नास्तिकता, धर्म और नैतिकता
नास्तिकता वह सिद्धांत है जो जगत् की सृष्टि करने वाले, इसका संचालन और नियंत्रण करनेवाले किसी भी ईश्वर के अस्तित्व को सर्वमान्य प्रमाण के न होने के आधार पर स्वीकार नहीं करता. यह किसी भी भगवान के प्रति शून्यभाव दर्शाता है. नास्तिकता मुख्य रूप से ईश्वर को अनावश्यक या आस्तित्तव विहीन मानता हैं. या ईश्वर के विषय में कोई विचार ही नहीं रखता लेकिन नास्तिकता अपने आप में एक फ़िलासफ़ी है एक दर्शन हैं,
नास्तिक होने में भी भेद हैं और उनके कारण भी हैं-
ज्ञान से उपजीं नास्तिकता-
भारतीय दर्शन में सांख्य ये मानता हैं सिर्फ़ प्रमाण से ही विश्वसनीय ज्ञान पाया जा सकता है, सांख्य पुरुष और प्राकृति को तो प्रामाणिक मानता है लेकिन ईश्वर के विषय में चुप हैं क्यूँकि प्रामाणिक रूप से नहीं कहाँ जा सकता
ध्यान से उपजीं नास्तिकता –
जीवन की व्यथा से जब ध्यान आता हैं तो वो ईश्वर के सम्बंध में ना नकार का भाव रखता है ना स्वीकार का. ये बुद्ध पुरुष की नास्तिकता हैं.
कर्म के सिद्धांत की नास्तिकता-
अगर कर्म फल के सिद्धांत को पूर्णता माना जायें तो ईश्वर की आवयकता नहीं रह जाती और ईश्वर ख़ुद कर्म के सिद्धांतों से मुक्त हैं या नहीं हैं ये सवाल प्रमुख हो जाता हैं
जीवन की नास्तिकता –
जीवन से बाहर कुछ ना पाने के लियें हैं ना खोने के लियें. जो जीवित अवस्था में ना प्राप्त किया जा सके वो सिर्फ़ कपोल कल्पना हैं
सम्प्रदाय की नास्तिकता-
अक्सर एक सम्प्रदाय को माने वाले दूसरे सम्प्रदाय को नास्तिक समझते हैं
धार्मिक शोषण के ख़िलाफ़ –
ये धार्मिक कर्मकांडो के विरोध की नास्तिकता हैं. ये धर्म/भगवान को शोषण में सहायक मानते हैं
पलायन की नास्तिकता-
ये किसी भी प्रकार के आत्म संवाद, ज्ञान प्राप्ति को छोड़ के सिर्फ़ मान लेना की ईश्वर नहीं हैं पलायन वादी नास्तिकता हैं.. बहोत अर्थ में पलायन वादी आस्तिक व नास्तिक एक जैसे होते हैं.
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बौद्ध धर्म आधुनिक विज्ञान का समर्थक
जैसा कि हम सभी जानते हैं बौद्ध धर्म मानवी मूल्यों तथा आधुनिक विज्ञान का समर्थक है और बौद्ध अनुयायी काल्पनिक ईश्वर में विश्वास नहीं करते है.इसलिए अल्बर्ट आइंस्टीन, डॉ॰ बी. आर. अम्बेडकर, बर्नाट रसेल जैसे कई विज्ञानवादी एवं प्रतिभाशाली लोग बौद्ध धर्म को विज्ञानवादी धर्ममानते है.चीन देश की आबादी में 91% से भी अधिक लोग बौद्ध धर्म के अनुयायी है, इसलिए दुनिया के सबसे अधिक नास्तिक लोग चीन में है. नास्तिक लोग धर्म से जुडे हुए भी हो सकते है.
ईश्वरवादी और अनीश्वरवादियों का तर्क
दर्शन का अनीश्वरवाद के अनुसार जगत स्वयं संचालित और स्वयं शासित है. ईश्वरवादी ईश्वर के अस्तित्व के लिए जो प्रमाण देते हैं, अनीश्वरवादी उन सबकी आलोचना करके उनको काट देते हैं और संसारगत दोषों को बतलाकर निम्नलिखित प्रकार के तर्कों द्वारा यह सिद्ध करने का प्रयत्न करते हैं कि ऐसे संसार का रचनेवाला ईश्वर नहीं हो सकता.
ईश्वरवादी कहते है कि मनुष्य के मन में ईश्वर प्रत्यय जन्म से ही है और वह स्वयंसिद्ध एवं अनिवार्य है. यह ईश्वर के अस्तित्व का द्योतक है. इसके उत्तर में अनीश्वरवादी कहते हैं कि ईश्वर भावना सभी मनुष्यों में अनिवार्य रूप से नहीं पाई जाती और यदि पाई भी जाती हो तो केवल मन की भावना से बाहरी वस्तुओं का अस्तित्व सिद्ध नहीं होता. मन की बहुत सी धारणाओं को विज्ञान ने असिद्ध प्रामाणित कर दिया है.जगत में सभी वस्तुओं का कारण होता है.बिना कारण के कोई कार्य नहीं होता.कारण दो प्रकार के होते हैं-एक उपादान, जिसके द्वारा कोई वस्तु बनती है और दूसरा निमित्त, जो उसको बनाता है.
