जीवन की गुणवत्ता बनाती है परिस्थितियों की गुणवत्ता
भारत की अविच्छिन्न संत–परम्परा में परम पूज्य महर्षि महेश योगी जी का एक अद्वितीय स्थान है। महर्षि जी एक व्यावहारिक संत रहे हैं और ‘आज’ और ‘आप’ को बुनियादी महत्व देते हैं। ‘आज’ अर्थात् वर्तमान हमें प्रभु का उपहार है। ‘आप’ अपने जीवन में आई किसी भी स्थिति से अधिक महत्वपूर्ण हैं। अतः इस आज और आप का सम्पूर्ण सदुपयोग होना चाहिये। हमारा उत्तरदायित्व तो सीमित है लेकिन परमात्मा की कृपा असीम है। यह अनुभव ही हमारा शिक्षक और मार्गदर्शक होना चाहिये। एक दिव्य उपस्थिति का अनुभव हमारे अस्तित्व का अविच्छिन्न किंतु मूल अवयव हैः
चलूं तो ऐसा लगे कोई मेरे साथ चले।
रूकूं तो कांधे पे जैसे किसी का हाथ लगे।।
आकर्षण के लिये विकर्षण आवश्यक है। काम के लिये आराम आवश्यक है। अपना सर्वोत्तम संसाधन हम स्वयं ही हैं, काम करें तो पूरी निष्ठा से करें या फिर न करें। चाहे हमारे पास सारे उत्तर भले ही न हों लेकिन क्या हमारे पास सही प्रश्न हैं? क्या हम अपने वातावरण, पर्यावरण, अपने समय और अपनी स्थिति–परिस्थिति को जानते हैं? इनका पूरा–पूरा उपयोग करने के पहले इन्हें जानना आवश्यक है। ये परिस्थितियां आखिर कैसे बनतीं हैं? ये तो हमारी स्थिति के अनुरूप अलग–अलग होती हैं– घर में अलग तो कार्यालय में अलग। कुछ हम जानबूझकर सप्रयास बनाते हैं और कुछ अनजाने में अप्रयास बन जाती हैं। मित्र तो सप्रयास बनाते हैं किंतु शत्रु कभी–कभीअनायासबनजातेहैं।
इस बिन्दु पर गहराई से विचार करने पर स्पष्ट हो जाता है कि परिस्थितियों का अनायास निर्माण कर्म–सिद्धांत के अनुरूप है। हमारे वर्तमान अभिप्राय और प्रयास के स्त्रोत हमारे अतीतकालीन प्रभाव में होते हैं। चूंकि वर्तमान अभिप्राय अतीत मूलक हैं अतः हमारी परिस्थितियां अतीत और वर्तमान से मिलकर बनती हैं। हो सकता है कि लोगों से हमारे संबंध खराब हों। वे, हमारे विषय में अच्छा न बोलते हों। हो सकता है कि हमने किसी का कुछ भी न बिगाड़ा हो किंतु फिर भी हमारे विषय में गलतफहमियां हों तो इसे लेकर क्या स्पष्टीकरण देंगे? दुनिया जैसी है उसे वैसे ही लेना होता है, बुरे–भले का दायित्व हमारा स्वयं का है। इसलिये हमारे सुख–दुःख के लिये हमारी परिस्थितियों से कहीं अधिक हम ही उत्तरदायी हैं क्योंकि अंततः हम ही इनके निर्माता हैं।
अब फिर हम क्या करें? घर बनाते समय उद्यान लगाया तो उसकी शीतल हरीतिमा से प्रसन्न रहें।यदि उद्यान नहीं लगा तो उसके अभाव का दुःख भूलकर कमरों की ऊष्मा से आनंद लें।यही एक उपाय है अपनी परिस्थितियों के सर्वोत्तम उपयोग का।
स्वनिर्मित परिस्थितियों को स्वभावतः हम अपनी इच्छापूर्ति में सहायक मानते हैं। परिस्थितियों से लेने की यह तकनीक देने की मनोवृत्ति में है, प्रकृति का नियम है कि लेना है तो देना होगा। जो बोते हैं वही काटते हैं। उत्पादन से उपभोग होता है, माता–पिता अपनी संतान को सुरक्षा और स्नेह देते हैं और उसके बदले संतान के सुख से सुखी होते हैं। प्रेम से प्रेम और घृणा से घृणा मिलती है। एक बालक से भी प्रेम या कड़ाई के व्यवहार की प्रतिक्रिया अलग–अलग होती है। यही है कार्य–कारण या क्रिया–प्रतिक्रिया का सिद्धांत।यदि किसी के प्रति हमारे कर्म की सीधी प्रतिक्रिया नहीं होती है तो भी अप्रत्यक्ष प्राकृतिक प्रतिक्रिया पक्की समझिये।
