नवरात्र द्वितीय दिवस – प्रथम प्रश्न – किं तत् ब्रम्ह? , उत्तर – “अक्षरं ब्रम्ह परमं” (गीता 8/1 , 8/3)
किं तत् ब्रम्ह? “अक्षरं ब्रम्ह परमं”
विषय – अक्षर ब्रम्ह योग । (8वां अध्याय – श्री कृष्ण द्वारा अर्जुन के पूछे सात प्रश्नों के उत्तर)
श्लोक–
“किं तद्ब्रह्म“ किमध्यात्मं किं पुरुषोत्तम ।
अधिभूतं च किं प्रोक्तमधिदैवं किमुच्यते ॥
भावार्थ–
अर्जुन ने कहा– हे पुरुषोत्तम! वह ब्रह्म क्या है? अध्यात्म क्या है? कर्म क्या है? अधिभूत नाम से क्या कहा गया है और अधिदैव किसको कहते हैं ॥1/1॥
श्लोक–
“अक्षरं ब्रह्म परमं“ स्वभावोऽध्यात्ममुच्यते ।
भूतभावोद्भवकरो विसर्गः कर्मसंज्ञितः॥
भावार्थ–
श्री भगवान ने कहा– परम अक्षर ‘ब्रह्म‘ है, अपना स्वरूप अर्थात जीवात्मा ‘अध्यात्म‘ नाम से कहा जाता है तथा भूतों के भाव को उत्पन्न करने वाला जो त्याग है, वह ‘कर्म‘ नाम से कहा गया है ॥8/3॥
- किं तत् ब्रम्ह? इसकी व्याख्या करेंगे ।
- किं तत चन्द्रः जैसे एक बच्चा पूछता है माँ से की वह चंद्र कैसा है । वैसे ही एक जिज्ञासा उठती है अर्जुन के मन में – किं तत् ब्रम्ह?
- गीता की यात्रा एक अनुभव यात्रा है । अनुभव यात्रा में पहला प्रश्न करता है कि अगर आपने मुझे शिष्य के रूप में स्वीकार किया है तो मुझे युद्ध में क्यों लगाया, फिर कर्म में लगाया, फिर भक्ति में लगाया, फिर ज्ञान में लगाया फिर लास्ट में अर्जुन कहते हैं कि अब मुझे समझ में आगया सबकुछ । पूरे 18 अध्याय लगते हैं समझने में । 18 वें अध्याय में गीता पूरी होती है । और गीता पूरी होने के साथ – साथ हमारे भारतीय वांग्मय का एक महत्वपूर्ण चैप्टर पूरा होता है कि किस तरह से नर से नारायण हम बन जाये यह गीता कहती है ।
- ओमकार विराट है जिसके रूप में सारा तत्व समया हुआ है ।
- गीत – ॐ नमः नमोमकार… ।
विद्यार्थियों द्वारा प्रश्नोत्तरी के सार –
- अगर हमारे जीवन का उद्देश्य परमात्मा में मिलना है तो फिर हमें जीवन क्यों मिला है? जबकि हम परमात्मा के ही अंश हैं । परमात्मा यह देखना चाहते हैं कि मेरा अंश किस तरह से संसार में काम कर रहा है । हम भगवान के अंश हैं तो परमात्मा जैसे काम कर रहे हैं या नहीं या राक्षस जैसे काम तो नहीं कर रहे हैं । यदि हम उनके अंश हैं तो क्या हम उनके जैसे उत्कृष्टता, श्रेष्ठता, आदर्श हमारे जीवन में आये कि नहीं । ऐसा कुछ काम करके दिखा सकते हैं कि नहीं, जिससे हम महान कहलाएं । हम सतोगुणी काम करते हैं या तमोगुणी काम करते है । ये देखने के लिए, परीक्षा लेने के लिए नर तन मिला है । नर तन नहीं मिलता तो पता ही नहीं चल पाता कि क्या करना है? सुर दुर्लभ मानुष तन पावा । मनुष्य तन को सुर दुर्लभ कहा गया है । देवताओं के लिए भी दुर्लभ है सिर्फ मनुष्य को ही मिला है यह तन क्यों क्योंकि इसी से तुम श्रेष्ठ काम कर सकते हो, अपने जन्मों को सुधार सकते हो ।
- संस्कृति और सिद्धांत में क्या अंतर है? – संस्कृति अर्थात जीवन जीने की शैली सही तरह से जीवन जीना, जीवन को कैसे जिया जाय । सिद्धांत मतलब जिनके आधार पर संस्कृति चलती है । सिद्धांत हीन जीवन हो तो फिर संस्कृति कुछ नहीं ।संस्कृति जो है काटना और छांटना जो भी हमारे कुसंस्कार हैं उन्हें । हमारे कु–संस्कार जंगली घास की तरह आते हैं । संस्कृति हमारे को संस्कारों को काटने छांटने का काम करती है और जीवन को अच्छे संस्कारों से बनाये रखती है । संस्कृति को जीवन में उतारा जाए इसके लिए सिद्धांत जरूरी है । बिना सिद्धांत के कोई जीवन नहीं है । इसलिए सिद्धांत जरूरी है । हमारे सिद्धांत क्या है स्वस्थ शरीर स्वच्छ मन और सभ्य समाज । परम पूज्य गुरुदेव ने जीवन के लिए यह सिद्धांत दिए । हम शरीर को भगवान का मंदिर समझ कर अपने आपको स्वस्थ बनाएं रखेंगे । सिद्धान्तों तक तो पहुँचना ही है और सिद्धांतो के उस पार पहुंचना संस्कृति कहलाती है ।
