बाबा अलाउद्दीन खान – मां शारदा के पुत्र
नवरात्र के महीनें में मैहर की शक्तिपीठ मां शारदा के दर्शन के लिए यूं तो लाखों श्रद्धालुओं की भीड़ हरेक वर्ष आती है लेकिन इस भीड़ मे अब कोई नहीं आता तो वो है मां शारदा का एक पुत्र जिसें मां सरस्वती ने स्वयं सारी सिद्धियां दी थी। मां के भक्त की कोई जाति और कोई धर्म नहीं होता अगर इस बात को जानना है तो संगीत के महान संत और साधक बाबा अलाउद्दीन खान की जीवन से सीखा जा सकता है। आज मैहर को सिर्फ मां शारदा शक्तिपीठ के लिए ही नहीं जाना जाता बल्कि संगीत के महान मैहर घराने के लिए भी जाना जाता है जिसकी स्थापना बाबा अलाउद्दीन खान ने की थी। उनके शिष्यों पंडित रविशंकर, पन्नालाल घोष और उनके पुत्र अली अकबर खान को पूरी दुनिया में संगीत जगत में जो सम्मान हासिल है वो सिर्फ बाबा अलाउद्दीन खान की वजह से ही है ।
भारत के शास्त्रीय संगीत को विश्व पटल पर ले जाने वाले महान संगीत साधकों में बाबा का नाम सबसे आगे है। बाबा अलाउद्दीन खान का जन्म वर्तमान बंग्लादेश 1862 में ब्रम्हबरिया नामक स्थान में हुआ था। बचपन से ही संगीत की प्रेरणा से वो 10 वर्ष की में ही ये घर छोड़कर भाग गए और बंगाल के पारंपरिक ‘जात्रा थिएटर’ में काम करने लगे. यहां पर इन्हें समृद्ध बंगाली लोक–कला को जानने का अवसर मिला। कुछ समय बाद ये कोलकाता चले गए, जहां पर इनकी मुलाकात उस समय के प्रसिद्ध गायक गोपाल कृष्ण भट्टाचार्य उर्फ़ ‘नुलो गोपाल’ से हुई। जो एक सम्भ्रांत और कट्टर हिन्दू थे। अल्लाउद्दीन खान ने सोचा कि अगर वे अपने को हिन्दू घोषित कर गोपाल कृष्ण भट्टाचार्य के पास जाएं तो अच्छा होगा जिससे उन्हें गायकी की शिक्षा मिल सकती थी। इसलिए उन्होंने अपना हिन्दू नाम तारा प्रसाद सिन्हा रखा और उनके शिष्य बन गए। इन्होंने 12 वर्षों तक गुरु के संरक्षण में गीत–संगीत का अभ्यास करने का वचन दिया, परन्तु 7 वर्ष बाद ही खान के गुरु का प्लेग की बीमारी के कारण निधन हो गया। बाद में वो संगीत की अन्य मंडलियों से जुड़े और आखिरकार उन्हें मैहर स्टेट के राजा बृजनाथ सिंह के दरबार में दरबारी संगीतज्ञ बन गए।
यहीं से उनके जीवन में मां शारदा का प्रवेश होता है । वो अक्सर मां शारदा के मैहर स्थित शक्तीपीठ में जाकर संगीत का अभ्यास करने लगे । वो मां की भक्ति में इतने डूब गए कि उन्हें पता ही नहीं चला कि उनका धर्म इस्लाम है। अपने जीवन पर्यंत वो लगभग रोज 560 सीढ़ियां चढ़ कर मां के लिए सरोद बजाते और नित नई धुनों की रचना करते । धीरे धीरे उनका आध्यात्मिक उत्थान इस स्तर पर पहुंच गया कि मां शारदा उन्हें परोक्ष रुप से दर्शन भी देने लगी।