अतः हम अपनी परिस्थितियों से जो प्रतिक्रिया स्वयं के लिये चाहते हैं हमें उनके प्रति भी वही क्रिया करना चाहिए।परिस्थिति के सर्वोत्तम उपयोग का एक ही सूत्र है कि हम अपने लिये जो चाहते हैं उसके लिये भी वही करें।
प्रकृति के नियमों को झुठलाया नहीं जा सकता। यदि कोई व्यक्ति हमसे ईर्ष्या करता है तो या तो हमने उससे ईर्ष्या की होगी या फिर किसी और से। अपना हृदय टटोलें तो सभी पता चल जायेगा। हमारी परिस्थितियां हमारे कर्मों का ही परिणाम हैं– वर्तमान के नहीं तो अतीत के। अतः यह आवश्यक है कि हम अच्छा सोचें, अच्छा करें। अंतरात्मा से शुद्ध रहें। उत्तम ऊर्जा स्थानांतरित होगी। हमारा वातावरण और अच्छा हो जायेगा। जब हम किसी बुराई का प्रतिकार उसी प्रकार करते हैं तो हम उसी बुरे निचले स्तर पर आ जाते हैं। बाहर का शिष्टाचार तो ठीक है किन्तु आंतरिक सद्व्यवहार हमारी परिस्थितियां बनाता है। इसके पश्चात यदि कुछ बुरा होता है तो उसके पूर्व जन्म के कर्मों का परिणाम या भगवान का प्रसाद समझकर ग्रहण करें। हममें कमियां हो सकतीं हैं। प्रत्येक मनुष्य में होती हैं। लेकिन यदि दाल में नमक के बराबर या सिन्धु में बिन्दु की भांति हो तो चलेगा। सहनशक्ति, प्रेम, मन की पवित्रता, क्षमा और निष्ठा ऐसे मूलाधार हैं जो हमें अपनी परिस्थितियों से आनंद प्राप्त करने में समर्थ बनाते हैं।यह जीवन में देने का मूल सिद्धांत है।वस्तु जगत और भाव जगत में एक तुरीय चेतना का निवेश हो जाता है जो हमें हमारे मूल अर्थात्जीवन सत्ता से जोड़ देती है।
सहनशक्ति, प्रेम, मन की पवित्रता, क्षमा और निष्ठा ऐसे मूलाधार हैं जो हमें अपनी परिस्थितियों से आनंद प्राप्त करने में समर्थ बनाते हैं।
परिस्थितियां दो प्रकार की होती हैं – जड़ और चेतन, सजीव और निर्जीव। कहते हैं कि ब्रह्माण्ड में कुछ भी निर्जीव नहीं है। भौतिक विज्ञान तो यही बताता है। सब में कम्पन्न, संवेदना और गति है, सबके भीतर ऊर्जा है। फिर भी सापेक्ष अस्तित्व के क्षेत्र में हम जड़ तथा चेतन का भेद करते हैं। घर को जड़ मानते हैं। गौ को चेतन परन्तु दोनों सर्वोत्तम उपयोग के लिये परस्पर महत्व का सिद्धांत ही फलप्रद है। अतः यदि हम परिस्थितियों का सदुपयोग करना चाहते हैं तो हमें भी उनके प्रसंग में सदुपयोगी होना पड़ेगा। घर और बगीचा दोनों जड़ हैं। लेकिन उन्हें सजाने, उनकी देखभाल करने और सामयिक रख–रखाव से वे भी हमारे आनंद के स्त्रोत हो जाते हैं। एक बीज कई गुनी उपज देता है। यही बात हमारे व्यवहार के साथ भी है। एक अन्य संदर्भ में विचार करें तो वहां भी दो प्रकार की परिस्थितियां हैं– समीपस्थ और दूरस्थ। समीपस्थ हमारी वाचा–कर्मणा का परिणाम है। यह हमारे व्यवहार से प्रभावित होती है। फूल तोड़ कर पानी में रखें तो कुछ समय चलेगा। यूं ही छोड़ेगें तो मुरझा जायेगा। लेकिन दूरस्थ परिस्थितियां हमारी भावनाओं और विचारों से प्रभावित होती हैं। हम ध्यान से समझें तो सात समुद्र पार हमारे दूरस्थ मित्र या संबंधी के हृदय या मस्तिष्क की भावना हमारे हृदय और मस्तिष्क की भावनाओं के अनुरूप ही होगी। विचारों की तरंगे वचन और कर्म की तरंगों से कहीं अधिक शक्तिशाली होती हैं। यद्यपि विचार, वचन और कर्म अर्थात मनसा–वाचा–कर्मणा से उत्पन्न