- गुरुदेव के चिंतन को समझ पाना आसान नहीं । गुरुदेव को बिना समझे जीवन में उतारना मुश्किल है । एक साहित्य लेलो पढ़ना शुरू करो धीरे–धीरे साहित्यों को पढ़कर समझ में आएगा । जीवन देवता की साधना अराधना किताब से ही शुरू कर लो पढ़ना यदि समझ में एक बार आ गया फिर इसके अलावा और कुछ पसंद नहीं आएगा ।
अगर किसी को देखकर Negativity आए तो क्या करें? – सबसे पहले तो मनुष्य होने के नाते किसी के प्रति Negativity नहीं आनी चाहिए । mood swings होते रहते हैं, किसी को देखने से negativity नहीं आनी चाहिए और यदि आती है तो उसे दूर करना चाहिए, negativity की जगह दया के दृष्टि से देखना चाहिए और वह इंसान यदि अच्छा भी लगता है तो उसमें अच्छे विचार डालने का प्रयत्न करना चाहिए । देखते – देखते बदलाव आने लगेगा ।
विषय वस्तु सार–
- नवरात्र द्वितीय दिवस – आज की देवी है ब्रम्ह्चारिणी ।
आज नवरात्र का दूसरा दिन दूसरे दिन की देवी ब्रम्हचारिणी । ब्रम्हचर्य से तपी हुई ब्रह्म का आचरण, ब्रम्ह की धारणा करती हैं । जिसका लक्ष्य है शिव, परमात्मा । प्रकृति के पार परमेश्वर की धारणा करती है । इसे निदिध्यासन भी कहा गया है । श्रवणं सतगुणं मननं सहस्त्रं निदिध्यासनम अनंतं निर्विकल्पम । निदिध्यासन का सहस्त्र गुना लाभ होता है । परमेश्वर में अपने को रमा देने का काम ब्रम्हचारिणी करती है ।
- सबसे पहला प्रश्न अर्जुन पूछते हैं किं तत् ब्रम्ह । शुरुआत यहीं से करते हैं क्योंकि जो प्रश्न सबसे पहले परेशान करते हैं शुरुआत वहीं से होती है ।
- किं तद्ब्रह्म किमध्यात्मं किं कर्म पुरुषोत्तम ।
अधिभूतं च किं प्रोक्तमधिदैवं किमुच्यते॥ (8/1)
भावार्थ : अर्जुन ने पूछा – हे पुरुषोत्तम! यह “ब्रह्म” क्या है? “अध्यात्म” क्या है? “कर्म” क्या है? “अधिभूत” किसे कहते हैं? और “अधिदैव” कौन कहलाते हैं? (8/1)
अधियज्ञः कथं कोऽत्र देहेऽस्मिन्मधुसूदन ।
प्रयाणकाले च कथं ज्ञेयोऽसि नियतात्मभिः ॥ (8/2)
भावार्थ : हे मधुसूदन! यहाँ “अधियज्ञ” कौन है? और वह इस शरीर में किस प्रकार स्थित रहता है? और शरीर के अन्त समय में आत्म–संयमी (योग–युक्त) मनुष्यों द्वारा आपको किस प्रकार जाना जाता हैं? (8/2)
- भगवान श्री कृष्ण तीसरे श्लोक में जवाब देते हैं परम अक्षर ब्रह्म है । इसकी व्याख्या हम करेंगे । उसके बाद अध्यात्म की चर्चा करेंगे । जीवात्मा अध्यात्म के नाम से कहा गया है । आपका स्वभाव अध्यात्म है स्वरूप अध्यात्म है ।
- किं तत् ब्रम्ह? –
- प्रश्न के कई तल होते हैं । पहला तल वह है जहां किसी भी प्रकार के कोई प्रश्न पैदा ही नहीं होते । सबसे भले विमूढ, जिनहिं न व्यापहिं जगत गति । ऐसे लोग जिनको जगत गति से कोई मतलब नहीं । जहां मूढ़ता होगी वहां प्रश्न पैदा ही नहीं होंगे । ये जीव चेतना जड़ता होती है ।
- दूसरा तल है कौतूहल का । जीव चेतना का दूसरा तल । जहां मन चंचल होता है । मन की चंचलता कौतूहल है । मन की कंपन अवस्था । Oscillated State of Mind.
