पहली बार जानिए – चंद्रग्रहण और सूर्यग्रहण से जुड़े हर विश्वास-अंधविश्वास का वैज्ञानिक पहलू
- ग्रहण के दौरान क्या करें और क्या नहीं ?
सूर्य ग्रहण हो या फिर चंद्र ग्रहण, खगोलविदों के लिये दोनों ही आकर्षण का केंद्र होते हैं। रही बात आम लोगों की, तो तमाम लोग इसे एक प्राकृतिक घटना के रूप में देखना चाहते हैं, तो बहुत लोग ऐसे भी हैं, जो इसे धर्म से जोड़ते हैं। खास कर हिंदू धर्म को मानने वाले लोग। जब चंद्रमा सूर्य और पृथ्वी के बीच आ जाता है तब सूर्य कुछ समय के लिए चंद्रमा के पीछे छुप जाता है। इसी स्थिति को वैज्ञानिक भाषा में सूर्य ग्रहण कहते हैं। ग्रहण को हिन्दू धर्म में शुभ नहीं माना जाता है। हालांकि ये एक भोगौलिक घटना है, जिस में इतना परेशान होने की जरूरत नहीं है। लेकिन ज्योतिषियों के मुताबिक इन ग्रहणों का आपके जीवन पर प्रभाव पड़ता है इसी कारण ग्रहण के वक्त कुछ जरुरी सावधानियां बरतनी चाहिए।
चंद्र ग्रहण केवल पूर्णमासी पर ही लगता है और सूर्य ग्रहण अमावस पर ही दिखेगा। पौराणिक काल से राहू और केतु को समुद्र मंथन से जोड़ा गया है और ज्योतिष इन्हें छाया ग्रह मानता है। भूकंप आने व प्राकृतिक आपदाओं की भविष्यवाणी भी ऐसी खगोलीय घटनाओं से की जाती है।
सूर्य ग्रहण के समय वैज्ञानिक, सूर्य को नंगी आखों से न देखने की सलाह क्यों देते हैं यदि यह केवल मात्र खगोलीय घटना ही है। भारत की हर परंपरा के पीछे वैज्ञानिक कारण रहे हैं। आज वैज्ञानिक सुपर कम्प्यूटर के माध्यम से ग्रहण लगने और समाप्त होने का समय बताते हैं जबकि महाभारत काल में तो हमारे वैज्ञानिक ऋषि-मुनियों एवं गणितज्ञों ने त्रिकोणमिति अर्थात ट्रिग्नोमीट्री जो भारत की देन है की सहायता से 5000 साल पहले ही बता दिया था कि महाभारत युद्ध के दौरान कुरुक्षेत्र में पूर्ण सूर्य ग्रहण लगेगा।
पूर्ण सूर्य ग्रहण लगने से जब भरी दोपहरी में अंधकार छा जाता है तो पक्षी भी अपने घोंसलों में लौट आते हैं। यह पिछले सूर्य ग्रहण के समय लोग देख चुके हैं और पूरे विश्व के वैज्ञानिक भी। तो ग्रहण का प्रभाव हर जीव जन्तु, मनुष्य, तथा अन्य ग्रहों पर पड़ता है। गुरुत्वाकर्षण घटने या बढऩे से धरती पर भूकंप आने की संभावना ग्रहण के 41 दिन पहले या बाद तक रहती है।
पूर्ण-ग्रहण के समय चाँद को सूरज के सामने से गुजरने में दो घण्टे लगते हैं. 1968 में लार्कयर नामक वैज्ञानिक नें सूर्य ग्रहण के अवसर पर की गई खोज के सहारे वर्ण मंडल में हीलियम गैस की उपस्थिति का पता लगाया था. ध्यान रहे है कि सम्पूर्ण सूर्यग्रहण की वास्तविक अवधि अधिक से अधिक 11 मिनट ही हो सकती है उससे अधिक नहीं।
प्राचीन समय और कुछ संस्कृतियों में आज भी सूर्य ग्रहण को राहू और केतु से जोड़ा जाता है. अर्थात यह माना जाता है की राहू और केतु द्वारा ग्रसित करने के कारण ही सूर्य ग्रहण लगता है. जबकि यह परम्परा आज के वज्ञानिक युग में नहीं मानी जाती है।
वस्तुतः प्राचीन परंपरा के अनुसार आज भी सूर्य ग्रहण के लिए निम्न स्थितियों का होना अत्यंत जरुरी होता है जैसे- उस दिन पूर्णिमा या अमावस्या(क्रमशः चाँद के पुर्णतः एवं पुर्णतः नहीं दिखायीं देने की अवस्था) होनी चाहिये, चन्दमा का रेखांश राहू या केतु के पास होना चाहिये,चन्द्रमा का अक्षांश शून्य के निकट होना चाहिए।
