बलिदान-दिवस : धर्म रक्षा हेतु बलिदान : गुरु तेगबहादुर
एक बार सिखों के नवें गुरु श्री तेगबहादुर जी हर दिन की तरह दूर–दूर से आये भक्तों से मिल रहे थे। लोग उन्हें अपनी निजी समस्याएँ तो बताते ही थे; पर तब के शासकों द्वारा अत्याचारों की चर्चा सबसे अधिक होती थी। आक्रमणकारी गाँवों को जलाकर मन्दिरों और गुरुद्वारों को भ्रष्ट कर रहे थे। नारियों का अपमान और जबरन धर्मान्तरण उनके लिए सामान्य बात थी। गुरुजी सबको संगठित होकर इनका मुकाबला करने का परामर्श देते थे।
पर उस दिन का माहौल कुछ अधिक ही गम्भीर था। कश्मीर से आये हिन्दुओं ने उनके दरबार में दस्तक दी थी। वहाँ जो अत्याचार हो रहे थे, उसे सुनकर गुरुजी की आँखें भी नम हो गयीं। वे गहन चिन्तन में डूब गये। रात में उनके पुत्र गोविन्दराय ने जब चिन्ता का कारण पूछा, तो उन्होंने सारी बात बताकर कहा – लगता है कि अब किसी महापुरुष को धर्म के लिए बलिदान देना पड़ेगा; पर वह कौन हो, यही मुझे समझ नहीं आ रहा है।
गोविन्दराय ने एक क्षण का विलम्ब किये बिना कहा – पिताजी, आज आपसे बड़ा महापुरुष कौन है ? बस, यह सुनते ही गुरु जी के मनःचक्षु खुल गये। उन्होंने गोविन्द को प्यार से गोद में उठा लिया। अगले दिन उन्होंने कश्मीरी हिन्दुओं को कह दिया कि औरंगजेब को बता दो कि यदि वह गुरु तेगबहादुर को मुसलमान बना ले, तो हम सब भी इस्लाम स्वीकार कर लेंगे।
कश्मीरी हिन्दुओं से यह उत्तर पाकर औरंगजेब प्रसन्न हो गया। उसे लगा कि यदि एक व्यक्ति के मुसलमान बनने से हजारों लोग स्वयं ही उसके पाले में आ जायेंगे, तो इससे अच्छा क्या होगा ? उसने दो सरदारों को गुरुजी को पकड़ लाने को कहा। गुरुजी अपने पाँच शिष्यों भाई मतिदास, भाई सतिदास, भाई दयाला, भाई चीमा और भाई ऊदा के साथ दिल्ली चल दिये।
मार्ग में सब जगह हिन्दुओं ने उनका भव्य स्वागत किया। इस पर औरंगजेब ने आगरा में उन्हें गिरफ्तार करा लिया। उन्हें लोहे के ऐसे पिंजड़े में बन्द कर दिया गया, जिसमें कीलें निकली हुई थीं। दिल्ली आकर गुरुजी ने औरंगजेब को सब धर्मावलम्बियों से समान व्यवहार करने को कहा; परवहकहाँमाननेवालाथा।
उसने कोई चमत्कार दिखाने को कहा; पर गुरुजी ने इसे स्वीकार नहीं किया। इस पर उन्हें और उनके शिष्यों को शारीरिक तथा मानसिक रूप से खूब प्रताड़ित किया गया; पर वे सब तो आत्मबलिदान की तैयारी से आये थे। अतः औरंगजेब की उन्हें मुसलमान बनाने की चाल विफल हो गयी।
सबसे पहले नौ नवम्बर को भाई मतिदास को आरे से दो भागों में चीर दिया गया। अगले दिन भाई सतिदास को रुई में लपेटकर जलाया गया। भाई दयाला को पानी में उबालकर मारा गया। गुरुजी की आँखों के सामने यह सब हुआ; पर वे विचलित नहीं हुए। अन्ततः 11 नवम्बर, 1675 को दिल्ली के चाँदनी चौक में गुरुजी का भी शीश काट दिया गया। जहाँ उनका बलिदान हुआ, वहाँ आज गुरुद्वारा शीशगंज विद्यमान है।
औरंगजेब हिन्दू जनता में आतंक फैलाना चाहता था; पर गुरु तेगबहादुर जी के बलिदान से हिन्दुओं में भारी जागृति आयी। उनके बारे में कहा गया कि उन्होंने सिर तो दिया; पर सार नहीं दिया। आगे चलकर उनके पुत्र दशम गुरु गोविन्दसिंह जी ने हिन्दू धर्म की रक्षार्थ खालसा पन्थ की स्थापना की।
लेखक – महावीर प्रसाद जी सिंघल
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