- तीसरा मन है शंका का । तीसरा तल है प्रश्नों का – शंका । जहां doubts होते हैं, संशय होता है जिसकी वजह से बड़े–बड़े निश्चय और अनिश्चय की स्थिति आजाती है, ये करें कि नहीं करें ।
- चौथा प्रश्न का तल है वितंडावादी तर्क, जहां बेवजह तर्क होते हैं जहां व्यक्ति जवाब देने के बजाय उल्टा खुद ही प्रश्न कर बैठता है ।
- पांचवां तल है प्रश्न का वह है परीक्षा का । परीक्षा लेने के लिए प्रश्न किए जाते हैं ।
- छठवां आयाम है जिज्ञासा का, जहां जिज्ञासा वश प्रश्न उठते हैं । जो मन को मथती रहती है बार–बार । जिज्ञासा होनी चाहिए । हमारे मन में जिज्ञासा होती है और प्रश्न मन में कांटें की तरह चुभते रहता है और हम समाधान के लिए भटकते रहते हैं । महापुरुषों के पास जाते हैं तप करते है ।
- हमारेजीवनमेंहमभीप्रश्नोंकेसाथऐसेहीभटकतेरहतेहैं।
- जिज्ञासा जीवन को पार लगा देती है ।
- भगवान बुद्ध के अंदर की जिज्ञासा ने ही उन्हें भगवान बना दिया, बोध दिला दिया । सिर्फ तीन प्रश्नों ने कि ये व्यक्ति मरा तो क्यों मरा? बूढ़ा हुआ तो क्यों हुआ? और ये बीमार हुआ तो क्यों हुआ? बस ये तीन प्रश्न ने उनको भगवान बुद्ध बना दिया । जिज्ञासा का समाधान मिला बोधि रूप में, बुद्धत्व को प्राप्त हुए ।
- इसके बाद सातवाँ तल ऐसा गहरा होता है जहां प्रकाश ही प्रकाश विद्यमान होता है जहां प्रश्न होता है वहीं उत्तर अपने आप आ जाते हैं ।
- स्वामी विवेकानंद जी की दो शिष्याएं थीं – एक निवेदिता और दूसरी सिस्टर क्रिस्टीना (बाद में जिसका नाम स्वामी विवेकानंद ने कृष्ण प्रिया दिया) । जब कभी भी स्वामी विवेकानंद जी कुछ भी बताते थे कहते थे तो निवेदिता के मन में बहुत प्रश्न होता था, वह बहुत प्रश्न करती थी और सिस्टर क्रिस्टीना सुनती थीं बस । कोई सवाल नहीं पूछती थी । एक दिन स्वामी जी ने उससे पूछा कि क्या तुम्हारे मन में कोई प्रश्न नहीं होते तो सिस्टर क्रिस्टीना ने जवाब ने कहा – Questions arise in my heart but melt away before your radiance.
- (प्रश्न मेरे हृदय में उठते हैं पर पिघल जाते हैं आपके औरा में, आभामण्डल में मुझे जवाब मिल जाता है । तो प्रश्न का ये जो सातवां ताल है इसमें उत्तर स्वतः प्रकाशित हो जाता है । ऐसे कई शिष्य हुए जिनको प्रश्न आया और तुरंत के तुरंत जवाब मिल गया । गुरु शिष्य के बीच में सम्यक वाद संवाद का कारण बनता है । सम्यक मतलब ठीक–ठीक । जो एक की भाव चेतना को दूसरे के भाव चेतना के साथ जोड़ता है ।
- तो छठवां जो तल है वह है जिज्ञासा इसके बारे में सातवें अध्याय में भगवान ने बताया है ।
- भगवान श्री कृष्ण गीता के अध्याय 7वें अध्याय के श्लोक 16 में चार प्रकार के भक्तों के बारे में कहते हैं जिसमें से एक जिज्ञासु है –
श्लोक–
चतुर्विधा भजन्ते मां जनाः सुकृतिनोऽर्जुन ।
आर्तो जिज्ञासुरर्थार्थी ज्ञानी च भरतर्षभ॥
भावार्थ–
हे भरतवंशियों में श्रेष्ठ अर्जुन! उत्तम कर्म करने वाले अर्थार्थी (सांसारिक पदार्थों के लिए भजने वाला), आर्त (संकटनिवारण के लिए भजने वाला) जिज्ञासु (मेरे को यथार्थ रूप से जानने की इच्छा से भजने वाला) और ज्ञानी– ऐसे चार प्रकार के भक्तजन मुझको भजते हैं ॥7/16॥
- अर्थार्थी जो अर्थ के भाव से भजते हैं पुकारते हैं । आर्त जो करुण भाव के साथ भजते हैं । जिज्ञासु जो जिज्ञासा के भाव से भजते हैं और ज्ञानी जो ज्ञान के भाव से भजते हैं ।
- जिज्ञासु भी उसी category में है ज्ञानी बनने की स्थिति में । जिज्ञासु तेषां ज्ञानी नित्ययुक्त एकभक्तिर्विशिष्यते ।
- ज्ञानी भक्त तो मुझे बहुत पसंद है । परंतु सबसे विलक्षण जो है वह है जिज्ञासु ।
श्लोक–
तेषां ज्ञानी नित्ययुक्त एकभक्तिर्विशिष्यते ।
प्रियो हि ज्ञानिनोऽत्यर्थमहं स च मम प्रियः॥
भावार्थ–
उनमें नित्य मुझमें एकीभाव से स्थित अनन्य प्रेमभक्ति वाला ज्ञानी भक्त अति उत्तम है क्योंकि मुझको तत्व से जानने वाले ज्ञानी को मैं अत्यन्त प्रिय हूँ और वह ज्ञानी मुझे अत्यन्त प्रिय है ॥7/17॥
- जिज्ञासु और ज्ञानी बनना बड़ा मुश्किल है ।
- अर्जुन के अंदर प्रश्न का छठवां तल है जिज्ञासा का तल ।