उल्लेखनीय है की सूर्यग्रहण अधिकतम 10 हजार किलोमीटर लम्बे और 250 किलोमीटर चौडे क्षेत्र में ही देखा जा सकता है |
ग्रहणों के बारे में जो आज अंधविश्वास व मिथक हैं, उसका वर्णन महाभारत, मनुस्मृति, अथर्ववेद के साथ-साथ अन्य पोथियों में भी हैं, जिनमें से कुछ निम्न हैं :
-अक्सर हमें ग्रहण के समय बाहर निकलने नहीं देते उनके मुताबिक इस दौरान बुरी ताकते हावी हो जाती हैं। जबकि इसके पीछे का असली लॉजिक है कि ग्रहण के वक्त सूर्य की किरणों से त्वचा के रोग हो सकते हैं। साथ ही नंगी आंखों से उसे देखने से लोग अंधे भी हो सकते हैं।
-ग्रहण के समय भोजन को पकाना तथा खाना नहीं चाहिए।
-घर के अंदर उपलब्ध समस्त सामग्री पर तुलसी के पत्तों से गंगाजल का छिड़काव करना चाहिए।
-ग्रहण के समाप्त होने के बाद स्नान करना चाहिए।
-ग्रहण के समय रूपयें, कपड़े, मवेशियों इत्यादि को पुरोहितों, पंडितों, पंडो को दान करना चाहिए।
इत्यादि अंधविश्वास और भ्रांतियों का समावेश है, जिसका यहाँ पर वर्णन करना लेखक और पाठक के समय को अन्यथा लेने के तुलनीय होगा। निस्संदेह ये कठोर नियम हमारे किसी काम के नही हैं तथा इनको अब और बढ़ावा नहीं मिलना चाहिए।
ऐसा भी नही हैं कि प्राचीन काल में किसी भी ज्योतिषी को सूर्य ग्रहण के संबंध में वैज्ञानिक जानकारी नही थी। आज से लगभग पन्द्रह सौ साल पहले प्राचीन भारत के महान गणितज्ञ-ज्योतिषी आर्यभट ने अपनी पुस्तक आर्यभटीय में सूर्य ग्रहण का वैज्ञानिक कारण बताया हैं। आर्यभट आर्यभटीय के गोलपाद में लिखते हैं :
छादयति शशी सूर्य शशिनं महती च भूच्छाया।। 37 ।।
अर्थात्, जब चन्द्रमा पर पृथ्वी की छाया पड़ती है, तब चंद्रग्रहण होता और जब पृथ्वी पर चन्द्रमा की छाया पड़ती है, तब सूर्य ग्रहण होता है। आर्यभट ने ग्रहणों की तिथि तथा अवधि के आकलन का सूत्र भी प्रदान किया। उनके कई विचार क्रन्तिकारी थे। आर्यभट परम्पराओं को तोड़ने वाले खगोलिकी आन्दोलन के अग्रनेता थे। अतः उन्हें अपने समकालीन ज्योतिषियों के आलोचनाओं को भी झेलना पड़ा।
अब हम सूर्य ग्रहण एवं चंद्र ग्रहण के बारे में बहुत-कुछ जानते हैं। अब हम जानते हैं कि राहु और केतु कोई ग्रह नही हैं। तारामंडल में सूर्य और चन्द्रमा के पथ बिलकुल एक नही हैं, बल्कि थोड़े अलग हैं। जैसे गोल खरबूजे पर वृत्ताकार धारियां होती हैं, वैसे ही तारामंडल में एक धारी सूर्य का पथ हैं तथा दूसरी वाली धारी चन्द्रमा का पथ हैं। ये दोनों वृत्त जहाँ एक-दूसरें को काटते हैं, उन दो बिंदुओं को राहु और केतु कहते हैं। अत: यह स्पष्ट है कि राहु-केतु कोई ग्रह नहीं, बल्कि खगोलशास्त्र में वर्णित दो काल्पनिक बिंदु हैं।
