प्रवर्तक, शेर-ए-राजस्थान, संघ शिरोमणि जैन संत रूपमुनि महाराज का निधन
- रूपमुनि महाराज का 17 अगस्त देर रात अहमदाबाद में निधन
- प्रवर्तक, शेर-ए-राजस्थान, संघ शिरोमणि, जैन गौरव तथा दिव्य विभूति समेत दर्जनों उपमाओं से अलंकृत
- वर्ष 1942 में जैन धर्म की दीक्षा
- संत रूपमुनि ने अपने जीवनकाल में कुल 76 चातुर्मास किए
- 17 राज्यों में 55 हजार किमी से ज्यादा पैदल घूमे, सर्व समाज के लाखों शिष्यों को शाकाहार व्रत, देशभर में 170 सेवा संस्थान, 110 गोशालाएं, बेटी बचाओ और पशुबलि निषेध आंदोलन चलाया
- रूप मुनि महाराज ने अपनी पहचान अपनी बेबाक रायों ने बनाई
- मारवाड़-गोडवाड़ में भारी संख्या में गोशालाओं का संचालन
जैन धर्म के बहुत ही लोकप्रिय और जनप्रिय संत रूपमुनि महाराज का 17 अगस्त देर रात अहमदाबाद में निधन हो गया। अहमदाबाद के एक अस्पताल में उनका इलाज चल रहा था, वे नब्बे वर्ष के थे। जैसे ही ये खबर जैन समाज में आई, लोगों के आंखों में आंसू आ गए। इसके बाद उनके पार्थिव देह को पाली जिले के जैतारण लाया गया और उनके देवलोकगमन की प्रक्रिया को निभाया गया। बड़ी संख्या में जैन समाज के लोग जैतारण पहुंचें। उनके देह त्यागने के समाचार से जैन धर्म के 36 कौम में शोक की लहर है। प्रवर्तक, शेर-ए-राजस्थान, संघ शिरोमणि, जैन गौरव तथा दिव्य विभूति समेत दर्जनों उपमाओं से अलंकृत संत रूपमुनि अपनी छवि से ना केवल जैन समाज बल्कि पूरे 36 कौम पर उनका प्रभाव था।
नाडोल में साधारण गोस्वामी परिवार में जन्मे रूपपुरी वर्ष 1942 में जैन धर्म की दीक्षा लेने के बाद रूपमुनि हो गए। अपने 77 साल के साधुत्व जीवन में पीड़ित मानवता को ही अपना प्रमुख दर्शन माना। उन्होंने जैन समाज को अपने कर्तव्य का भान कराने के साथ हर कौम को साथ लेकर चलने का संदेश दिया. संत रूपमुनि ने अपने जीवनकाल में कुल 76 चातुर्मास किए। इसमें 35 चातुर्मास अपने गुरु मिश्रीमलजी मसा. के सानिध्य में ही किए। वे 17 राज्यों में 55 हजार किमी से ज्यादा पैदल घूमे, सर्व समाज के लाखों शिष्यों को शाकाहार व्रत, देशभर में 170 सेवा संस्थान, 110 गोशालाएं, बेटी बचाओ और पशुबलि निषेध आंदोलन चलाकर बने लोकमान्य संत।
प्रभावी व्यक्तित्व के धनी रूप मुनि महाराज ने अपनी पहचान अपनी बेबाक रायों ने बनाई थी। इस वजह से समाज के हर वर्ग के लोग उनके मुरीद रहे। एक संत के तौर पर रूप मुनि जी ने कई क्षेत्रों में कई जनोपयोगी कार्य करवाए। समाज में उऩके प्रति आदर के भाव की एक वजह ये भी थी कि उन्होंने कई जाति व समाजों के बीच के झगड़ों में सुलह करवाई थी। वर्ष 1987 के जैन श्रमण संघीय मुनि सम्मेलन की सफलता में उनका बड़ा योगदान था। उनकी प्रेरणा और भावना से मारवाड़-गोडवाड़ में भारी संख्या में गोशालाओं का संचालन किया जा रहा है। जैन ग्रंथों में महारत रखने वाले रूप मुनि महाराज की व्याख्यान शैली भी सबसे विलग रही।