उनका प्रेम मां शारदा से कुछ इस कदर बढ़ चुका था कि उन्हें मां सिर्फ मां के रुप में ही नहीं बेटी के रुप में भी दिखने लगीं। शायद यही कारण था कि उन्होंने अपनी बेटी का नाम भी अन्नपूर्णा रखा था। एक बार वो मैहर में एक तालाब के निकट थक कर आराम कर रहे थे कि अचानक एक सोलह साल की लड़की उनके पास आई। उस लड़की ने अपने गले में फूलों की माला पहनी थी । लड़की के हाथों में एक पानी से भरा घड़ा भी था।उन्होंने उस लड़की से पूछा कि बेटी आज कौन सा ऐसा दिन है और तुम क्या करने आई हो। तो लड़की ने जवाब दिया कि वो महापुरुषोत्तम की पूजा करने आई है।उस लड़की ने बाबा के सामने शिवलिंग पर जल चढ़ाया और गायब हो गई। इसके बाद बाबा अलाउद्दीन खान को ध्यान आया कि वो दिन शिवरात्री का दिन था और मां खुद भोलेनाथ को जल चढ़ाने आई थीं।इसी तरह एक बार जब ईद के मौके पर बाबा के घर पर कोई नहीं था । तो बाबा सोचने लगें कि आज ईद कैसे मनेगी। खाना कौन बनाएगा। तभी घर का दरवाजा किसी ने खटखटाया। जब बाबा ने दरवाजा खोला तो एक लड़की खड़ी थी। बाबा से उसने मजाक करते हुए कहा कि खाना बनाने के लिए वो तैयार है लेकिन शर्त है कि बाबा को उससे शादी करनी पड़ेगी। बाबा ने कहा कि वो तो बुढ्ढे हैं उनसे वो शादी कैसे करेगी। तो लड़की हंसते हुए गायब हो गई। बाबा कहते थे कि “ मैं तो मां शारदा का बच्चा हूं। पहले मां को समझो, मां को जानो और मानों तभी मां प्रसाद देगी।”
Ustad Allauddin Khan Rare Clip :
बाबा अलाउद्दीन खान का रामकृष्ण परमहंस से भी गहरा रिश्ता था। बाबा जब बचपन में अपने गुरु की तलाश में घर से भाग गए थे तो भटकते हुए वो दक्षिणेश्वर पहुंच गए। वहां वो मां काली के पास जाकर बैठ गए। तभी समाधि से उतर कर रामकृष्ण परमहंस ने उन्हें प्यार से बुलाया और मां शारदा को उन्हें खाना खिलाने को कहा। मंदिर के पुजारी ने अलाउद्दीन खान को कहा कि उन पर रामकृष्ण परमहंस की विशेष कृपा हुई है। बाबा कई दिनों तक दक्षिणेश्वर में ही रहे । एक दिन रामकृष्ण परमहंस ने उनसे पूछा कि वो क्यों परेशान रहते हैं। तब बाबा ने बताया कि वो गुरु की तलाश में हैं। रामकृष्ण ने उन्हें आशीर्वाद देते हुए कहा कि जा तूझे तेरे गुरु जल्द ही मिल जाएंगे। रामकृष्ण परमहंस की बात सत्य हुई और बाबा को जल्द ही गुरु की प्राप्ति हो गई। बाबा अलाउद्दीन खान का विवेकानंद से भी गहरा रिश्ता था। विवेकानंद जब पखावज बजाते तो उनके साथ बाबा भी कई बार संगत देते थे। बाबा का सरोद वादन बाद में जब पूरी दुनिया में प्रसिद्ध हुआ तो भी वो इसका श्रेय मां शारदा को ही देते रहे । बाबा अलाउद्दीन का निधन 1972 में हुआ लेकिन आज भी उनकी बनाई धुनें और मां शारदा के प्रति भक्ति की हजारों कहानियां जनश्रुतियों के रुप में कायम है।
लेखक – अजीत मिश्रा