हमारी पृथ्वी पर सूर्यादि ग्रहों का सकारात्मक व नकारात्मक प्रभाव सदैव से ही रहा है। सूर्यादि ग्रह नक्षत्रों पर घटने वाली घटनाओं से हमारी पृथ्वी अछूती नहीं रह सकती है। पृथ्वी पर पड़ने वाले शुभाशुभ प्रभाव से मानव जीवन सदैव ही प्रभावित होता रहता है। यह बात किसी से छुपी नही है। धरा पर रहने वाले प्राणियों में मनुष्य ही ऐसा प्राणी है। जो सभी से अग्रणी है, उसकी सूझबूझ बड़ी ही उत्कृष्ट है, जिससे वह पृथ्वी सहित आकाशीय घटनाओं के बारे भी हानि-लाभ का भली-भांति मूल्यांकन करता रहता है। सूर्य व चंद्र ग्रहण ऐसी घटनाएं है। जिसको प्रत्यक्ष प्रमाण के रूप में हम समुद्र मे उठते हुए ज्वार भाटा में तो देखते ही हैं, साथ ही पृथ्वी पर होने वाले ऋतु परिवर्तन आदि भी सूर्यादि ग्रहों के कारण ही है। पृथ्वी पर सूर्य का प्रकाश, उसकी कल्याणकारी रश्मियां, सूर्योदय, सूर्यास्त, दिन-रात, शीत, घाम, वर्षा, हरियाली, पेड़, पौधे, जीव- जन्तु, विविध ऋतुओं की फसलें सहित सम्पूर्ण जीव जगत को ऊर्जावान करने की शक्ति सूर्य से ही प्राप्त होती है। यहा तक मनुष्य की आयु भी सूर्य द्वारा ही संलुतिल होती रहती है। जिसे हम प्रत्यक्ष रूप से देखते है। यदि सूर्य न हो तो हमे दिन-रात का क्रम, रोशनी, ऊर्जा आदि की प्राप्ति संभव नही हो सकेगी। अर्थात् मानव ही नहीं अपितु सम्पूर्ण जीव धारियों की यानी विश्व की आत्मा सूर्य को ही कहा जाता है- जैसे-सूर्यः आत्मा जगतस्थुषश्च। अतः सूर्य जगत् की आत्मा है और चंद्र इस संसार की माता है। दोनों ही ग्रहण से प्रभावित होते हैं और दोनों का हमारे जीवन में बड़ा ही महत्व है। अर्थात् पृथ्वी पर जीवन का सहारा सूर्य ही है। सूर्य के संदर्भं में प्राचीन काल से लेकर आज तक बड़ी खोजे हुई हैं। जो भारत में सबसे पहले हुई थी। सूर्य के विषय मे लेखको के लेख, कवियों की कविताएं, लोक, गीत, संगीत आदि भारत में सूर्य के महत्व को दर्शाते हैं। सूर्य हमसे हर पल जुड़े हुए हैं। हर रोज हर घर आंगन में प्रकाश फैलाकर नव जीवन का संचार करते है। जब सूर्य में ग्रहण हो तो भला पृथ्वी पर जीवन बिना प्रभावित हुए कैसे रह सकता है।
पौराणिक कथानक
मत्स्यपुराण के अनुसार राहु (स्वरभानु) नामक दैत्य द्वारा देवताओं की पंक्ति मे छुपकर अमृत पीने की घटना को सूर्य और चंद्रमा ने देख लिया और देवताओं व जगत के कल्याण हेतु भगवान सूर्य ने इस बात को श्री हरि विण्णु जी को बता दिया। जिससे भगवान उसके इस अन्याय पूर्ण कृत से उसे मृत्यु दण्ड देने हेतु सुदर्शन चक्र से वार कर दिया। परिणामतः उसका सिर और धड़ अलग हो गए। जिसमें सिर को राहु और धड़ को केतु के नाम से जाना गया। क्योंकि छल द्वारा उसके अमृत पीने से वह मरा नहीं और अपने प्रतिशोध का बदला लेने हेतु सूर्य और चंद्रमा को ग्रसता हैं, जिसे हम सूर्य या चंद्र ग्रहण कहते हैं। इस तथ्य की पुष्टि इस श्लोक द्वारा होता है:
तस्य कण्ठमनुप्राप्ते दानवस्यामृते तदा।
आख्यातं चंद्रसूर्याभ्यां सुराणां हितकाम्यया।।
वैदिक व पौराणिक ग्रथों में ग्रहण के संदर्भ में कहा गया है। कि ग्रहण काल मे सौभाग्यवती स्त्रियों को सिर के नीचे से ही स्नान करना चाहिए, अर्थात् उन्हें अपने बालों को नहीं खोलना चाहिए, जिन्हें ऋतुकाल हो ऐसी महिलाओं को जल स्रोतों में स्नान नहीं करना चाहिए। उन्हे जल स्रोतों से बाहर स्नान करना चाहिए। सूतक व ग्रहण काल में देवमूर्ति को स्पर्श कतई नहीं करना चाहिए। ग्रहण काल में भोजन करना, अर्थात् अन्न, जल को ग्रहण नहीं करना चाहिए। सोना, सहवास करना, तेल लगाना तथा बेकार की बातें नहीं करना चाहिए। बच्चे, बूढे, रोगी एवं गर्भवती स्त्रियों को आवश्यकता के अनुसार खाने-पीने या दवाई लेने में दोष नहीं