में शुक्ल पक्ष की दशमी के दिन वापसी यात्रा का आयोजन किया जाता है। इस यात्रा को बाहुड़ा यात्रा कहते हैं। यात्रा के दौरान पुनः गुंडीचा मंदिर से भगवान के रथ को विधिवत खींचकर जगन्नाथ मंदिर तक लाया जाता है। मंदिर पहुँचने के पश्चात प्रतिमाओं को पुनः मंदिर गृह में स्थापित कर दिया जाता है।
महाप्रसाद
जगन्नाथ पूरी मंदिर में रथयात्रा का एक मुख्य आकर्षण महाप्रसाद होता है। जो मंदिर में स्थित रसोई घर में बनाया जाता है। महाप्रसाद में मालपुआ का प्रसाद विशेष रूप से मिलता है। इसके आलावा मिश्रित खिचड़ी का प्रसाद भक्तो में बांटा जाता है ।
इस प्रकार जगन्नाथ जी की रथ यात्रा की कथा सम्पन्न हुई। प्रेम से बोलिए बाँके बिहारी कृष्ण कन्हैया लाल की जय।
- आचार्य दयानंद शास्त्री