बौद्ध साहित्य त्रिपिटक: परिचय, विभाजन और महत्त्व
त्रिपिटक बौद्ध धर्म का प्रमुख ग्रंथ है जिसे सभी बौद्ध सम्प्रदाय यानि महायान, थेरवाद, बज्रयान, मूलसर्वास्तिवाद, नवयान आदि मानते है. यह बौद्ध धर्म के प्राचीनतम ग्रंथ है जिसमें भगवान बुद्ध के उपदेश संग्रहीत है. यह ग्रंथ पालि भाषा में लिखा गया है और विभिन्न भाषाओं में अनुवादित है. इस ग्रंथ में भगवान बुद्ध द्वारा बुद्धत्त्व प्राप्त करने के समय से महापरिनिर्वाण तक दिए हुए प्रवचनों को संग्रहित किया गया है. त्रिपीटक का रचनाकाल या निर्माणकाल ईसा पूर्व 100 से ईसा पूर्व 500 है.
त्रिपिटक का परिचय
बौद्ध-परम्परा के अनुसार त्रिपिटक तीन संगीतियों से स्थिर हुआ. कहा जाता है कि बुद्ध के परिनिर्वाण के बाद सुभद्र नामक भिक्षु ने अपने साथियों से कहा- ‘‘आवुसो, शोक मत करो, रुदन मत करो ! हम लोगों को महाश्रमण से छुटकारा मिल गया है. वे हमेशा कहते रहते थे- ‘यह करो, यह मत करो’. लेकिन अब हम जो चाहेंगे करेंगे. जो नहीं चाहेंगे, नहीं करेंगे.’’
सुभद्र भिक्षु के ये वचन सुनकर महाकाश्यप स्थविर को भय हुआ कि कहीं सद्धर्म का नाश न हो जाए. अतएव उन्होंने विनय और धर्म के संस्थापन के लिए राजगृह में 500 भिक्षुओं की एक संगीति बुलवायी. बौद्ध भिक्षुओं की दूसरी संगीति बुद्ध-परिनिर्वाण के 100 वर्ष बाद वैशाली में बुलाई गयी. बुद्ध-परिनिर्वाण के 236 वर्ष बाद पाटलिपुत्र में सम्राट अशोक के समय तिस्स मोग्गलिपुत्त ने तीसरी संगीति बुलायी, जिसमें थेरवाद का उद्धार किया गया. वर्तमान त्रिपिटक वही त्रिपिटक है जो सिंहल के राजा वट्टगामणी के समय प्रथम शताब्दी के अन्तिम रूप से स्थिर हुआ माना जाता है.
त्रिपिटक ग्रन्थ का विभाजन
त्रिपिटक को तीन भागों में विभाजित किया गया है, विनयपिटक, सुत्तपिटक और अभिधम्म पिटक. इसका विस्तार इस प्रकार है- त्रिपिटक में सत्रह ग्रंथो का समावेश है.
- विनयपिटक- सुत्तविभंग(पाराजिक, पाचित्तिय),खन्धक (महावग्ग, चुल्लवग्ग),परिवार,पातिमोक्ख
- सुत्तपिटक- दीघनिकाय,मज्झिमनिकाय,संयुत्तनिकाय,अंगुत्तरनिकाय,खुद्दकनिकाय,खुद्दक पाठ,धम्मपद,उदान,इतिवुत्तक, सुत्तनिपात,विमानवत्थु,पेतवत्थु,थेरगाथा,थेरीगाथा,जातक,निद्देस,पटिसंभिदामग्ग,अपदान,बुद्धवंस,चरियापिटक
- अभिधम्मपिटक-धम्मसंगणि,विभंग,धातुकथा,पुग्गलपंञति,कथावत्थु,यमक,पट्ठान
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बौद्ध त्रिपिटक का महत्व
बौद्ध त्रिपिटक कई रूप से महत्वपूर्ण है. इसमें बुद्धकालीन भारत की राजनीति, अर्थनीति, सामाजिक व्यवस्था, शिल्पकला, संगीत, वस्त्र-आभूषण, वेष-भूषा, रीति-रिवाज तथा ऐतिहासिक, भौगोलिक, व्यापारिक आदि अनेक महत्त्वपूर्ण विषयों का विस्तार से प्रतिपादन है. उदाहरण के लिए, विनयपिटक में बौद्ध भिक्षु-भिक्षुणियों के आचार-व्यवहार सम्बन्धी नियमों का विस्तृत वर्णन है.
‘महावग्ग’ में तत्कालीन जूते, आसन, सवारी, ओषधि, वस्त्र, छतरी, पंखे आदि का उल्लेख है. ‘चुल्लवग्ग’ में भिक्षुणियों की प्रव्रज्या आदि का वर्णन है. यहाँ भिक्षुओं के लिए जो शलाका-ग्रहण की पद्धति बताई गयी है. वह तत्कालीन लिच्छवि गणतंत्र के ‘वोट’ (छन्द) लेने के रिवाज की नकल है. उस समय के गणतन्त्र शासन में कोई प्रस्ताव पेश करने के बाद, प्रस्ताव को दुहराते हुए उसके विषय में तीन बार तक बोलने का अवसर दिया जाता था. तब कहीं जाकर निर्णय सुनाया जाता था. यही पद्धति भिक्षु संघ में स्वीकार की गयी थी.