होता है। सावधानी-गर्भवती महिलाओं को होने वाली संतान व स्व के हित को देखते हुए यह संयम व सावधानी रखना जरूरी होता है कि, वह ग्रहण के समय में नोकदार जैसे सुई व धारदार जैसे चाकू आदि वस्तुओं का प्रयोग नहीं करना चाहिए। इस समय उन्हें प्रसन्नता से रहते हुए भगवान के चरित्र को स्मरण करना चाहिए। रोना चिल्लाना, झगड़ना व अप्रसन्नता से बचना चाहिए, साथ ही ग्रहण के दुष्प्रभाव से बचने हेतु लाल रंग वाले गेरू को पानी में मिलाकर उदरादि स्तनों में थोड़ा सा लगाना चाहिए। शास्त्रों के अनुसार ग्रहण के एक दिन पहले और ग्रहण के दिन तथा इसके पश्चात् तीन से चार दिनों तक किसी शादी व मंगल कार्य को व किसी व्रत की शुरूआत तथा उसका उद्यापन वर्जित रहता है। अर्थात् देव व संस्कृति में आस्था रखने वालों को यथा सम्भव नियमों का पालन करना चाहिए। जिन्हें लगता है, कि इससे कुछ नहीं होता उन्हें ग्रहण से संबंधित पुराणों व साहित्यों को पढ़ना चाहिए फिर उसके निष्कर्ष को लोगों के मध्य प्रस्तुत करना चाहिए।
सूर्य ग्रहण के विषय में वैदिक, पौराणिक, एवं ज्योतिषीय सहित वैज्ञानिक मत प्राप्त होते हैं। ऋग्वेद के अनुसार यह ज्ञान अत्रिमुनि को था, पौराणिक ग्रंथों के अनुसार मत्स्यपुराण, देवीभागवत आदि पौराणिक ग्रथों में सूर्य ग्रहण के विषय में दान, जप, स्नान, तथा मानव जीवन में उसके पड़ने वाले प्रभाव के विषय में वर्णित किया गया है। साथ ही कई स्थानों में सूर्य ग्रहण के समय करने न करने वाले कार्यों का बड़ा विस्तृत विवेचन मिलता है, तथा गर्भवती स्त्री के संबंध में, बच्चों के संबंध मे तथा रोगी व बीमारों के संबंध में, करणीय अकरीय तथ्यों का पता चलता है।
क्या आपने कभी ये सोचा है क्यों ज्योतिषी हो या घर के बड़े ग्रहण के बाद नहाने के लिए कहते हैं या खाना बनाकर रखने से मना करते हैं, पानी के जार में दुर्वा घास डालकर रखने जैसे नियमों को मानने के लिए कहते हैं। लेकिन सच तो ये है कि इस तरह के परंपरा के पीछे स्वास्थ्य संबंधी सुरक्षा का भाव छिपा रहता है। क्यों सोच में पड़ गए, न? चलिये इसके पीछे के राज़ के बारे में जानते हैं-
पानी और खाने के बर्तन में दुर्वा घास डालना चाहिए-
आम तौर पर दुर्वा घास का इस्तेमाल पूजा के अवसर पर किया जाता है क्योंकि इसको पवित्र माना जाता है। ज्योतिषियों का मानना है कि दुर्वा घास को पानी में डालने से वह पवित्र हो जाता है। बायोनैनोसाइन्स 2015 के आर्टिकल में ये पब्लिश हुआ था कि दुर्वा घास में रोगाणुनाशक गुण होता है जो खाना या पानी को रोगाणुमुक्त रखने में मदद करता है। सूर्य ग्रहण के दौरान सूर्य का प्रकाश कम हो जाने के कारण जीवाणु का पनपना बढ़ जाता है। इसलिए ग्रहण के दौरान दुर्वा घास पका हुआ खाना या पीने के पानी में दुर्वा घास डालने पर वो संदूषित (contamination) नहीं होता है।
ग्रहण के दौरान कोई भी पका हुआ खाना संग्रह करके न रखें- इस मान्यता के पीछे विज्ञान ये है कि ग्रहण के दौरान जीवाणुनाशक पराबैंगनी विकिरण अनुपलब्ध होते हैं जो रोगाणु को पनपने से रोकने में मदद करते हैं। इसलिए ग्रहण के दौरान पका हुआ खाना संग्रह करने पर उनके खराब होने की संभावना तीव्र होती है।
ग्रहण के बाद नहाना चाहिए ?
