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महर्षि चरक : शल्य चिकित्सा के जनक और विश्व के पहले चिकित्सक

महर्षि चरक : शल्य चिकित्सा के जनक और विश्व के पहले चिकित्सक

प्रकृति और मानव के बीच संबंधों में खुद के स्वास्थय के प्रति जागरूकता एक खास वजह है। हम प्रकृति जसे रहना चाहते है। आयुर्वेद के विकास में इस बाक का ध्यान रखा गया कि मनुष्य सदैव हरा भरा कैसे रहे। समय – समय पर विशिष्ट व्यक्तियों को जिन वस्तुओ से कोई अनुभव हुआ उन सिद्धांतो के संकलन से ऐसे ग्रन्थो का निर्माण हुआ जो मानव के स्वास्थ्य के लिए कल्याणकारी सिद्ध हुए। आयुर्वेद भी ऐसा ही एक प्राचीन ग्रन्थ है जिसमे स्वास्थ्य सम्बन्धी सिद्धांतो की जानकारियां दी गई है।

श्रावण शुक्ल पक्ष पंचमी यानि आज (15 अगस्त 2018) को आयुर्वेद के महान आचार्य भगवान आत्रेय के कृपापात्र व्याकरण मर्मज्ञ काय चिकित्सक शेषावतारी चरकसंहिता के रचियता महर्षि चरक का प्रादुर्भाव दिवस है।

प्राचीन काल में जब चिकित्सा विज्ञान की इतनी प्रगति नहीं हुई थी, गिने – चुने चिकित्सक ही हुआ करते थे. उस समय चिकित्सक स्वयं ही दवा बनाते, शल्य क्रिया करते और रोगों का परिक्षण करते थे. तब आज जैसी प्रयोगशालायें, परिक्षण यंत्र व चिकित्सा सुविधाएँ नहीं थी, फिर भी प्राचीन चिकित्सको का चिकित्सा ज्ञान व चिकित्सा स्वास्थ्य के लिए अति लाभकारी थी.

दो हजार वर्ष पूर्व भारत में ऐसे ही स्वनामधन्य चिकित्सक (Doctor) चरक हुए है. जिन्होंने आयुर्वेद चिकित्सा के क्षेत्र में शरीर विज्ञान, निदान शास्त्र और भ्रूण विज्ञान पर ”चरक संहिता” नामक पुस्तक लिखी. इस पुस्तक को आज भी चिकित्सा जगत में बहुत सम्मान दिया जाता है.

चरक वैशम्पायन के शिष्य थे. इनके चरक संहिता ग्रन्थ में भारत के पश्चिमोत्तर प्रदेश का ही अधिक वर्णन होने से यह भी उसी प्रदेश के प्रतीत होते है. संभवतः नागवंश में इनका जन्म हुआ था.

चरक कहते थे- ” जो चिकित्सक अपने ज्ञान और समझ का दीपक लेकर बीमार के शरीर को नहीं समझता, वह बीमारी कैसे ठीक कर सकता है. इसलिए सबसे पहले उन सब कारणों का अध्ययन करना चाहिए जो रोगी को प्रभावित करते है, फिर उसका इलाज करना चाहिए. ज्यादा महत्वपूर्ण यह है की बीमारी से बचाना न की इलाज करना ”.

चरक ऐसे पहले चिकित्सक थे जिन्होंने पाचन, चयापचय (भोजन – पाचन से सम्बंधित प्रक्रिया) और शरीर प्रतिरक्षा की अवधारणा दी थी. उनके अनुसार शरीर में पित्त, कफ और वायु के कारण दोष उत्पन्न हो जाते है. यह दोष तब उत्पन्न होते है जब रक्त, मांस और मज्जा खाए हुए भोजन पर प्रतिक्रिया करती है.

चरक ने यहाँ पर यह भी स्पष्ट किया है की समान मात्रा में खाया गया भोजन अलग – अलग शरीरो में भिन्न दोष पैदा करता है अर्थात एक शरीर दूसरे शरीर से भिन्न होता है. उनका कहना था कि बीमारी तब उत्पन्न होती है जब शरीर के तीनो दोष असंतुलित हो जाते है. इनके संतुलन के लिए इन्होने कई दवाईयाँ बनायीं.

कहा जाता है की चरक को शरीर में जीवाणुओं की उपस्थिति का ज्ञान था. परन्तु इस विषय पर उन्होंने अपना कोई मत व्यक्त नहीं किया है. चरक को आनुवंशिकी के मूल सिद्धांतो की भी जानकारी थी. चरक ने अपने समय में यह मान्यता दी थी कि बच्चो में आनुवंशिक दोष जैसे- अंधापन, लंगड़ापन जैसी विकलांगता माता या पिता के किसी कमी के कारण नहीं बल्कि डीम्बाणु या शुक्राणु की त्रुटी के कारण होती थी. यह मान्यता आज एक स्वीकृत तथ्य है.

न्होंने शरीर में दांतों सहित 360 हड्डियों का होना बताया था. चरक का विश्वास था की ह्रदय शरीर का नियन्त्रण केंद्र है. चरक ने शरीर रचना और भिन्न अंगो का अध्ययन किया था. उनका कहना था की ह्रदय पूरे शरीर के 13 मुख्य धमनियों से जुड़ा हुआ है. इसके अतिरिक्त सैकड़ो छोटी – बड़ी धमनियां है जो सारे ऊतको को भोजन रस पहुंचती है और मल व व्यर्थ पदार्थ बाहर ले आती है. इन धमनियों में किसी प्रकार का विकार आ जाने से व्यक्ति बीमार हो जाता है.

प्राचीन चिकित्सक आत्रेय के निर्देशन में अग्निवेश ने एक वृहत संहिता ईसा से 800 वर्ष पूर्व लिखी थी. इस वृहत संहिता को चरक ने संशोधित किया था जो चरक संहिता के नाम से प्रसिद्ध हुई. इस पुस्तक का कई भाषाओ में अनुवाद हुआ है. आज भी चरक संहिता की उपलब्धि इस बात का स्पष्ट प्रमाण है की ये अपने – अपने विषय के सर्वोतम ग्रन्थ है.

ऐसे ही प्राचीन चिकित्सको की खोज रुपी नीव पर आज का चिकित्सा विज्ञान सुदृढ़ रूप से खड़ा है. इस संहिता ने नवीन चिकित्सा विज्ञान को कई क्षेत्रो में उल्लेखनीय मार्गदर्शन दिया है.

सूचना साभार – https://www.nayichetana.com/

Post By Religion World