एकांत एक वरदान है
- पण्डित श्री राम शर्मा आचार्य
एकांत मन की प्रकृति के अनुरूप परिभाषित और परिलक्षित होता है। एक साधक एवं योगी के लिए एकांत के क्षण ध्यान एवं समाधि का सोपान हैं, एक भक्त के लिए भगवान से मिलन का मधुर अनुभव और एक वैज्ञानिक एवं चिंतक के लिए ये ही शोध एवं विचार के क्षण हैं, परंतु कुछ लोगों के लिए ये ही क्षण अकेलेपन के बोझ की तरह हो जाते हैं।
स्वामी विवेकानंद ने अकेले रहने का उपदेश देते हुए कहा था – ”अकेले रहो ! अकेले रहो !! जो अकेला रहता है, न तो वह दूसरों को परेशान करता है और न दूसरों से परेशान रहता है।
एकांत हमें आनंदित भी करता है और डराता भी है। अकेले में कोई हर्षविभोर होकर कीर्तन करता है तो कोई इससे भागकर किसी अन्य साथी-सहचर की भीड़ तलाश करता है। आखिर ऐसा क्यों है ? क्या इसका मनोविज्ञान है कि एकाकीपन का अनुभव अलग-अलग लोगों को अलग-अलग प्रतीत होता है ? दरअसल हमारा मन ही है इसके केंद्र में। यदि मन स्वस्थ, सुदृढ़ एवं शांत होता है तो एकाकीपन हमारा सबसे बड़ा मित्र एवं शुभेच्छु बन जाता है, परंतु रुग्ण एवं दुर्बल मन के लिए अकेलापन किसी दुःस्वप्म के समान भीषण एवं डरावना लगता है। ऐसे में हम एकाकीपन से डरते-घबराते और भीड़ की ओर भागते हैं और भीड़ में सुकून प्राप्त करते हैं।
मनोवैज्ञानिकों की मानें तो एकाकीपन में हमारे अचेतन में दबी कई यादें एकाएक उजागर हो जाती हैं – प्रकट हो जाती हैं, जिनको हम कभी याद नहीं करना चाहते और न ही उनका सामना करना चाहते हैं। जिन कड़ई एवं कटु यादों से हम बचना एवं भागना चाहते हैं, वे हमारे अचेतन में दबी-छिपी रहती हैं और एकांत मिलते ही अपने अस्तित्व का आभास करा देती हैं। अध्यात्मवेत्ताओं के अनुसार, दरअसल जिससे हम डर रहे हैं और जो हमें डरा रहा है, वह कोई और नहीं बल्कि हमारे अतीत के नकारात्मक कर्मों का परिणाम अर्थात हमारा प्रारब्ध है। हम अकेले में किसी और से नहीं, बल्कि स्वयं से डरते हैं। इंस डर से बचने के लिए हम अपने मित्र, साथी, सहपाठी की ओर दौड़ते हैं। समाज या परिवार की भीड़ में ये यादें दब जाती हैं, परंतु बन्द समाप्त नहीं होती हैं।
मनोवैज्ञानिक इसी खालीपन के पक्ष की ओर संकेत करते हैं। इनके अनुसार हम अधिकतर गलतियाँ एंवं अपराध इसी अवस्था में करते हैं। इस संदर्भ में उनका कहना है कि अकेलेपन में बुरी आदतें अपने पूरे वेग से हमें आक्रांत कर लेती हैं और हम पूरी तरह आदतों के मकड़जाल में फँस जाते हैं। दुर्बल मन खालीपन में नकारात्मक चिंतन, आभासी भय, शंका-कुशंका, संशय-संदेह से भर जाता है और फिर उसके अनुरूप मानसिक वृत्तियाँ बनने लगती हैं। दीर्घकाल तक चलने वाला यह मानसिक व्यापार मांनसिक रोगों को जन्म देता है। इससे बचने एवं निकलने के लिए सकारात्मक सोच, रचनात्मक चिंतन एवं सदाचरण की आवश्यकता है।
अकेलेपन का साथी है – अच्छी पुस्तकें।
सकारात्मक सोच से हम सदा स्वयं के प्रति सावधान एवं जागरूक बने रह सकते हैं। जागरूक बने रहने से चोर दरवाजे से नकारात्मक विचार प्रवेश नहीं कर सकते और हम सकारात्मक विचारों को बनाए रख सकते हैं। इसके लिए हमें स्वाध्याय करना चाहिए। स्वाध्याय मन का स्नान है, जिससे नकारात्मक विचार गल-गलकर मिटते रहते हैं। अकेलेपन का साथी है – अच्छी पुस्तकें। जिनकी मित्रतों अच्छी किताबों से हो गई, समझो वे कभी अकेले हो ही नहीं सकते; क्योंकि उनका मन सदा सद्विचारों