ये भारतीय मान्यता है कि ग्रहण के पहले या बाद में राहु का दुष्प्रभाव रहता है जो नहाने के बाद ही जाता है। इस मान्यता के पीछे भी एक विज्ञान है। सूर्य के अपर्याप्त रोशनी के कारण जीवाणु या कीटाणु ज्यादा पनपने लगते हैं जिसके कारण इंफेक्शन होने की संभावना ज्यादा बढ़ जाती है। इसलिए ग्रहण के बाद नहाने से शरीर से अवांछित टॉक्सिन्स निकल जाते हैं और बीमार पड़ने के संभावना को कुछ हद तक दूर किया जा सकता है।
ग्रहण के दौरान उपवास करना चाहिए ?
ग्रहण प्रेरित गुरुत्वाकर्षण के लहरों के कारण ओजोन के परत पर प्रभाव पड़ने और ब्रह्मांडीय विकिरण दोनों के कारण पृथ्वीवासी पर कुप्रभाव पड़ता है। इसके कारण ग्रहण के समय जैव चुंबकीय प्रभाव बहुत सुदृढ़ होता है जिसके प्रभाव स्वरूप पेट संबंधी गड़बड़ होने की ज्यादा आशंका रहती है। इसलिए शरीर में किसी भी प्रकार के रासायनिक प्रभाव से बचने के लिए उपवास करने की सलाह दी जाती है। इसके साथ मंत्रोच्चारण करने से मन शांत रहता है और व्यक्तिगत कंपन के प्रभाव को भी कुछ हद तक कम किया जा सकता है।
अब शायद आपने मान ही लिया होगा कि हर भारतीय मान्यता या रिवाज़ के पीछे वैज्ञानिक कारण होता है।
सूर्य ग्रहण
भौतिक विज्ञान की दृष्टि से जब सूर्य व पृथ्वी के बीच में चन्द्रमा आ जाता है तो चन्द्रमा के पीछे सूर्य का बिम्ब कुछ समय के लिए ढ़क जाता है, उसी घटना को सूर्य ग्रहण कहा जाता है। पृथ्वी सूरज की परिक्रमा करती है और चाँद पृथ्वी की। कभी-कभी चाँद, सूरज और धरती के बीच आ जाता है। फिर वह सूरज की कुछ या सारी रोशनी रोक लेता है जिससे धरती पर साया फैल जाता है। इस घटना को सूर्य ग्रहण कहा जाता है। यह घटना सदा सर्वदा अमावस्या को ही होती है।
अक्सर चाँद, सूरज के सिर्फ़ कुछ हिस्से को ही ढ़कता है। यह स्थिति खण्ड-ग्रहण कहलाती है। कभी-कभी ही ऐसा होता है कि चाँद सूरज को पूरी तरह ढँक लेता है। इसे पूर्ण-ग्रहण कहते हैं। पूर्ण-ग्रहण धरती के बहुत कम क्षेत्र में ही देखा जा सकता है। ज़्यादा से ज़्यादा दो सौ पचास (250) किलोमीटर के सम्पर्क में। इस क्षेत्र के बाहर केवल खंड-ग्रहण दिखाई देता है। पूर्ण-ग्रहण के समय चाँद को सूरज के सामने से गुजरने में दो घण्टे लगते हैं। चाँद सूरज को पूरी तरह से, ज़्यादा से ज़्यादा, सात मिनट तक ढँकता है। इन कुछ क्षणों के लिए आसमान में अंधेरा हो जाता है, या यूँ कहें कि दिन में रात हो जाती है।चन्द्रमा द्वारा सूर्य के बिम्ब के पूरे या कम भाग के ढ़के जाने की वजह से सूर्य ग्रहण तीन प्रकार के होते हैं जिन्हें पूर्ण सूर्य ग्रहण, आंशिक सूर्य ग्रहण व वलयाकार सूर्य ग्रहण कहते हैं।
1. पूर्ण सूर्य ग्रहण
पूर्ण सूर्य ग्रहण उस समय होता है जब चन्द्रमा पृथ्वी के काफ़ी पास रहते हुए पृथ्वी और सूर्य के बीच में आ जाता है और चन्द्रमा पूरी तरह से पृ्थ्वी को अपने छाया क्षेत्र में ले लेता है। इसके फलस्वरूप सूर्य का प्रकाश पृ्थ्वी तक पहुँच नहीं पाता है और पृ्थ्वी पर अंधकार जैसी स्थिति उत्पन्न हो जाती है तब पृथ्वी पर पूरा सूर्य दिखाई नहीं देता। इस प्रकार बनने वाला ग्रहण पूर्ण सूर्य ग्रहण कहलाता है।
2. आंशिक सूर्य ग्रहण
