आचार्य तुलसी : अणुव्रत आंदोलन के जनक और प्रखर जैन संत
भारत की पुण्य धरा पर अनेक ऋषियों, सन्तों तथा मनीषियों ने जन्म लेकर अपना तथा समाज का जीवन सार्थक किया है। ऐसे ही एक मनीषी थे आचार्य श्री तुलसी, जिनका जन्म 20 अक्टूबर, 1914 को हुआ था। वे महावीर स्वामी द्वारा प्रवर्तित जैन पन्थ की तेरापन्थ शाखा में मात्र 11 वर्ष की अवस्था में दीक्षित हुए और 22 वर्ष में इस धर्मसंघ के नौवें अधिशास्ता बन गये।
आचार्य तुलसी यों तो एक पन्थ के प्रमुख थे; पर उनका व्यक्तित्व सीमातीत था। अपनी मर्यादाओं का पालन करते हुए भी उनके मन में सम्पूर्ण मानवता के लिए प्रेम था। इसलिए सभी धर्म, मत और पन्थ, सम्प्रदायों के लोग उनका सम्मान करते थे। उनका जीवन एक खुली किताब की तरह था, जिसे पढ़ने के लिए किसी तरह के अक्षरज्ञान की भी आवश्यकता नहीं थी। इतना ही नहीं, उसे जितनी बार पढ़ो, हर बार नये अर्थ उद्घाटित होते थे। श्रद्धालु घण्टों उनके पास बैठकर उनके प्रवचन का आनन्द लेते थे।
आचार्य तुलसी अपने प्रवचन में गूढ़ तथ्यों को इतनी सरलता से समझाते थे कि सामान्य व्यक्ति को भी वे आसानी से समझ में आ जाते थे। यद्यपि उनकी भाषा व भाष्य अत्यन्त शुद्ध होते थे; फिर भी उनके चुम्बकीय आकर्षण से बँधकर लोग बैठे रहते थे। प्रवचन के समय उनकी वाणी ही नहीं, आँखें भी बोलती थीं। आचार्य जी कभी अनावश्यक बात नहीं करते थे; पर उनकी आँखों के संकेत मात्र से ही तेरापन्थ धर्मसंघ का अनुशासन चलता था। यह उनकी प्रशासनिक कुशलता का परिचायक है।
प्रखर बुद्धि एवं वक्तृत्व कौशल के धनी आचार्य जी आचरण व व्यवहार को भी अध्यात्म जितनी ही प्राथमिकता देते थे। इसलिए उनके प्रवचन एवं वार्तालाप में दैनन्दिन जीवन की समस्याओं एवं उनके समाधान की चर्चा भी होती थी। अपने पन्थ में काम करते हुए भी उनके मन में अनेक नये विषयों पर मन्थन होता रहता था। इसी को व्यवहार रूप देने के लिए दो मार्च, 1949 को राजस्थान के सरदार शहर कस्बे में विशाल जनसमूह के सम्मुख उन्होंने ‘अणुव्रत’ नामक एक नये आन्दोलन की नींव रखी।
अणुव्रत लोगों में नैतिकता जगाने का आन्दोलन था। अणु का अर्थ है छोटा और व्रत अर्थात संकल्प। आचार्य जी का मत था कि हम यदि जीवन में छोटा सा व्रत लेकर उसका निष्ठा से पालन करें, तो न केवल अपना अपितु परिवार एवं आसपास वालों का जीवन भी बदल जाता है। यह विषय इतना आसान था कि इससे जुड़ने वालों की संख्या क्रमशः बढ़ने लगी। लाखों लोगों ने अणुव्रत आन्दोलन से प्रेरित होकर हिंसा, मद्यपान, माँसाहार, झूठ, छल, कपट, फरेब आदि अवगुणों को त्याग दिया।
आचार्य जी जन-जन के कल्याण के लिए निरन्तर प्रयत्नशील रहे। अणुव्रत को और अधिक सहज बनाने के लिए उन्होंने इसके साथ प्रेक्षाध्यान और जीवन विज्ञान को प्रचलित किया। प्रेक्षाध्यान के माध्यम से व्यक्ति अन्तर्मुखी होकर स्वयं की अच्छाई एवं कमियों को जानने का प्रयास करता है। इसी प्रकार जीवन विज्ञान के द्वारा वे जन्म से लेकर मृत्यु तक के संस्कारों के पीछे छिपे विज्ञान को सबके सम्मुख लाये।
अणुव्रत के प्रचार-प्रसार के लिए उन्होंने व्यापक भ्रमण किया। जैन मत को वे व्यापक हिन्दू धर्म का एक अभिन्न अंग मानते थे। वे विश्व हिन्दू परिषद् के संस्थापक सदस्यों में से एक थे। जन-जन में जागृति का प्रचार-प्रसार करते हुए 23 जून, 1997 को उन्होंने सदा के लिए आँखें मूँद लीं।
महावीर प्रसाद सिहंल, आगरा
मो. 09897230196