अनित्यता
जो कुछ भी इंद्रियगोचर है, उसमें से कुछ भी स्थायी नहीं। यह मेघ, चंद्रमा, तारागण, हमारा ग्रह, सब कुछ निरंतर परिवर्तित हो रहा है।
कभी कभी मैं आश्चर्यचकित होता हूँ कि प्रतिकूल परिस्थितियों के प्रति हम इतने अनिच्छुक क्यों रहते हैं? कुछ भी ऐसा जो हमारी अपेक्षाओं के साथ तारतम्य नहीं रखता, हम उसे दुःख की संज्ञा दे देते हैं। चाहे वह कोई कठिन व्यक्ति हो, अथवा परिस्थिति या समस्या हो, जो कुछ भी हमें बेचैन करने की क्षमता रखता है वह हमारे लिए अवांछनीय हो जाता है। अतिशय तीव्रता से। हम उससे अपना पीछा छुड़ाना चाहते हैं। इच्छा रखना, स्वभावतः, कोई समस्या नहीं है, चूँकि हमारे भौतिक अथवा आध्यात्मिक – किसी भी प्रकार के विकास में इच्छाएँ ही मूल कारण होती हैं। वास्तविक समस्या है हमारी इच्छाओं का अव्यावहारिक रूप; और उसमें भी सबसे विकट समस्या यह इच्छा करना है कि हमारे जीवन में जो अच्छा है वह सदा वैसा ही बना रहना चाहिए।
पद्मसंभव, जो गुरु रिंमोचे के नाम से अधिक जाने जाते थे, 8वीं सदी के भारतीय रहस्यदर्शी थे, जिन्होंने अपनी युवावस्था का अधिकांश समय तिब्बत में व्यतीत किया था। उनका रहस्यमयी आकर्षण एवं कलेवर कुछ ऐसा था कि यदि कोई उन्हें कुछ क्षण के लिए भी मिल लेता तो वह उनके प्रति प्रेम एवं श्रद्धा से परिपूर्ण हो जाता। राजसभा व साधारण प्रजा में केवल कुछ लोग ऐसे थे जो उनसे ईर्ष्याभाव रखते थे। समस्त प्रजा रिंपोचे पर प्रेम, यशगान, व उपहारों की वर्षा करते न थकती। सम्राट ने उन्हें अपने ही महल में एक स्थायी कक्ष दिया हुआ था व उन्हें पुत्रवत प्रेम करते थे। ऐसा लगता मानो धन-सम्पदा व सत्ता-अधिकार सब कुछ उन्हें प्रारब्ध वश प्राप्त था। वह एक निर्भीक वक्ता थे व अपना सत्य निडर होकर बखान करते। लोगों ने तो यहाँ तक भविष्यवाणी कर दी कि एक दिन रिंपोचे समस्त तिब्बत साम्राज्य के शासक होंगे।
ग्रंथानुसार, एकदा हाथ में सम्राट का पारंपरिक घंटा व त्रिशूल धारण किए, अपने दिव्यता से ओतप्रोत नृत्य के बीच उन्होंने जब वह घंटा व त्रिशूल हवा में तेज घुमा कर छत से फेंके तो वह नीचे के मार्ग पर जा गिरे। त्रिशूल एक राहगीर के सिर पर इतना गहरा लगा कि उसकी उसी क्षण मृत्यु हो गई। जो लोग उनसे ईर्ष्या करते थे उन्होंने इस घटना का लाभ लेते हुए उनके विरुद्ध दुष्प्रचार आरंभ कर दिया। वे उसमें सफल हो गए व अतिशीघ्र जन मानस में क्रोध की लहर व्याप गई। उनकी युवावस्था को अनुभवहीनता व उनके सत्य को अक्खड़पन व अहंकार माना जाने लगा। प्रजा ने एक स्वर में कहना प्रारम्भ कर दिया कि रिंपोचे को दंडस्वरूप वहाँ से निष्कासित कर दिया जाये।