- जिज्ञासा की वजह से ही अर्जुन प्रश्न करते हैं कि ब्रह्म क्या है? किं तत् ब्रम्ह । बड़ा मौलिक और बड़ा मार्मिक प्रश्न है । गंभीर प्रश्न है । छोटा है लेकिन इस नन्हे बीज के अंदर एक बहुत बड़ा वट वृक्ष छिपा है । जैसे बरगद का बीज छोटा सा होता है परंतु इसका विस्तार होता है तो बहुत बड़ा बन जाता है ।
- बड़ी मुश्किल से जिज्ञासा पैदा होती है । अर्जुन के मन में यह जिज्ञासा 7 अध्याय सुनने के बाद आयी । जिज्ञासा बड़ी असाधारण है । असाधारण क्यों है? – क्योंकि सामान्य जीवन क्रम में, व्यवहार की जटिलताओं में, अपनी आसक्ति में, अहंकार में, अपने स्वभाव की वैचारिक विचित्रताओं में इन सब बारे में सोचते नहीं कभी, ऐसे प्रश्न उठते ही नहीं कभी ।
- हमारे जीवन के आस–पड़ोस में देखें हम क्या समस्या है तो सामान्य रुप से वह भौतिक दृष्टि से घिरे होते हैं । रहने की समस्या, खाने–पीने की समस्या,पहनने–ओढ़ने की समस्या– ये प्रश्न है आज जीवन के । हमारे देह और इसके आसपास जो जीवन लिपटा हुआ है बस वही समस्या जान पड़ता है । हमारे सवाल उसी परिवेश से उठते हैं । प्रश्न सामान्य परिवेश से संबंधित होते हैं । लेकिन ये प्रश्न किसी के मन में नहीं किं तत् ब्रम्ह? ये प्रश्न अर्जुन के मन में है ।
- ये प्रश्न उठा क्यों?-क्योकिं अर्जुन की पात्रता बहुत ऊँची थी । वो जिज्ञासु है और उस तल से प्रश्न पूछा है उसने । अर्जुन की जिज्ञासा प्रबल है तभी प्रश्न आया कि वह ब्रम्ह क्या है?
- जब आदमी के मन से मोह हल्का हो जाए और मानसिक चेतना व्यापक हो जाये तो व्यापकता के तल पर ये प्रश्न हो सकता है ।
- पहले के जमाने में व्यापकता एक दार्शनिक प्रश्न थी । एक दार्शनिक विचार था और आज ये एक वैज्ञानिक विचार भी है । Biodiversity-जैविक व्यापकता । हमें सबके बारे में सोचना चाहिए । सबका साथ – सबका विकास । जीव–जंतुओं के साथ–साथ सारे वनस्पतियों का विकास । आज पर्यावरण ने हम सबको एक कर दिया है । हमको और Eco System को एक कार दिया है पर्यावरण ने ।
- तो ब्रम्ह का बड़ा लौकिक और वैज्ञानिक रूप है ।
- भगवान श्री कृष्ण कहते हैं–
मत्तः परतरं नान्यत्किञ्चिदस्ति धनञ्जय ।
“मयि सर्वमिदं प्रोतं सूत्रे मणिगणा इव“॥
भावार्थ–
हे धनंजय! मुझसे भिन्न दूसरा कोई भी परम कारण नहीं है । यह सम्पूर्ण जगत सूत्र में सूत्र के मणियों के सदृश मुझमें गुँथा हुआ है ॥7/7॥
मुझमें सब ऐसे गुथे हैं जैसी धागों में मणियाँ ।
- धागा भगवान हैं । और उसके मनखे हम लोग हैं । कृष्ण कहते हैं मैं ही हूँ सब जगह ।
- भगवान अपनी वास्तविकता बात रहे हैं कि मैं ही हूँ सब जगह । मेरी चेतना है इसलिए तुम्हें प्राण है । मणियों और धागे में जो संबंध है वैसा ही संबंध मेरा सबसे है ।
- हम अलग–अलग नहीं हैं । हम साथ–साथ हैं । अगर वृक्ष वनस्पति है तो हम है, अगर हम है तो वृक्ष–वनस्पति है । हम हैं तो पर्यवारण है और पर्यावरण है तो हम हैं । हमारा संबंध सबसे है । जमीन का संबंध, आसमान का संबंध, सूर्य का संबंध, चंद्रमा का संबंध, जाड़े के संबंध, गर्मी का संबंध, वर्षा का संबंध आदि । ये संबंध हमारे नियमित रूप से है । केवल हमारा संबंध घर से नहीं है हमारा संबंध सबसे है । निहारिकाओं से, ग्रह–नक्षत्रों से सबसे है हमारा संबंध । हमारा संबंध परिवेश से है, पर्यावरण से है ।
- परिवेश से पर्यावरण बना हमें अपने आसपास के परिवेश को देख लेना चाहिए । किस प्रकार का परिवेश है, वातावरण है, पर्यावरण है ।
- वात + आवरण – वातावरण ।
परि + वेश – परिवेश
परि + आवरण – पर्यावरण ।
- घर कैसा है, धूप आती है या नहीं, वातावरण कैसा है, माहौल कैसा है आदि । घरों के Vibrations से पता चल जाता है माहौल कैसा होगा । संयोग से किसी घर में यदि positivity मिलती है तो समझना सब हंसते मुस्कुराते रहते हैं वहां ।
- हमारे आसपास के सूक्ष्म वातावरण का प्रभाव होता हैं शरीर पर भी और मन पर भी ।
- मनुष्य अपने वातावरण का निर्माता आप हैं ।
- ब्रम्ह बड़ा दार्शनिक बिंदु है ब्रम्ह में सब कुछ आ जाते हैं । आकाश, चंद्र, सूरज, धरती, नदी, झील, झरने, पहाड़ आदि सबकुछ ब्रम्ह से आयीं हैं ।
- ब्रम्ह जीवन का मूल आधार है । जीवन की मौलिकता है, मूल स्रोत है ।
- एक पश्चिमी दार्शनिक है जिन्होंने अपनी पुस्तक में लिखा है दर्शन का प्रारंभ आश्चर्य पूर्ण जिज्ञासा से होता है । Let Us Ask.
