गायत्री मंत्र : सर्वशक्ति मंत्र – पौराणिक और वैज्ञानिक
ॐ भूर्भुवः स्वः तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि धियो यो नः प्रचोदयात्।
भावार्थ:- उस प्राणस्वरूप, दुःखनाशक, सुखस्वरूप, श्रेष्ठ, तेजस्वी, पापनाशक, देवस्वरूप परमात्मा को हम अन्तःकरण में धारण करें।
गायत्री महामंत्र वेदों का एक महत्त्वपूर्ण मंत्र है जिसकी महत्ता ॐ के लगभग बराबर मानी जाती है। यह यजुर्वेद के मंत्र ॐ भूर्भुवः स्वः और ऋग्वेद के छंद 3.62.10 के मेल से बना है। इस मंत्र में सवित्र देव की उपासना है इसलिए इसे सावित्री भी कहा जाता है।
ऐसा माना जाता है कि इस मंत्र के उच्चारण और इसे समझने से ईश्वर की प्राप्ति होती है। इसे श्री गायत्री देवी के स्त्री रुप मे भी पुजा जाता है।
गायत्री मंत्र सर्वशक्ति मंत्र है, सब कुछ उसके भीतर है लेकिन? है तभी जब गायत्री मंत्र के बीज को तीनों चीजों से समन्वित किया जायें, उच्चस्तरीय दृष्टिकोण, अटूट श्रद्धा-विश्वास और परिष्कृत व्यक्तित्व, अगर तीनों बातें हमारे साथ है तो अटूट फल पायेंगें, गायत्री को कामधेनु कहा जाता है, यह सही है, गायत्री को कल्पवृक्ष कहा जाता है, यह सही है, गायत्री को पारस कहा जाता है, इसको छूकर के लोहा सोना बन जाता है, यह सही है, गायत्री को अमृत कहा जाता है, जिसको पीकर के अजर और अमर हो जाते हैं, यह भी सही है।
यह सब कुछ सही उसी हालत में है जबकि गायत्री रूपी कामधेनु को चारा भी खिलाया जायें, पानी पिलाया जायें, उसकी रखवाली भी की जायें, गाय को चारा आप खिलायें नहीं और दूध पीना चाहें तो यह कैसे संभव होगा? पानी पिलाएँ नहीं ठंढ से उसका बचाव करें नहीं, तो कैसे संभव होगा? गाय दूध देती है, यह सही है, लेकिन साथ साथ में यह भी सही है कि इसको परिपुष्ट करने के लियें, दूध पाने के लिए उन तीन चीजों की जरूरत है जो कि मैंने अभी आप से निवेदन किया।
यह विज्ञान पक्ष की बात हुई, अब ज्ञानपक्ष की बात आती है, गायत्री के तीन पाद तीन चरण में तीन शिक्षायें भरी हैं, और ये तीनों शिक्षायें ऐसी हैं कि अगर उन्हें मनुष्य अपने व्यक्तिगत जीवन में समाविष्ट कर सके तो धर्म और अध्यात्म का सारे का सारा रहस्य और तत्त्वज्ञान का उसके जीवन में समाविष्ट होना संभव है, तीन पक्ष त्रिपदा गायत्री हैं, आस्तिकता, आध्यात्मिकता, धार्मिकता, इन तीनों को मिला करके त्रिवेणी संगम बन जाता है, ये क्या हैं तीनों?
पहला है आस्तिकता, आस्तिकता का अर्थ है- ईश्वर का विश्वास, भजन-पूजन तो कई आदमी कर लेते हैं, पर ईश्वर- विश्वास का अर्थ यह है कि सर्वत्र जो भगवान् समाया हुआ है, उसके संबंध में यह दृष्टि रखें कि उसका न्याय का पक्ष, कर्म का फल देने वाला पक्ष इतना समर्थ है कि उसका कोई बीच-बचाव नहीं हो सकता, भगवान सर्वव्यापी है, सर्वत्र है, सबको देखता है, अगर यह विश्वास हमारे भीतर हो तो हमारे लिए पाप कर्म करना संभव नहीं होगा।
हम हर जगह भगवान को देखेंगे और समझेंगे कि उसकी न्याय, निष्पक्षता हमेशा अक्षुण्ण रही है, उससे हम अपने आपका बचाव नहीं कर सकते, इसलिए आस्तिक का, ईश्वर विश्वासी का पहला क्रिया-कलाप यह होना चाहियें कि हमको कर्मफल मिलेगा, इसलिए हम भगवान् से डरें, जो भगवान् से डरता है उसको संसार में और किसी से डरने की जरूरत नहीं होती।
आस्तिकता, चरित्रनिष्ठा और समाजनिष्ठा का मूल है, आदमी इतना धूर्त है कि वह सरकार को झुठला सकता है, कानूनों को झुठला सकता है, लेकिन अगर ईश्वर का विश्वास उसके अंत:करण में जमा हुआ है तो वह बराबर ध्यान रखेगा, हाथी के ऊपर अंकुश जैसे लगा रहता है, आस्तिकता का अंकुश हर आदमी को ईमानदार बनने के लिए, अच्छा बनने के लिए प्रेरणा करता है, प्रकाश देता है।