रिंपोचे ने अपना शेष जीवन निर्वासित रूप से व्यतीत किया। तथापि, मात्र एक घटना रिंपोचे को जागृत करने व उन्हें इस संसार की अनित्यता का प्रत्यक्ष बोध करवाने के लिए पर्याप्त थी।
जीवन में जागृति हेतु कभी कभी मात्र एक घटना ही आवश्यक होती है। मात्र एक घंटी जो आपके अन्तःकरण में आपकी सहायतार्थ बजे, यह अनुभव करने हेतु कि वास्तव में संसार का रूप कैसा है – वह है अयुक्तियुक्त, असंगत व अस्थाई। ऐसी ही कोई घटना जीवन को परिवर्तित कर आपका दृष्टिकोण सदा के लिए बदल देती है। आपकी पुरानी प्रवृत्तियाँ यदा कदा तब भी आपको हिलाती रहती हैं, किन्तु अब एक जागरूक आप, जीवन का सामना भिन्न रूप से करते हैं।
इस जगत में आप अपनी रुचिनुसार कोई भी पदार्थ पा सकते हैं – “स्थायित्व” को छोड़ कर। वे सब जो आज आपको प्रेम करते हैं, एक दिन आपसे ऊब जाएंगे। कोई चीज़ भले कितनी ही स्थायी व सुस्थिर प्रतीत होती हो, एक दिन वह जाने वाली है। यहाँ ऐसा कुछ भी निर्मित नहीं हुआ जो अचल हो। घने वनप्रदेश अग्नि से जलने लगते हैं, पर्वत हिलने लगते हैं, नदियाँ सूख जाती हैं, सागर विपरीत हो जाते हैं, ग्लेशियर पिघल जाते हैं, जन-मानस मृत्यु का ग्रास बन जाता है। बृहद से बृहदतम व लघु से लघुतम, जैसे अग्नि में ऊष्मता, तिल में तेल इत्यादि, हर किसी इंद्रियजगत द्वारा जाने जाने वाली वस्तु का अंतर्निष्ठ गुण है – अनित्यता।
यदि हम इस जगत के क्षणभंगुर, नश्वर स्वरूप के प्रति सजग रह पाएँ तो प्रतिकूल परस्थितियाँ उतनी कष्टकारी प्रतीत नहीं होंगी। जब आप यह मान कर ही चलते हैं कि वे जो आज आपके साथ हैं, कल आपके विरुद्ध भी हो सकते हैं, अथवा इसका विपरीत, तब आपको उनका स्वभाव विस्मित करने वाला नहीं लगेगा। जब आप प्रसन्न हों तो स्वयं को स्मरण दिलवाएँ कि यह सब रहने वाला नहीं और जब आप अत्यधिक उदास हों तो स्वयं से प्रश्न करें कि क्यों? यह नहीं कि मेरे साथ ऐसा क्यों हो रहा है, बल्कि यह कि मैं क्यों उदास हूँ? ऐसा क्या है जो मुझे व्यथित कर रहा है? मैं ऐसी प्रतिक्रिया क्यों दे रहा हूँ? क्या यह मुझ पर शोभा देता है? क्या यही समझदारी है? इत्यादि। सजगता का एक शीतल झोंका आपके तप्त व्यक्तित्व को लगभग उसी क्षण शांत कर देगा।
प्रसन्नता हो या उदासी, दोनों ही सुख व दुःख की भांति, अनित्य भाव हैं। बात केवल इतनी है कि हम उदासी व दुःख को इतना अधिक उपेक्षित नजर से देखते हैं कि जैसे ही जीवन में इनकी कण मात्र उपस्थिति पाते हैं तो हम भयभीत हो जाते हैं। सलाद पर एक मक्खी का आकर बैठ जाना, पूरी थाली के भोजन का स्वाद बिगाड़ने के लिए पर्याप्त है।