तरंगे वातावरण में रहती हैं किंतु विचार–तरंग बहुत गहरी जाती है। यही कारण है कि हम जैसा सोचते हैं हमें वैसा ही मिलता है, हमने समझा है कि विचार और कर्म, ब्रह्माण्ड को कैसे प्रभावित करते हैं और हमारे व्यक्तिगत विचार और कर्म पर वैसी ही ब्रह्माण्डीय प्रतिक्रिया होती है। हमारे वातावरण की गुणवत्ता हमारे जीवन की गुणवत्ता के अनुसार ही होती है, यदि हम लेने के पहले देने के सिद्धांत से निर्देशित हैं तो परिणाम उसी अनुपात में होते हैं। हम जो देते हैं उसे हमारी परिस्थितियां विभिन्न रूपों में हमें लौटाती हैं। कुछ लोग कहते है कि मनुष्य परिस्थितियों का दास है किंतु यथार्थतः परिस्थितियों का स्थायी होना हमारे स्वयं के वश में है। इसलिये भावातीत ध्यान आवश्यक है क्योंकि वह हमारी अंतररात्मा और जीवनसत्ता से हमें जोड़ता है। हमें वह सब अनुभव होने लगता है जो एकाग्रता तथा आत्मानुशीलन के अभाव में अनुभव नहीं हो पाता था। हमें एक ऐसी आनंद–चेतना की प्राप्ति होने लगती है जो जीवन के प्रति समग्र दृष्टिकोण के परिणामस्वरूप परिस्थितियों की अनुकूल प्रतिक्रिया सुनिश्चित कर देती है, समग्र चैतन्य व्यक्ति में ब्रह्माण्डीय चेतना का प्रवेश हो जाता है। तब हम मन व मस्तिष्क से जीवनसत्ता के स्तर पर आ जाते हैं, यही वह स्तर है जिससे नैसर्गिक नियम सभी प्रकार के विकास को स्वयं पोषित बना देते हैं।
हम जैसा सोचते हैं हमें वैसा ही मिलता है, हमने समझा है कि विचार और कर्म, ब्रह्माण्ड को कैसे प्रभावित करते हैं और हमारे व्यक्तिगत विचार और कर्म पर वैसी ही ब्रह्माण्डीय प्रतिक्रिया होती है।
ब्रह्मचैतन्य व्यक्ति मनसा–वाचा–कर्मणा ब्रह्म–निर्देशित होता है। वह व्यक्ति होते हुये भी भगवान का यंत्र बन जाता है। ऐसे प्राणी की परिस्थितियां स्वयंमेव अनुकूल रहती हैं। हम बलपूर्वक अर्थात पुरूषार्थ मात्र से केवल आंशिक और अस्थायी सफलता ही पा सकते हैं। चक्रवर्ती सम्राट भी अपनी परिस्थितियों और अंतरनिहित संभावनाओं का सम्पूर्ण उपयोग शायद ही कर पाये हों। इसके लिये प्रकृति से तालमेल बैठाना होता है। चेतना का स्तर बढ़ता है। फिर हम भावातीत–तुरीय चेतना तक पहुंच जाते हैं। इस मानसिक और आध्यात्मिक स्तर को प्राप्त करने के लिये ही भावातीत ध्यान पद्धति का सहारा लेना होता है। उसके द्वारा हम शनैः शनैः अपने भीतर उतर कर उन अथाह गहराइयों का स्पर्श करने लगते हैं जो आत्म–साक्षात्कार का एक मात्र माध्यम है। वर्तमान मनोविज्ञान हमें मानवीय संबंधों और अंतरक्रियाओं के अनेक पाठ पढ़ाता है लेकिन मात्र भौतिक सुझाव हमें हमारी परिस्थितियों का सदुपयोग नहीं सिखा सकते है। उनमें केवल लेना ही लेना है। जबकि हमें प्रकृति के अनुकूल बनकर और स्वयं का परिचय प्राप्त करके देना भी सीखना है। हृदय और मस्तिष्क की गुणवत्ता के सहारे निष्ठावान होने से सब कुछ मिल जाता है। जब कोई त्रासदी होती है तो सुझाव या संवेदना काम नहीं करते। मन में उथल–पुथल रहती है। लेकिन भावातीत ध्यान मन को स्थिर करके शांति देता है जो परिस्थितियों को अनुकूल बनाने में निर्णायक योगदान देती है।
ब्रह्मचारी गिरीश
कुलाधिपति, महर्षि महेश योगी वैदिक विश्वविद्यालय, मध्य प्रदेश एवं
महानिदेषक–महर्षि विश्व शान्ति की वैश्विक राजधानी,
भारत का ब्रह्मस्थान, म.प्र.