से अभिप्रेरित रहता है। अकेलेपन से जन्मी समस्याओं से बचने के लिए हमें स्वयं को रचनात्मक एवं अच्छे कार्यों में नियोजित करना चाहिए। मन को अधिक समय तक व्यस्त रखना मुश्किल है, इसलिए मन को उस कार्य में व्यस्त रखना चाहिए, जिसे वह पसंद करे, उसमें रम जाए। इसके लिए अच्छे एवं रचनात्मक कार्यों की सूची रहनी चाहिए; ताकि मन को अनियंत्रित होने का अवसर न मिले। मन यदि मजबूत हो तो अकेलेपन में ही सर्वश्रेष्ठ कार्य का संपादन किया जा सकता है।
इतिहास गवाह है कि विश्व के श्रेष्ठतम कार्य एकांत में संपन्न हुए हैं
इतिहास गवाह है कि विश्व के श्रेष्ठतम कार्य एकांत में संपन्न हुए हैं, जिस एकांत से लोग भागते रहे, उसी एकांत में महान विचारकों ने दुनिया को विस्मित करने वाले आविष्कार एवं अनुसंधान संपन्न किए हैं। जीवन के प्रति गंभीर दृष्टि रखने वाले संत, महात्मा जीवन को सर्वोच्च ग्रंथ मानते हैं, जिसके पन्नों में रहस्य-रोमांच के अद्भुत सूत्र समाहित हैं।इन जीवन-सूत्रों की विवेचना, विश्लेषण एवं व्याख्या जनसंकुल में संभव नहीं है, केवल एकांत में ही की जासकती है। इसलिए तो कविवर रवींद्रनाथ ने ‘एकला चलो रे का नारा बुलंद किया। योगी, महात्मा एवं संत अपने जीवन में कभी अकेलेपन का एहसास नहीं करते। वे अकेले हो ही नहीं सकते।
एक बार एक महात्मा घोर जंगल के सन्नाटे में एक वटवृक्ष के नीचे शांत, मौन एवं एकांकी बैठे हुए थे। वहाँ से गुजरने वाला एक यात्री भी एकांकी वहाँ से गुजर रहा था। वह अपने अकेलेपन से परेशान एवं चिंतित था। वह अपने अकेलेपन को दूर करने के लिए किसी की तलाश में अपनी नजरें घुमा. रहा था कि उसे वे महात्मा दीख गए। वह भागा-भागा गया और महात्मा को झकझोरकर कहा, ‘मैं कब से किसी की तलाश कर रहा था कि उससे कुछ बातचीत करूँ।”’ महात्मा ने धीरे से आँखें खोलकर उसकी दीनता पर दयार्द्र होकर कहा – “वत्स! मैं कहाँ अकेला था। मैं तो अपने परम प्रिय भगवान के साथ मिलन के मधुर आनंद का अनुभंव कर रहा था। भगवान के साथ का अनुभव हो तो मनुष्य अपने को अकेला कहाँ अनुभव करता है।”
स्वामी विवेकानंद ने अकेले रहने का उपदेश देते क हुए कहा था–” अकेले रहो ! अकेले रहो !! जो अकेला रहता है, न तो वह दूसरों को परेशान करता है और न दूसरों से परेशान रहता है। जीवन में अकेलापन- एक वरदान बने, न कि अभिशाप। अत: हमें श्रेष्ठ विचार है पवित्र भाव एवं सदाचरण के द्वारा अकेलेपन को दूर कर उसे मूल्यवान क्षण में परिवर्तित करना चाहिए! परमपूज्य गुरुदेव के हिमालय प्रवास की साक्षी पुस्तक ‘सुनसान के सहचर’ एकांत के क्षणों को स्वर्णिम अवसरों में बदलने का उदाहरण सतत देती है।
जिन क्षणों में सामान्य व्यक्ति घबराएं और चिंतातुर हो, उन क्षणों को प्रभु का वरदान मानकर उन्हें साधना की अनुभूति में बदल लेने-का कार्य महान तपस्यियों द्वारा ही संभव है। लौकिक जगत में किए गए वैज्ञानिक आविष्कार हों अथवा अलौकिक जगत में संपन्न की गईं साधनाएँ, ये सभी एकांत के दुर्लभ क्षणों में ही संभव हैं। यदि एकांत के क्षणों का सम्यक उपयोग किया जा सके तो उन्हें जीवन के सबसे महत्त्वपूर्ण क्षणों में परिवर्तित किया जा सकता है, अन्यथा वे मात्र हृदयविदारक स्मृतियों को उभारने वाले अभिशाप की तरह हमें संतप्त करते रहते हैं। आवश्यक है कि मनुष्य एकांत के इन बहुमूल्य क्षणों का मूल्य समझे और उन्हें सौभाग्य में बदलने के लिए प्रयत्नशील हो।