कष्ट या उदासी – ये गलत अथवा सही नहीं होते। वे बस हैं। यदि आप जीवन के प्रवाह में बहने का अनुभव प्राप्त करना चाहते हैं (और इस सम्पूर्ण क्रम का आनंद लेना भी), तो स्वयं को यह स्मरण करवाना अनिवार्य है कि कुछ भी स्थायी नहीं; दुःख भी सही है। यहाँ मैं विशाल-कष्ट जैसे कि अनेकों बालकों का कहीं भूख से मर जाना, आदि की बात नहीं कर रहा। वह कभी भी सही नहीं हो सकता। निर्बल के संरक्षण हेतु बलवान को आगे आना ही चाहिए। मैं यहाँ एक-व्यक्ति संबंधी कष्टों का संदर्भ ले रहा हूँ। ऐसे कष्ट जो हमें ऐसा महसूस करवाते हैं कि यह जीवन निरर्थक है। ऐसे कष्टों के मूल में है हमारा अपनी उन अपेक्षों से बंधे रहना जो हम इस जीवन से रखते हैं, मानो कि हमें इसका भली भांति ज्ञान है कि जीवन होना कैसा चाहिए! हम भूल जाते हैं कि एक दिन हर व्यक्ति, वस्तु या पदार्थ हमसे विलग कर दिये जाएंगे। यहाँ सच में कोई भी किसी के साथ सदा के लिए जुड़ा नहीं होता। हम में से प्रत्येक व्यक्ति अपनी अपनी परिस्थितियों के साथ जूझ रहा है। यह सब निष्ठुर प्रतीत होता है, किन्तु आम तौर पर सच्चाई कुछ ऐसी ही है।
रोबर्ट ब्राउनिंग ने अपनी एक सुंदर काव्य-रचना ‘द पैट्रिओट’ (The Patriot) में इस नश्वर जगत का सार प्रस्तुत किया है। एक व्यक्ति जिसे एक वर्ष पूर्व राजकीय स्वागत सत्कार से नवाजा गया था, अब अपने ही लोगों द्वारा त्याज्य घोषित कर दिया जाता है। उसे ठीक से समझा ही नहीं जाता और अब उसे ऐसे कृत्य के लिए दंडित किया जा रहा है जो उसने कभी किया ही नहीं। किन्तु वह यह सोच स्वयं को संभाल लेता है कि कम से कम ईश्वर तो सब जानते हैं और यदि अब उसे मृत्यु दंड भी दिया जाता है तो कोई बात नहीं चूँकि ऐसे में वह स्वर्ग का अधिकारी होगा।
राह में गुलाबों की शय्या बिछायी गयीं,
पथ भर उन्मत्त रूप से सजावट,
छत पर उत्साहित लोग झूमे,
चर्च में लपटों की भांति सैकड़ों झंडे लहराये,
पिछले वर्ष इसी दिन माहौल उत्सवी था।हवा में गूंजती घंटियों की ध्वनि,
धूमधाम और उत्तेजना से पुराने भवनों की थरथराहट।
यदि मैं पूछता,“लोगों, मात्र शोर शराबा अप्रीतिकर है –
मेरे लिए आसमान से तारे तोड़ लाओ!”
तो वे कहते,“अवश्य! आप को और क्या चाहिए?”अफसोस, वह मैं था जो आसमान से तारे तोड़ लाया,
अपने प्रिय मित्रों को उपहार स्वरूप देने हेतु!
मानव जो-जो कर सकता, मैंने उसमें एक न छोड़ा –
और देखो मुझे उसका क्या प्रतिफल मिला,
आज, एक वर्ष बीत जाने के बाद।अब छत पर ना खड़ा है कोई,
केवल खिडकियों पर कुछ कंपित वृद्ध व रुग्ण;
चूंकि सर्वोत्तम दृश्य था कहीं और –
क़साईख़ाने में; अथवा यह कहूँ
फ़ाँसी के तख्ते में, जहाँ मैं चला।चल रहा हूँ मैं मूसलाधार वर्षा में,
रस्सी काट रही पीछे बंधी मेरी कलाईयों को;
अहसास हो रहा है माथे से बह रहे लहू का,
लोग पत्थर जो बरसा रहे हैं मुझ पर,
पिछले वर्ष के मेरे दुराचार के लिए।यूँ मैं आया था और यूँ ही जा रहा हूँ!