आंशिक सूर्यग्रहण में जब चन्द्रमा सूर्य व पृथ्वी के बीच में इस प्रकार आए कि सूर्य का कुछ ही भाग पृथ्वी से दिखाई नहीं देता है अर्थात चन्दमा, सूर्य के केवल कुछ भाग को ही अपनी छाया में ले पाता है। इससे सूर्य का कुछ भाग ग्रहण ग्रास में तथा कुछ भाग ग्रहण से अप्रभावित रहता है तो पृथ्वी के उस भाग विशेष में लगा ग्रहण आंशिक सूर्य ग्रहण कहलाता है।
3. वलयाकार सूर्य ग्रहण
वलयाकार सूर्य ग्रहण में जब चन्द्रमा पृथ्वी के काफ़ी दूर रहते हुए पृथ्वी और सूर्य के बीच में आ जाता है अर्थात चन्द्र सूर्य को इस प्रकार से ढकता है, कि सूर्य का केवल मध्य भाग ही छाया क्षेत्र में आता है और पृथ्वी से देखने पर चन्द्रमा द्वारा सूर्य पूरी तरह ढका दिखाई नहीं देता बल्कि सूर्य के बाहर का क्षेत्र प्रकाशित होने के कारण कंगन या वलय के रूप में चमकता दिखाई देता है। कंगन आकार में बने सूर्यग्रहण को ही वलयाकार सूर्य ग्रहण कहलाता है।
वैज्ञानिक दृष्टिकोण में सूर्य ग्रहण
चाहे ग्रहण का कोई आध्यात्मिक महत्त्व हो अथवा न हो किन्तु दुनिया भर के वैज्ञानिकों के लिए यह अवसर किसी उत्सव से कम नहीं होता। क्यों कि ग्रहण ही वह समय होता है जब ब्राह्मंड में अनेकों विलक्षण एवं अद्भुत घटनाएं घटित होतीं हैं जिससे कि वैज्ञानिकों को नये नये तथ्यों पर कार्य करने का अवसर मिलता है। 1968 में लार्कयर नामक वैज्ञानिक नें सूर्य ग्रहण के अवसर पर की गई खोज के सहारे वर्ण मंडल में हीलियम गैस की उपस्थिति का पता लगाया था। आईन्स्टीन का यह प्रतिपादन भी सूर्य ग्रहण के अवसर पर ही सही सिद्ध हो सका, जिसमें उन्होंने अन्य पिण्डों के गुरुत्वकर्षण से प्रकाश के पडने की बात कही थी। चन्द्रग्रहण तो अपने संपूर्ण तत्कालीन प्रकाश क्षेत्र में देखा जा सकता है किन्तु सूर्यग्रहण अधिकतम 10 हजार किलोमीटर लम्बे और 250 किलोमीटर चौडे क्षेत्र में ही देखा जा सकता है। सम्पूर्ण सूर्यग्रहण की वास्तविक अवधि अधिक से अधिक 11 मिनट ही हो सकती है उससे अधिक नहीं। संसार के समस्त पदार्थों की संरचना सूर्य रश्मियों के माध्यम से ही संभव है। यदि सही प्रकार से सूर्य और उसकी रश्मियों के प्रभावों को समझ लिया जाए तो समस्त धरा पर आश्चर्यजनक परिणाम लाए जा सकते हैं। सूर्य की प्रत्येक रश्मि विशेष अणु का प्रतिनिधित्व करती है और जैसा कि स्पष्ट है, प्रत्येक पदार्थ किसी विशेष परमाणु से ही निर्मित होता है। अब यदि सूर्य की रश्मियों को पूंजीभूत कर एक ही विशेष बिन्दु पर केन्द्रित कर लिया जाए तो पदार्थ परिवर्तन की क्रिया भी संभव हो सकती है।
चंद्रग्रहण
चंद्रग्रहण उस खगोलीय स्थिति को कहते है जब चंद्रमा पृथ्वी के ठीक पीछे उसकी प्रच्छाया में आ जाता है। ऐसा तभी हो सकता है जब सूर्य, पृथ्वी और चन्द्रमा इस क्रम में लगभग एक सीधी रेखा में अवस्थित हों। इस ज्यामितीय प्रतिबंध के कारण चंद्रग्रहण केवल पूर्णिमा को घटित हो सकता है। चंद्रग्रहण का प्रकार एवं अवधि चंद्र आसंधियों के सापेक्ष चंद्रमा की स्थिति पर निर्भर करते हैं। किसी सूर्यग्रहण के विपरीत, जो कि पृथ्वी के एक अपेक्षाकृत छोटे भाग से ही दिख पाता है, चंद्रग्रहण को पृथ्वी के रात्रि पक्ष के किसी भी भाग से देखा जा सकता है। जहाँ चंद्रमा की छाया की लघुता के कारण सूर्यग्रहण किसी भी स्थान से केवल कुछ मिनटों तक ही दिखता है, वहीं चंद्रग्रहण की अवधि कुछ घंटों की होती है। इसके अतिरिक्त चंद्रग्रहण को, सूर्यग्रहण के विपरीत, आँखों के लिए बिना किसी विशेष सुरक्षा के देखा जा सकता है, क्योंकि चंद्रग्रहण की उज्ज्वलता पूर्ण चंद्र से भी कम होती है।