ईश्वरवादी कहते हैं कि घट, पट और घड़ी की भाँति समस्त जगत् भी एक कार्य (कृत घटना) है अतएव इसके भी उपादान और निमित्त कारण होने चाहिए.कुछ लोग ईश्वर को जगत का निमित्त कारण और कुछ लोग निमित्त और उपादान दोनों ही कारण मानते हैं.इस युक्ति के उत्तर में अनीश्वरवादी कहते हैं कि इसका हमारे पास कोई प्रमाण नहीं है कि घट, पट और घड़ी की भाँति समस्त जगत् भी किसी समय उत्पन्न और आरंभ हुआ था.इसका प्रवाह अनादि है, अत: इसके सृष्टा और उपादान कारण को ढूँढ़ने की आवश्यकता नहीं है. यदि जगत का सृष्टा कोई ईश्वर मान लिया जाय जो अनेक कठिनाइयों का सामना करना पड़ेगा; यथा, उसका सृष्टि करने में क्या प्रयोजन था?
भौतिक सृष्टि की रचना इश्वर कैसे कर सकता है
भौतिक सृष्टि केवल मानसिक अथवा आध्यात्मिक सत्ता कैसे कर सकती है? यदि इसका उपादान कोई भौतिक पदार्थ मान भी लिया जाय तो वह उसका नियंत्रण कैसे कर सकता है? वह स्वयं भौतिक शरीर अथवा उपकरणों की सहायता से कार्य करता है अथवा बिना उसकी सहायता के? सृष्टि के हुए बिना वे उपकरण और वह भौतिक शरीर कहाँ से आए? ऐसी सृष्टि रचने से ईश्वर का, जिसको उसके भक्त सर्वशक्तिमान, सर्वज्ञ और कल्याणकारी मानते हैं, क्या प्रयोजन है, जिसमें जीवन का अंत मरण में, सुख का अंत दु:ख में संयोग का वियोग में और उन्नति का अवनति में हो? इस दु:खमय सृष्टि को बनाकर, जहाँ जीव को खाकर जीव जीता है और जहाँ सब प्राणी एक दूसरे शत्रु हैं और आपस में सब प्राणियों में संघर्ष होता है, भला क्या लाभ हुआ है? इस जगत् की दुर्दशा का वर्णन योगवशिष्ठ के एक श्लोक में भली भाँति मिलता है, जिसका आशय निम्नलिखित है–
ईश्वरवादी एक युक्ति यह दिया करते हैं कि इस भौतिक संसार में सभी वस्तुओं के अंतर्गत और समस्त सृष्टि में, नियम और उद्देश्य सार्थकता पाई जाती है.यह बात इसकी द्योतक है कि इसका संचालन करनेवाला कोई बुद्धिमान ईश्वर है इस युक्ति का अनीश्वरवाद इस प्रकार खंडन करता है कि संसार में बहुत सी घटनाएँ ऐसी भी होती हैं जिनका कोई उद्देश्य, अथवा कल्याणकारी उद्देश्य नहीं जान पड़ता, यथा अतिवृष्टि, अनावृष्टि, अकाल, बाढ़, आग लग जाना, अकालमृत्यु, जरा, व्याधियाँ और बहुत से हिंसक और दुष्ट प्राणी.संसार में जितने नियम और ऐक्य दृष्टिगोचर होते हैं उतनी ही अनियमितता और विरोध भी दिखाई पड़ते हैं.इनका कारण ढूँढ़ना उतना ही आवश्यक है जितना नियमों और ऐक्य का.जैसे, समाज में सभी लोगों को राजा या राज्यप्रबंध एक दूसरे के प्रति व्यवहार में नियंत्रित रखता है, वैसे ही संसार के सभी प्राणियों के ऊपर शासन करनेवाले और उनको पाप और पुण्य के लिए यातना, दंड और पुरस्कार देनेवाले ईश्वर की आवश्यकता है.इसके उत्तर में अनीश्वरवादी यह कहता है कि संसार में प्राकृतिक नियमों के अतिरिक्त और कोई नियम नहीं दिखाई पड़ते.पाप और पुण्य का भेद मिथ्या है जो मनुष्य ने अपने मन से बना लिया है.यहाँ पर सब क्रियाओं की प्रतिक्रियाएँ होती रहती हैं और सब कामों का लेखा बराबर हो जाता है.इसके लिए किसी और नियामक तथा शासक की आवश्यकता नहीं है.यदि पाप और पुण्य के लिए दंड और पुरस्कार का प्रबंध होता तथा उनको रोकने और करानेवाला कोई ईश्वर होता; और पुण्यात्माओं की रक्षा हुआ करती तथा पापात्माओं को दंड मिला करता तो ईसामसीह और गांधी जैसे पुण्यात्माओं की नृशंस हत्या न हो पाती.
इस प्रकार अनीश्वरवाद ईश्वरवादी सूक्तियों का खंडन करता है और यहाँ तक कह देता है कि ऐसे संसार की सृष्टि करनेवाला यदि कोई माना जाय तो बुद्धिमान और कल्याणकारी ईश्वर को नहीं, दुष्ट और मूर्ख शैतान को ही मानना पड़ेगा.
अनेक अनीश्वरवादी दार्शनिक
पाश्चात्य दार्शनिकों में अनेक अनीश्वरवादी हो गए हैं और हैं. भारत में जैन, बौद्ध, चार्वाक, सांख्य और पूर्वमीमांसा दर्शन अनीश्वरवादी दर्शन हैं. इन दर्शनों में दी गई युक्तियों का सुंदर संकलन हरिभद्र सूरि लिखित षड्दर्शन समुच्चय के ऊपर गुणरत्न के लिखे हुए भाष्य, कुमारिल भट्ट के श्लोकवार्तिक और रामानुजाचार्य के ब्रह्मसूत्र पर लिखे गए श्रीभाष्य में पाया जाता है.
नास्तिको के आधार पर धर्म मनुष्य को बाटँनेँ का काम करता है.अतः ईश्वर सिर्फ जनता का अफीम होता है.
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