- और जब यही व्यष्टि के बारे में होती है तो प्रश्न होता है कि यह संसार कहां से आया है?
प्रश्न का छठा तल चाहिए ब्रम्ह के प्रश्न के लिए । अगर जिज्ञासा से हमें कोई सद्गुरु मिल जाये तब हम निर्धारित कर पाएंगे कि हमें कहाँ तक जाना है जीवन में?
- जिज्ञासा के लिए इंसान को कुछ कुछ करना पड़े तो करना चाहिए । हमें जीवन में उपासना, साधना करते रहना चाहिए ताकि एक जिज्ञासा उठे जिज्ञासा बनी रहे ।
- अर्जुन की जिज्ञासा युद्ध भूमि में उठी ये बहुत बड़ी बात है । अर्जुन साधक है, के तपस्या की उसने, साधना की, कई गायत्री महापुरश्चरण भी किये इसलिए अर्जुन की मनः स्थिति बड़ी विलक्षण हैं । युद्ध भूमि में साथ में भगवान का सानिध्य है ।
- युद्ध भूमि में भय का संचार हो सकता है परंतु जिज्ञासा का संचार नहीं हो सकता पर उस क्षेत्र में जिज्ञासा का संचार होना साहस का संचार होना असाधारण है । युद्धभूमि में मोह का संचार हो सकता है पर जिज्ञासा का संचार वह भी समष्टि के बारे में । जंगल में बैठे तपस्वी ऋषि के मन में ये जिज्ञासा आये समझ में आता है परंतु युद्धभूमि में ऐसी जिज्ञासा । योद्धा के मन में बात उठ रही है । उस योद्धा में शक्ति और शौर्य के अलावा और भी कुछ है । उसके पास शस्त्र हैं, शास्त्र हैं । उसके पास विचार है ।
- श्री कृष्ण और अर्जुन दोनो एक अच्छे संगीतजज्ञ भी है, दोनों अच्छे विचारक भी हैं । युद्ध भी करते हैं, श्री कृष्ण ने अर्जुन को तलवार चलना भी सिखाया । द्रोणाचार्य जी ने युद्ध कला के मामले कई विद्याएं सिखाई, धनुष चलना सिखाया । ऐसे बहुत कम योद्धा होते हैं जिनमें ऐसा संयोग होता है । भगवान शिव भी ऐसे हैं । नृत्य, युद्ध, संगीत, शास्त्र चर्चा का संयोग भगवान शिव । भगवान शिव आदि गुरु हैं । भगवान कृष्ण बाँसुरी भी अछि बजाते हैं और चक्र भी चलाते हैं, शास्त्र–संगीत में निपुण है ।
- इसी प्रकार हनुमान जी में भी ऐसा संयोग देखने को मिलता है युद्ध के साथ–साथ संगीत, नाट्य, साहित्य में भी महावीर पराक्रमी थे ।
- हनुमान जी, कृष्ण जी और शिव जी ऐसे तीन उदाहरण हैं ।
- लेकिन भीम की बात करें तो ऐसे नहीं उन्हे युद्ध के साथ खाने का ख्याल आता है ।
- इतिहास में उदयन की कहानी आती है । उदयन ऐसा योद्धा था जिसकी तुलना अर्जुन से की जा सकती है । अर्जुन बड़े विचारशील योद्धा थे ।
- युद्ध क्षेत्र में प्रश्न किं तत् ब्रम्ह?