चन्द्र ग्रहण का प्रकार एवं अवधि चन्द्र आसंधियों के सापेक्ष चन्द्रमा की स्थिति पर निर्भर करते हैं। चन्द्र ग्रहण दो प्रकार का नज़र आता है…
पूरा चन्द्रमा ढक जाने पर ‘सर्वग्रास चन्द्रग्रहण’
आंशिक रूप से ढक जाने पर ‘खण्डग्रास (उपच्छाया) चन्द्रग्रहण’
पृथ्वी की छाया सूर्य से 6 राशि के अन्तर पर भ्रमण करती है तथा पूर्णमासी को चन्द्रमा की छाया सूर्य से 6 राशि के अन्तर होते हुए जिस पूर्णमासी को सूर्य एवं चन्द्रमा दोनों के अंश, कला एवं विकला पृथ्वी के समान होते हैं अर्थात एक सीध में होते हैं, उसी पूर्णमासी को चन्द्र ग्रहण लगता है। विश्व में किसी सूर्य ग्रहण के विपरीत, जो कि पृथ्वी के एक अपेक्षाकृत छोटे भाग से ही दिख पाता है, चन्द्र ग्रहण को पृथ्वी के रात्रि पक्ष के किसी भी भाग से देखा जा सकता है। जहाँ चन्द्रमा की छाया की लघुता के कारण सूर्य ग्रहण किसी भी स्थान से केवल कुछ मिनटों तक ही दिखता है, वहीं चन्द्र ग्रहण की अवधि कुछ घंटो की होती है। इसके अतिरिक्त चन्द्र ग्रहण को सूर्य ग्रहण के विपरीत किसी विशेष सुरक्षा उपकरण के बिना नंगी आँखों से भी देखा जा सकता है, क्योंकि चन्द्र ग्रहण की उज्ज्वलता पूर्ण चन्द्र से भी कम होती है |
यद्यपि आज का विज्ञान वैदिक व पौराणिक ग्रंथो से अधिक सरोकार न रखते हुए कुछ अपनी तरह की खोज व ठोस प्रमाण जुटाने में तत्पर दिखाई देता है। अर्थात् वैज्ञानिक दृष्टि से सूर्य ग्रहण वह घटना है। जब सूर्य व पृथ्वी के बीच में चन्द्रमा आ जाता है तो चन्द्रमा के पीछे सूर्य का बिम्ब अल्प समय ढ़कने के कारण सूर्य ग्रहण की स्थिति होती है। इस सूर्य ग्रहण को हम पूर्ण, आंशिक व वलयाकार के रूप में यथा समय देखते रहते हैं। सूर्य ग्रहण किसी माह की अमावस्या(कृष्णपक्ष) की तिथि में ही घटित होता है। सूर्य ग्रहण के लिए यह जरूरी है, कि चन्द्रमा का रेखांश राहू या केतू के पास होना चाहिए। मत्स्य पुराण के अनुसार राहु के कारण चंद्र ग्रहण और केतू के कारण सूर्य ग्रहण की घटनाएं होती घटती हैं। प्राचीन भारतीय ऋषियों द्वारा युगों पहले अर्जित ग्रह, नक्षत्रों का खगोलीय ज्ञान आज भी सत्य रूप में अपने आप ही प्रमाणित होता रहता है। किसी व्यक्ति या संस्था के प्रमाण की उसे आज भी दरकार नहीं है। न ही किसी के मानने या न मानने से संबधित सूर्यादि ग्रहण की घटनाओं को नज़र अंदाज नहीं किया जा सकता है। सूर्य ग्रहण का असर बड़ा ही प्रभावी होता है, यह ऐसी घटना है जिससे प्रत्येक देश, प्रदेश व व्यक्ति स्त्री व पुरूष प्रभावित होते रहते है। चाहे वह सामान्य जन हो या फिर कोई ज्ञानी, पहुंचे हुए राजनेता, मंत्री, सैनिक, चिकित्सक हो, सभी को किसी न किसी रूप में सूर्य ग्रहण का शुभाशुभ प्रभाव प्राप्त होता ही है।
