कोरोना महामारी : प्रकृति का प्रकोप और मानवता को दंड
ॐ शांति शांति शान्तिः
हम सब सदैव तीन शांति सुना करते हैं । ये तीन शांति आध्यात्मिक, आदिदैविक और आदिभौतिक शांति हैं ।
आदिभौतिक शांति तो सभी समझते हैं। ऐसा प्रतीत होता है कि भौतिक पदार्थों की प्राप्ति, भौतिक जीवन की समस्त उपलब्धियों के लिए ही आज मानव जीवित है। इस एक प्राप्ति के सिवाय उसे कुछ सूझता ही नहीं है। जीवन की सारी मारामारी बस इसीलिये है। प्रातःकाल से शयन के समय और शयनावस्था में भी स्वप्न की चेतना में व्यक्ति केवल भौतिक प्राप्तियों के लिए ही संघर्षरत रहता है, किन्तु कभी उसे पूर्ण संतुष्टि प्राप्त नहीं होती।
पारिवारिक पृष्ठभूमि से संस्कारवान अथवा गुरुजनों की सतसंगत और मार्गदर्शन में कुछ समझदार व्यक्ति जीवन में आधिदैविक शांति का महत्व समझकर और तकनीक प्राप्त करके देवताओं की आराधना में कुछ समय लगाना सीख लेते हैं, निश्चित रूप से उन्हें आधिदैविक शांति की प्राप्ति तो होती है। शायद 90 या 95 प्रतिशत व्यक्ति ऐसे होते हैं जिन्हें आध्यात्मिक शांति की प्राप्ति आजीवन नहीं हो पाती और वे अपना जीवनकाल बिना इस मूल शांति के ही व्यतीत करके दुनिया से बिदा हो जाते हैं।
ये एक विडम्बना ही है कि सबसे मौलिक, सबसे सरलतापूर्वक प्राप्त होनी वाली सबसे प्रभावशाली सबसे लाभप्रद शांति की ओर किसी का ध्यान ही नहीं है। जैसा की नाम से ही विदित है यह आत्मशांति है। यदि आत्मा शांति में है, आनंद में है, सुखपूर्वक है, चिंतारहित है, स्वस्थ है, तो जीवन की अधिकतम समसयाओं का निवारण तो हो ही जायेगा। आत्मा का अध्ययन, आत्मा का ही श्रवण, आत्मा का चिंतन, आत्मा का मनन, आत्मा के क्षेत्र में ही विचरण, आत्मा में ही स्थित होकर रहना, वहीँ से सभी कार्यों का संपादन करना, स्थितप्रज्ञ हो जाना, योगस्थ हो जाना, बस यही तो अध्यात्म है।
उपनिषद का आदेश “आत्मावारे द्रष्टव्यः श्रोतव्यः मन्तव्यः निधिध्यासितव्याः” और गीता में भगवान श्रीकृष्ण का आदेश “योगस्थः कुरुकर्माणि” यदि स्मृति में होता, तो आज भारतवासिओं की यह दुर्गति नहीं होती। भारतीय पाश्चात्य जगत के छलावे में – मृगतृष्णा में यूँ न भटकते। अपने भारतीय शाश्वत ज्ञान और भूतल पर स्वर्ग जैसी जीवनचर्या को विस्मृत करने का दंड न भुगतते ।
वेद विज्ञान के परम ज्ञाता, वेदांतरूप चेतनाविज्ञान के श्रेष्ठतम वैज्ञानिक परम पूज्य महर्षि महेश योगी जी ने सम्पूर्ण विश्व को आध्यात्म विद्या की सरलतम, स्वाभाविक, प्राकृतिक, प्रयासरहित तकनीक उपहार में दी, जो कि सम्पूर्ण भूमण्डल में “भावातीत ध्यान” के नाम से विख्यात हुई। विश्व के 100 से अधिक देशों के सभी धर्मों, आस्था, विश्वास, वर्ग के करोड़ों नागरिकों ने भावातीत ध्यान की इस तकनीक के अभ्यास द्वारा अध्यात्म विद्या का लाभ लिया। अब तक 35 देशों के 235 अनुसन्धान केंद्रों, विश्वविद्यालयों में 700 से भी अधिक शोध महर्षि जी की इस तकनीक पर हो चुके हैं और जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में अनेकानेक मानसिक, शरीरिक और सामाजिक लाभ प्राप्त कर चुके हैं।आध्यात्मिक शांति की प्राप्ति के लिए भावातीत ध्यान से उत्तम और कोई मार्ग अभी तक न दृष्टिगत है और शायद न कभी होगा।
वर्तमान में विश्व के 126 देशों की मानवता कोविड-19 नामक रक्तबीज वायरस के आतंक एवं भय से त्रस्त है। प्रभावितों की संख्या लाखों में और मृतकों की संख्या दसियों हजार को पार कर चुकी है। आगे इसका कितना प्रसार होगा और कब इसका समूल नाश होगा, यह किसी को ज्ञात नहीं है। बड़े-बड़े वैज्ञानिक, विश्व के सर्वोच्च शक्तिशाली कहलाने वाले राष्ट्र और विनाशलीला का दम भरने वाले बउनके राष्ट्राध्यक्ष बभयग्रस्त होकर छिपे बैठे हैं। प्रकृति ने उनके अहंकार को चकनाचूर कर दिया है। क्या किसी ने विचार किया कि प्रकृति मानवता को समय समय पर इस तरह का सामूहिक दंड क्यों देती है?