भगवान श्री कृष्ण गीता में कहते हैं
श्लोक–
जातस्त हि ध्रुवो मृत्युर्ध्रुवं जन्म मृतस्य च ।
तस्मादपरिहार्येऽर्थे न त्वं शोचितुमर्हसि॥(2/27)
भावार्थ–
क्योंकि इस मान्यता के अनुसार जन्मे हुए की मृत्यु निश्चित है और मरे हुए का जन्म निश्चित है । इससे भी इस बिना उपाय वाले विषय में तू शोक करने योग्य नहीं है॥2/27॥
भगवान कहते हैं आत्मा कहीं नही जाएगी । शरीर भले ही नष्ट हो जाएगा ।
वासांसि जीर्णानि यथा विहाय
नवानि गृह्णाति नरोऽपराणि ।
तथा शरीराणि विहाय जीर्णा–
न्यन्यानि संयाति नवानि देही॥
भावार्थ–
जैसे मनुष्य पुराने वस्त्रों को त्यागकर दूसरे नए वस्त्रों को ग्रहण करता है, वैसे ही जीवात्मा पुराने शरीरों को त्यागकर दूसरे नए शरीरों को प्राप्त होता है ॥ 2/22॥
- अर्जुनपूछतेहैंतोयेसबआत्माजाएंगेकहाँ? क्या ब्रम्ह के पास जाएंगे? तो ये ब्रम्ह क्या है?
- भगवान उत्तर देते हैं – अक्षरं ब्रम्ह परम ।
श्लोक–
“अक्षरं ब्रह्म परमं” स्वभावोऽध्यात्ममुच्यते ।
भूतभावोद्भवकरो विसर्गः कर्मसंज्ञितः॥
भावार्थ–
श्री भगवान ने कहा– परम अक्षर ‘ब्रह्म‘ है, अपना स्वरूप अर्थात जीवात्मा ‘अध्यात्म‘ नाम से कहा जाता है तथा भूतों के भाव को उत्पन्न करने वाला जो त्याग है, वह ‘कर्म‘ नाम से कहा गया है ॥8/3॥
- अक्षरं ब्रम्ह परमं – जो क्षर नहीं होता, जो नष्ट नहीं होता । आत्मा में क्षरण नहीं होता । अक्षर पुरुषोत्तम भी कहा गया है इसे ।
- ब्रम्ह मतलब सतत विस्तार । Ever Expending.
- ब्रम्ह वह है जिसका सतत विस्तार होता रहता है ।
- ब्रम्ह अक्षर है जो नष्ट नहीं होगा बल्कि सतत विस्तार करेगा ।
- जो हमारे गैलेक्सि है, तारामंडल है ये सतत विस्तार करते रहते हैं
- बढ़ने की वजह से नष्ट नहीं होगा ये इसलिए हम लोग है ।
- ब्रम्ह कभी क्षर नहीं होते । सर्वोच्च है अंतिम शिखर है । इसके आगे कुछ भी नहीं ।
- वेदांत दर्शन में ब्रम्ह के बारे में कहा गया है ।
- हमारे यहां 6 दर्शन है । सांख्य, योग, न्याय, वैशेषिक, वेदांत और मीमांसा दर्शन ।
- वेदांत को शिखर दर्शन कहते हैं । ब्रम्हसूत्र भी कहते हैं ।
- इसमें चार सूत्र है जो प्रश्न के जवाब है –
- चतुः सूत्री वेदांत दर्शन – आचार्य शंकर का भाष्य किया हुआ वेदांत बहुत प्रसिद्ध है ।
- 1 सूत्र – अथातो ब्रम्ह जिज्ञासा । (अब(अथ–इसके बाद) ब्रम्ह के बारे में जानते हैं)
मीमांसा में अथातो धर्म जिज्ञासा कहा गया है ।
2 सूत्र – जन्माद यस्य यतः ।
3 सूत्र – शास्त्रयोनित्वात । (ब्रम्ह को जगत का कारण कहा गया है)
4 सूत्र – तत तु समन्वयात् ।
- इन चारों सूत्रों में ब्रम्ह को बताया गया है, ब्रम्ह के विचार को पूरी तरह से प्रकाशित किया गया है ।
- दो दर्शन एक साथ जुड़े हैं । पूर्व मीमांसा (वेदांत) में कहा गया है अथातो ब्रम्ह जिज्ञासा जबकि यही चीज उत्तर मीमांसा में कहा गया है अथातो धर्म जिज्ञासा ।
- धर्म क्या है – यतो अभ्युदय: नि:श्रेयस सिद्धि स धर्म: । – जिससे जीवन मे अभ्युदय प्राप्त हो और जो श्रेय पथ पर ले चले, मोक्ष की ओर ले जाये, वही धर्म है । धर्म में जीवन के नियम हैं, कर्म है, संन्सार है, शुभ–अशुभ कर्मों के भोग हैं ।
- जब हमारा पुण्यबल बढ़ता है तो हमारा तप बल बढ़ता है । जब हम अपने कर्मों में पूर्णता प्राप्त करते हैं तब हमें निःश्रेयस का मार्ग मिलता है ।
- कार्ल मार्क्स (रूस)एक दार्शनिक थे उन्होंने कहा जबतक दुनिया के लोग आर्थिक रूप से एक नहीं होंगे तब तक कुछ नहीं होने वाला । Das Capital नाम के सामाजिक साम्यवाद की उन्होंने रचना की । और चर्चा करते रहे रोटी की । कि हर वर्ग के लोग को बेसिक रोटी मिलनी चाहिए । बराबर का हिस्सा मिलना चाहिए । मजदूर बराबर, गरीब बराबर । गरीब अमीर सब बराबर ।