‘सूत्रपिटक’ (सुत्तपिटक) के अन्तर्गत दीर्घनिकाय में पूरणकस्सप, मक्खलि गोसाल, अजित केसकम्बल, पकुध कच्चायन, निगंठ नातपुत्त और संजय वेलट्ठिपुत्त नामक छह यशस्वी तीर्थकरों का मत-प्रतिपादन, लिच्छवियों की गण-व्यवस्था, अहिंसामय यज्ञ, जात-पाँत का खण्डन आदि अनेक महत्त्वपूर्ण विषयों का उल्लेख है.
‘मज्झिमनिकाय’ में बुद्ध की चारिका, नातपुत्त-मत-खण्डन, अनात्मवाद, वर्ण-व्यवस्था-विरोध, मांसभक्षण-विचार आदि विषयों का प्रतिपादन है.
‘संयुत्तनिकाय’ में कोसल के राजा पसेनदि और मगध के राजा अजातशत्रु के युद्ध का वर्णन है.
‘अंगुत्तरनिकाय’ में सोलह जनपद आदि का उल्लेख है.
‘खुद्दकनिकाय’ के अन्तर्गत ‘धम्मपद’ और सुत्तनिपात’ बहुत प्राचीन माने जाते हैं जिनका बौद्ध साहित्य में ऊँचा स्थान है.
‘सुत्तनिपात’ में सच्चा ब्राह्मण कौन है ? वास्तविक मांस-त्याग किसे कहते हैं ? आदि विषयों का मार्मिक वर्णन है.
‘थेरगाथा’ और ‘थेरीगाथा’ में अनेक भिक्षु-भिक्षुणियों की जीवनचर्या दी गई है, जिन्होंने बड़े-बड़े प्रलोभनों को जीतकर निर्वाण पदवी पायी.
जातकों में बुद्ध के पूर्वभावों की कथाएँ हैं, जिनके अनेक दृश्य साँची, भरहुत आदि के स्तूपों पर अंकित हैं. ये 150 ईसवी सन् पूर्व के आसपास के माने जाते हैं. ये कथाएँ विश्व-साहित्य की दृष्टि से बहुत महत्त्व की हैं और विश्व के प्रायः हरेक कोने में पहुँची हैं.
‘अभिधम्मपिटक’ में बौद्धधर्म में मान्य पदार्थ और उनके भेद-प्रभेदों का विस्तार से वर्णन है. बौद्धधर्म के इतिहास की दृष्टि से यह महत्त्व का ग्रन्थ है. इसकी रचना सम्राट् अशोक के समय तिस्समोग्गलिपुत्त ने की थी.
बौद्ध विद्वानों ने उक्त त्रिपिटक की अनेक व्याख्याएँ आदि लिखी हैं, जिन्हें अट्ठकथा (अर्थकथा) के नाम से जाना जाता है. अट्ठकथाएँ भी पालि भाषा में हैं. कहते हैं जब महेन्द्र स्थविर बुद्ध शासन की स्थापना करने के लिए सिंहल गये तो वे त्रिपिटक के साथ-साथ उनकी अट्ठकथाएँ भी लेते गये. तत्पश्चात् आचार्य बुद्धघोष ने ईसवी सन की 5वीं शताब्दी में इन सिंहल अट्ठकथाओं का पालि में रूपान्तर किया. अट्ठकथाएँ ये हैं-
- समन्तपासादिका (विनय-अट्ठकथा)
- सुमंगलविलासिनी (दीघनिकाय-अट्ठकथा)
- पपंचसूदनी (मज्झिमनिकाय-अट्ठकथा)
- सारत्थपकासिनी (संयुत्तनिकाय-अट्ठकथा)
- मनोरथपूरणी (अंगुत्तरनिकाय-अट्ठकथा)
- अभिधम्मपिटक की भिन्न-भिन्न अट्ठकथाएँ
इन सब अट्ठकथाओं का प्रणेता प्रायः बुद्धघोष को माना जाता है. इसके अतिरिक्त ‘खुद्दकनिकाय’ के ग्रन्थों पर भी भिन्न-भिन्न अट्ठकथाएँ हैं, जिनमें जातक-अट्ठकथा और धम्मपद-अट्ठकथा विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं. जातक में केवल बुद्ध भगवान के पूर्वजन्म से सम्बन्ध रखनेवाली गाथाएँ हैं, जो बिना जातक-अट्ठकथा के समझ में नहीं आ सकतीं. ये सब अट्ठकथाएँ भारत की प्राचीन संस्कृति का भण्डार हैं जिनमें इतिहास की विपुल सामग्री भरी पड़ी है।
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