विजेताओं को तो सदैव नष्ट किया है लोगों ने।
“जगत में दंडित, तुम मेरे ऋणी क्यों होगे?” –
ऐसा संभवतः भगवान पूछेंगे; अब कम से कम
भगवान उचित परिणाम देंगे – अतः मैं सुरक्षित हूँ।
यहाँ आशय यह नहीं कि लोग एक दूसरे से प्रेम नहीं करते अथवा तो यह एक झूठ से भरी दुनिया है, तथ्य यह है कि सब अस्थायी एवं नश्वर है। कहीं कोई गारंटी नहीं है। स्वयं को ऐसा स्मरण करवाते रहना, धर्म के मार्ग पर चलने में आपके लिए सहायक सिद्ध होगा। यह आपको उचित निर्णय लेने व उपयुक्त शब्द उच्चारित करने का बल प्रदान करेगा। और, जितना अधिक सदाचारी आपका जीवन, आपका आचरण होगा, उतना अधिक आप मन में शांति अनुभव कर पाएंगे। यह वास्तव में इतना ही सरल है।
मुल्ला नसरूदीन दो सप्ताह के लिए एक शहर की यात्रा करने गए। एक दिन समय पा कर वे वहाँ के तुर्की हमाम का लुत्फ लेने पहुंचे। मुल्ला को एक साधारण सी वेषभूषा में देख वहाँ के कर्मियों ने उसे हल्की फुलकी सेवाएँ प्रदान कर टरकाने की सोची। उसे एक साबुन का टुकड़ा और पुराना सा तौलिया पकड़ा दिया गया व किसी ने उसकी ओर ज्यादा ध्यान न दिया। मुल्ला अकेला पड़ गया। वहाँ के सबसे आलसी मालिश वाले ने उसकी बेमन से मालिश की। मुल्ला ने शिकायत करने के स्थान पर सब को दिल खोल कर ५० दिनार बख्शीश दी, और उनका अच्छे से धन्यवाद भी किया। ऐसा व्यवहार पा कर सब कर्मचारी हक्के-बक्के रह गए।
एक सप्ताह पश्चात मुल्ला उसी हमाम में फिर से गया। अब तक सब कर्मचारी जान चुके थे कि वह कितना धनवान एवं दयालु है। इस बार उन्होंने उसे अपनी शानदार सेवाएँ प्रदान की। उसका भव्य स्वागत किया, बढिया व नरम सा तौलिया दिया, ताजगी से भरपूर लेप व द्रव्य इत्यादि उपयोग किये, और बढ़िया मालिश भी की। मुल्ला के लिए सुगंधित गुनगुना जल स्नान हेतु इस्तेमाल किया गया, अरबी चाय व खजूर भी परोसे गए। सबने सोचा कि मुल्ला खुश हो कर उन्हें न जाने कितनी बख्शीश दे दे। लेकिन मुल्ला ने क्रोध जताते हुए, उन्हें मात्र एक दिनार बख्शीश में दिया।
एक कर्मचारी चुप न रह पाया और मुल्ला से बोला, “क्षमा करें, पिछली बार जब आप आए थे तब हमने आपको साधारण सेवाएँ प्रदान की थीं, तथापि आपने हमें ५० दिनार बख्शीश में दिये। इस बार हमने अपनी ओर से सर्वश्रेष्ठ सेवा की और आपने हमें मात्र एक दिनार दिया? यह बात हमें समझ नहीं आई।”
मुल्ला ने बाहर जाते हुए जरा रुक कर जवाब दिया, “ओह ये बात है! पहली बख्शीश इस बार की सेवा के लिए थी और इस बार की पहले की सेवा के लिए!”
ऐसा ही हमारे संसार में भी है। यहाँ आपको कैसी सेवा व कैसा प्रेम मिलता है, यह एक सीमा तक इस पर निर्भर होता है कि आपको किस दृष्टि से देखा जाता है और आप दूसरों के लिए क्या क्या कर सकते हैं। प्रेम बलिदान मांगता है। यह अच्छा या बुरा नहीं है। यह मात्र हमारे मन की कार्य-प्रणाली है। और ऐसा केवल दूसरे ही आपके साथ नहीं करते। हम भी दूसरों को अपनी सोच के आधार पर ही प्रेम एवं सेवा देते हैं। अंततः सब कुछ चक्रीय, एक दूसरे पर निर्भर व अस्थायी है।
आपकी प्रसन्नता, आपकी जागरूकता की भांति ही, पूर्ण रूप से स्वयं आपके हाथ में है। जितना अधिक आप अपने शब्दों, क्रिया-कलापों एवं अपने आशय के प्रति सचेत होंगे, उतना ही कम आपके अन्तःकरण में दूसरों व स्वयं के प्रति क्रोध पनपेगा। जितना अधिक आप अपने साथ विनम्र रहेंगे, उतना अधिक आप प्रसन्न रहेंगे। अधिकाधिक प्रसन्नता अच्छाई व सदाचार के समतुल्य होती है। इस दुनिया को हमेशा थोड़ी और अच्छाई की आवश्यकता होती ही है।
उदार बनें। हर प्रकार की स्थिति में। और, आप जागृत हैं। ऐसे में यह जगत, भले अपने नश्वर व मायावी रूप में ही, और अधिक सुंदर हो जाएगा।
शांति।
स्वामी
साभार – http://hi.omswami.com/