कारण बहुत स्पष्ट व सरल है। हम जब किसी भी राष्ट्रीय कानून का उल्लंघन करते हैं तो देश का कानून हमें दंड देता है। एक व्यक्ति के अपराध का दंड एक व्यक्ति को मिलता है, लेकिन जब अनेक व्यक्ति मिलकर एक अपराध करते हैं अपराध और अधिक गंभीर माना जाता है और दंड भी अधिक और कड़ा दिया जाता है। ठीक इसी प्रकार जब कोई व्यक्ति प्रकृति के नियमों का उल्लंघन करता है तो प्रकृति उसे दण्डित करती है, लेकिन जब विश्व के नागरिक बड़ी संख्या में प्रकृति के विधानों का उल्लंघन करते हैं, प्रकृति के विरुद्ध अपराध करते हैं, तो प्रकृति रुष्ट होकर सामूहिक दंड देती है। यह दंड किसी भी रूप में हो सकता है; सूखा, तूफ़ान, अतिवृष्टि, बादलों का फटना, बड़ा अग्निकांड, भूकंप, जलयानों का डूब जाना या वायुयानों का दुर्घटनाग्रस्त हो जाना, महामारी का फैलना इत्यादि।
आखिर मनुष्य प्रकृति के नियमों का उल्लंघन या प्रकृति के विधानों के विरुद्ध अपराध क्यूँ करता है? इसका बड़ा सरल कारण है, और वह है उसके अंदर का तनाव, उसकी थकावट, उसकी चिंताएं, जिनका समाधान वह नहीं ढूंढ़ पाता और अपनी इक्षाओं की पूर्ती के दबाव में आकर राष्ट्रिय व प्रकृति के नियमों के विरुद्ध अपराध करने लगता है। आज त्वरित आवश्यकता है कि बड़ी संख्या में विश्व के नागरिक जिन्होंने महर्षि जी प्रणीत भावातीत ध्यान एवं इसके अग्रिम कार्यक्रमों, सिद्धि कार्यक्रमों को सीखा है, वे नित्य प्रातः संध्या, और यदि हो सके तो मध्यान में भी एक बार में कम से कम एक से डेढ़ घंटे तक भावातीत ध्यान व् इन कार्यक्रमों का अभ्यास करें, अपनी चेतना, अपनी आत्मा सागर में डुबकी लगाकर अपने आसपास, अपने राष्ट्र एवं अपने विश्व की सामूहिक चेतना में सतोगुण की अभिवृद्धि करें, जिससे प्रकृति में सतोगुण, रजोगुण व तमोगुण में साम्य स्थापित हो और विश्व परिवार प्रकृति के इस क्रोध से, इस भयावह महामारी से मुक्त हो।
प्रकृति ने विश्व को एकांत में रहकर एकात्म के अनुभव का पाठ पढ़ाया है। जिन व्यक्तियों ने अभी भावातीत ध्यान न सीखा हो, उनसे अनुरोध है की शीघ्र ही सीखकर नित्य इसका अभ्यास सपरिवार करें और इसका लाभ प्राप्त करें। प्रांतीय व राष्ट्रीय प्रशासन को भी चाहिए कि प्रकृति के प्रकोप से बचाने वाली इस तकनीक को विद्यालय व विश्वविद्यालयीन पाठ्य्रक्रमों में सम्मिलत करके सतोगुणी चेतनावान नागरिकों का निर्माण करें जो राष्ट्रीय व प्रकृति के विधानों का उन्लंघन कभी न करें और न ही इस तरह की प्राकृतिक आपदा कभी राष्ट्र पर आये।
- ब्रह्मचारी गिरीश