- रोटी का सवाल भूखे पेट में होता है । भूख पूरी होगी तो जिज्ञासा होगी । धर्म पूरा होगा तो प्रश्न होंगे ।
- जब चित्त शुद्ध होता है तो शुद्ध चित्त में प्रश्न उठता है – किं तत ब्रम्ह ।
- गुरुदेव ने एक किताब लिखी है जिसमें कहा है तप पहले करो योग उसके बाद ।
- किताब – अध्यात्म के दो चरण तप और योग ।
- हजारी प्रसाद द्विवेदी शांतिनिकेतन में पढ़ाते थे । विद्वान थे और उन्होंने अपने प्रारंभिक दिनों के बारे में लिखा है कि हम जब जाते थे तो हम रविन्द्र नाथ टैगोर से मिलते थे । बड़े जागृत चेतना के व्यक्ति थे । लिखते थे कि कुछ ऐसा अनुभव होता है जैसे कि अंदर के मैल के पत्ते टूट से गए हैं और सब कुछ साफ साफ हो गया । ऐसा लगता था जैसे आंखों से कोई करुणा का प्रकाश बिजली बरस रही है । ऐसा हजारी प्रसाद जी जैसा साहित्यकार लिख रहा है । वह कहते थे कि कुछ देर उनके साथ बैठ कर बात करते थे तो तलगत था कि अपने अंदर का मैल छंटा ।
- शिवानी एक बहुत बड़ी उपन्यास कार हुई वह शांतिनिकेतन में ही रहीं पढ़ीं । उनका कहना था कि रविन्द्र नाथ टैगोर जी की कल्पना के शांति निकेतन में हम बहुत घूमते थे । ऐसा लगता था जैसे परिवेश से कुछ संवाद हो रहा हो । शांति निकेतन का हर चीज कुछ न कुछ सिखाता है । जब हम आचार्यों से बात करते थे तो ऐसा लगता था कुछ बोध मिल रहा है, ज्ञान मिल रहा है । किताबों का ज्ञान नहीं बल्कि व्यवहारिक ज्ञान ।
- जब मन साफ होता है तो 3 चीजें होती है– सुख, हर्ष और आनंद । सुख इंद्रियों का होता है, इन्द्रिय तृप्ति का सुख । दूसरा है हर्ष यदि कोई हमारी तारीफ कर दे तो हमें हर्ष होता है हर्ष अर्थात अहं की तृप्ति और अंतिम है आनंद मतलब आत्मा का आनंद जो अंदर से निकलता है । आनंद होता है तो अंदर की सारी जिज्ञासा समाप्त हो जाती है । समाधान होने लगता है । और जब वह निवृत्त होता है तो मन से एक ही बात निकलती है किं तत ब्रम्ह?
- जब धर्म पूर्ण होती है तो जिज्ञासा उठती है और जब ब्रम्ह जीवन में आजाता है तो ऊँचा उठने की आकांक्षा होती है ।
- बुद्ध के पास जो भिक्षु थे उन्होंने बुद्ध से कहा कि आपके उपदेश समाज में सुना कर आये पर किसी ने ध्यान से नहीं सुना सब आपस में बात करते रहे । बुद्ध बोले – बिना हाल चाल पूछे उपदेश सुना दिया । तब बुद्ध बोले पहले सेवा फिर धर्म चर्चा ।
- इंसान यदि भूखा है तब तक धर्म चर्चा कहां ।
- महर्षि व्यास प्रणीत दर्शन है वेदांत – अथातो ब्रम्ह जिज्ञासा के बाद कहते हैं जन्माद यस्य यतः – जिसके जन्म के बाद जो सारी घटनाएं घटती हैं, जहां से जीवन आया, जहां से तुम आये । वह ब्रम्ह है । ब्रम्ह वह है जो अंतिम श्रोत है ।
- सब जगह की जीवन की, आकाश की, तारामंडल की सबकी अंतिम डोर है ब्रम्ह, जन्म आदि उत्पत्ति स्थिति सृष्टि का विलय का कारण है ।
- इसके बाद कहते हैं शास्त्रयोनित्वात । एक शब्द है योनि – जिसके कारण बच्चा जन्म लेता है । शास्त्र कहते है वह कारण योनि है जहां से ज्ञान आया ब्रम्ह आया ।
- चौथा सूत्र है – तत समन्वयात् – उसी से सब हैं ।
- जैसे धागा है इसलिए कपड़े बन रहे हैं ।
- ब्रम्ह ही वह सूत्र है जिसमें जगत बंधा हुआ है ।
- ब्रम्ह की बुनावट में सब कुछ समाया है , सबकुछ उसी से निकल के आया है । उसी से बुना हुआ है ।
- उपनिषद कहते हैं – यतो वा इमानि भूतानि जायन्ते । येन जातानि जीवन्ति ।यत् प्रयन्त्यभिसंविशन्ति । तद्विजिज्ञासस्व । तद् ब्रह्मेति ॥ – तैत्तिरीयोपनिषत् ३–१–३