किसी भी वैज्ञानिक तर्क से पहले हम आपको बताना चाहेंगे कि अब तक विज्ञान में कहीं भी यह बात सिद्ध नहीं हुई है कि सूर्य या चंद्र ग्रहण गर्भवती महिला को कोई हानि पहुंचाते हैं। ग्रहण के वक्त चाकू, कैंची आदि का प्रयोग नहीं करना चाहिये, अन्यथा बच्चे के होठ कट जाते हैं। ग्रहण के वक्त सुई का प्रयोग करने से होने वाले बच्चे के हृदय में छिद्र हो जाता है। ग्रहण के वक्त पानी पीने से गर्भवती को डीहाइड्रेशन हो जाता है। बच्चे की त्वचा सूख जाती है। ग्रहण को नग्न आंखों से देखने से गर्भ में पल रहे बच्चे की आंखों पर असर पड़ता है। ग्रहण के वक्त गर्भवती महिला को घर के अंदर रहना चाहिये, बाहर नहीं निकलना चाहिये। ग्रहण के वक्त गर्भवती महिला को सोना नहीं चाहिये। बजाये उसके घर के अंदर ऊंचे स्वर में मंत्रों का जाप किया जाना चाहिये। ग्रहण के बाद गर्भवती महिला को स्नान करना चाहिये। अन्यथा बच्चे को कोई बीमारी लग सकती है। अब इन सब बातों के पीछे छिपे लॉजिक को समझने का प्रयास करें। पूर्ण सूर्य ग्रहण के दौरान अंधेरे में अगर आप सुई का प्रयोग करेंगी, तो डोरा डालते वक्त आंखों पर स्ट्रेस पड़ेगा। गर्भावस्था में किसी भी प्रकार का तनाव खराब होता है। तो ग्रहण से जुड़े अंधवविश्वास को क्यों मानती हैं गर्भवती महिलाएं? ग्रहण के समय में पानी क्यों नही पीना चाहिए? ग्रहण के वक्त प्रकाश की किरणों में विवर्तन होता है। इस कारण कई हजार सूक्ष्म जीवणु मरते हैं और कई हजार पैदा होते हैं। इसलिये पानी दूषित हो सकता है। नग्न आंखों से ग्रहण नहीं देखना चाहिये। जी हां प्रकाश की किरणों में होने वाले विवर्तन का प्रभाव आंखों पर पड़ सकता है। गर्भवती की आंखे अच्छी रहनी चाहिये। इस लिए उसे घर के अंदर ही रहना चाहिए। जी हां ग्रहण के वक्त पृथ्वी पर पड़ने वाली किरणों का असर बाहर ज्यादा होता है, न कि घर के अंदर। इसलिये बेहतर है गर्भवती घर के अंदर रहें। उसे मंत्रो का उच्चारण करना चाहिए। ग्रहण के वक्त पृथ्वी पर नकारात्मक ऊर्जा पड़ती है। मंत्रों के उच्चारण में उठने वाली तरंगें घर के अंदर सकारात्मक ऊर्जा का प्रवाह करती हैं। स्नान कोई जरूरी नहीं, लेकिन अगर आप ग्रहण के वक्त बाहर रहे हैं, तो स्नान से विषाणुओं से दूर रह सकते हैं। वैसे भी गर्भ में पल रहा बच्चा हमेशा सेंसिटिव होता है। यह मत सोचिये कि सभी गर्भवती महिलाएं अंधविश्वासी होती हैं, या इन बातों से डरती हैं। सच तो यह है कि वो अगर 9 महीने तक गर्भ में पल रहे बच्चे की रक्षा कर सकती है, तो दो-चार घंटे के ग्रहण कौन सी बड़ी बात है। सूर्य ग्रहण हो या चंद्रग्रहण, सूतक लगने के बाद से और सूतक समाप्त होने तक भोजन नहीं करना चाहिये।ग्रहण के वक्त पत्ते, तिनके, लकड़ी और फूल नहीं तोड़ने चाहिए। ग्रहण के वक्त बाल नहीं कटवाने चाहिये। ग्रहण के समय सोने से कोई रोग पकड़ता है किसी कीमत पर भी नहीं सोना चाहिए। ग्रहण के वक्त संभोग, मैथुन, आदि नहीं करना चाहिये। ग्रहण के वक्त दान पुण्य करना चाहिये। इससे घर में समृद्धि आती है। कोइ भी शुभ कार्य नहीं करना चाहिये और नया कार्य शुरु नहीं करना चाहिये।
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