- जिससे समस्त प्राणी, समस्त भूत आते हैं, जिसमें सबकुछ विलय हो जाता है, जिसमें समस्त स्थित रहते हैं वही ब्रम्ह है ।
- महर्षि अरविंद की किताब – The Upnishads. वह ब्रम्ह की बात करते हैं । उपनिषदों में ब्रम्ह की चर्चा है । ब्रम्ह चर्चा करते–करते Substratum के बारे में चर्चा करते हैं ।
- Substratum मतलब उसी में सब हुआ, उसी में सब खत्म ।
- ब्रम्ह Substratum है । सबकुछ यहीं से शुरू यहीं पर खत्म । ब्रम्ह ही जगत का कारण है ।
- देव्यथर्वशीर्ष (दुर्गा सप्तशती) में माँ कहती हैं–
देव्यथर्वशीर्ष’ में भगवती देवों से अपने स्वरूप का परिचय देते हुए कहती है कि ‘मैं ब्रह्मस्वरूपा हूँ । मुझ से ही प्रकृति–पुरुषात्मक जगत् का अस्तित्व है’शून्य भी मुझसे है और अशून्य भी ।–
“साऽब्रवीत–अहं ब्रह्मस्वरूपिणी ।
मतः प्रकृति–पुरुषात्मकं जगत् । शून्यं चाशून्यम च” ।
- एक शब्द है ब्रम्ह, एक शब्द है ईश्वर और एक शब्द है पुरुष, तीनों का एक युग्म है माया , शक्ति और प्रकृति है ।
- एक राजा थे सौराष्ट्र में । उनके दरबार में साधु महात्मा आते रहते थे । शास्त्रार्थ भी करते थे । बात होने लगी कि जैन धर्म में अलग बात बताई जाती है, हिन्दू धर्म में अलग । तो एक बात आयी कि सत्य क्या है, जीवन का अंतिम छोर क्या है? जैनियों में एक वाढ है स्यादवाद ।
- जैनियों ने बताया स्यात – शायद – है, नहीं है, है और नहीं है, कहा नहीं जा सकता, है किन्तु कहा नहीं जा सकता, नहीं है और कहा नहीं जा सकता है, है नहीं है और कहा नहीं जा सकता ।
- और हिन्दू साधु ने एक शब्द कहा – ब्रम्ह । टैब राजा बोले अपने तो कुछ कहा कि ही नहीं इन्होंने तो इतना लंबा बहुत कुछ बता दिया तब जैन सन्यासी बोले मैनें जो कुछ भी बोला है सब इसी ब्रम्ह में आ गया है ।
- ब्रम्ह ही पूर्ण है । उस पूर्ण से जो निकल जाता है वह भी पूर्ण होता है । आगे बोले ॐ पूर्णमदः पूर्णमिदं पूर्णात् पूर्णमुदच्यते ।पूर्णस्य पूर्णमादाय पूर्णमेवावशिष्यते ।
- पूर्ण मतलब Perfect.
- जीवन की यात्रा अपूर्णता से पूर्णता की ओर । imperfection se perfection की ओर ।
- ईशोपनिषद में यह आया है–
ॐ पूर्णमदः पूर्णमिदं पूर्णात् पूर्णमुदच्यते ।पूर्णस्य पूर्णमादाय पूर्णमेवावशिष्यते॥ॐ शांतिः शांतिः शांतिः॥
ॐ वह (परब्रह्म) पूर्ण है और यह (कार्यब्रह्म) भी पूर्ण है; क्योंकि पूर्ण से पूर्ण की ही उत्पत्ति होती है । तथा [प्रलयकाल मे] पूर्ण [कार्यब्रह्म]- का पूर्णत्व लेकर (अपने मे लीन करके) पूर्ण [परब्रह्म] ही बच रहता है । त्रिविध ताप की शांति हो ।
- ईश्वर, शक्ति, पुरुष वह भी ब्रम्ह है । सारा काम प्रकृति करती है और पुरुष काम का निर्धारण करता है ।
- भगवान कहते हैं ॥2/72॥ –
श्लोक:
एषा ब्राह्मी स्थितिः पार्थ नैनां प्राप्य विमुह्यति ।
स्थित्वास्यामन्तकालेऽपि ब्रह्मनिर्वाणमृच्छति॥
भावार्थ:
हे अर्जुन! यह ब्रह्म को प्राप्त हुए पुरुष की स्थिति है, इसको प्राप्त होकर योगी कभी मोहित नहीं होता और अंतकाल में भी इस ब्राह्मी स्थिति में स्थित होकर ब्रह्मानन्द को प्राप्त हो जाता है ॥2/72॥
- वेदांत के चार महावाक्य –
अयं आत्मा ब्रम्ह (यह आत्मा ब्रह्म है).
तत्वमसि (तुम वही हो).
अहं ब्रह्मास्मि (मैं ब्रह्म हूं).
प्रज्ञानं ब्रह्म (प्रज्ञान ब्रह्म है).
- यह चार महावाक्य ब्रम्ह को स्पष्ट करते हैं ।
- भगवान का उत्तर है – अक्षरं ब्रम्ह परम ।
—————————————– ॐ शान्ति ———————————————————-
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