ईश्वर की उपासना का अर्थ है, जैसा ईश्वर महान है वैसे ही महान ईश्वर के लायक बनने के लिए हम कोशिश करें, हम अपने आप को भगवान में मिलायें, यह विराट विश्व भगवान का रूप है और हम इसकी सेवा करें, सहायता करें ओंर इस विश्व उद्यान को समुन्नत बनाने की कोशिश करें, क्योंकि हर जगह भगवान समाया हुआ है, सर्वत्र भगवान विद्यमान है यह भावना रखने से ”आत्ववत्सर्वभूतेषु” की भावना मन में पैदा होती है, नदी जिस तरीके से अपना समर्पण करने के लिए समुद्र की ओर चल पड़ती है, आस्तिक व्यक्ति, ईश्वर का विश्वासी व्यक्ति भी अपने आप को भगवान में समर्पित करने के लिए चल पड़ता है, इसका अर्थ यह हुआ कि भगवान् की इच्छा? मुख्य हो जाती हैं, व्यक्तिगत महत्त्वाकांक्षायें, व्यक्तिगत कामनायें भगवान् की भक्ति समाप्त कराती हैं और यह सिखाती हैं कि ईश्वर के संदेश, ईश्वर की आज्ञायें ही हमारे लिये सब कुछ होनी चाहिए।
हमें अपनी इच्छा भगवान् पर थोपने की अपेक्षा, भगवान की इच्छा को अपने जीवन में धारण करना सिखें, आस्तिकता के ये बीज हमारे अंदर जमे हुयें हों, तो जिस तरीके से वृक्ष से लिपटकर बेल उतनी ही ऊँची हो जाती है जितना कि ऊँचा वृक्ष है, उसी प्रकार से हम भगवान की ऊँचाई के बराबर ऊँचे चढ़ सकते हैं, जिस तरीके से पतंग अपनी डोरी बच्चे के हाथ में थमाकर आसमान में ऊँचे उड़ती चली जाती है।
जिस तरीके से कठपुतली के धागे बाजीगर के हाथ में बँधे रहने से कठपुतली अच्छे से अच्छा नाच-तमाशा दिखाती है, उसी तरीके से ईश्वर का विश्वास, ईश्वर की आस्था अगर हम स्वीकार करें, हृदयंगम करें और अपने जीवन की दिशाधारायें भगवान् के हाथ में सौंप दें अर्थात भगवान के निर्देशों को ही अपनी आकांक्षायें मान लें तो हमारा उच्चस्तरीय जीवन बन सकता है, और हम इस लोक में शांति और परलोक में सद्गति प्राप्त करने के अधिकारी बन सकते हैं।
आस्तिकता गायत्री मंत्र की शिक्षा का पहला वाला चरण है, इसका दूसरा वाला चरण है आध्यात्मिकता, अध्यात्मिकता का अर्थ होता है- आत्मावलम्बन, अपने आप को जानना, अपने आप को न जानने से हम बाहर भटकते रहते हैं, कई अच्छी आकांक्षाओं को पूरा करने के लियें, अपने दु:खो का कारण बाहर तलाश करते फिरते रहते हैं, जानते नहीं किं हमारी मन स्थिति के कारण ही हमारी परिस्थितियाँ उत्पन्न होती हैं, अगर हम यह जान पाएँ, तब फिर अपने आप को सुधारने के लिए कोशिश करें।
स्वर्ग और नरक हमारे ही भीतर हैं, हम अपने ही भीतर स्वर्ग दबाये हुयें हैं और अपने ही भीतर नरक दबाए हुयें हैं, हमारी मन की स्थिति के आधार पर ही परिस्थितियाँ बनती हैं, कस्तूरी का हिरण चारों तरफ खुशबू की तलाश करता फिरता था, लेकिन जब उसको पता चला कि वह तो नाभि में ही है, तब उसने इधर-उधर भटकना त्याग दिया और अपने भीतर ही ढूँढने लगा।
फूल जब खिलता है तब भौरे आते ही हैं, तितलियों आती हैं, बादल बरसते तो हैं लेकिन जिसके आँगन में जितना पात्र होता है, उतना ही पानी देकर के जाते हैं, चट्टानों के ऊपर बादल बरसते रहते हैं, लेकिन घास का एक तिनका भी पैदा नहीं होता, छात्रवृत्ति उन्हीं को मिलती है जो अच्छे नंबर से पास होते हैं, संसार में सौंदर्य तो बहुत हैं पर हमारी ओंख न हो तो उसका क्या मतलब? संसार में संगीत गायन तो बहुत हैं, शब्द बहुत हैं, पर हमारे कान न हों, तो उन शब्दों का क्या मतलब?
संसार में ज्ञान-विज्ञान तो बहुत हैं, पर हमारा मस्तिष्क न हो तो उसका क्या मतलब ईश्वर उन्हीं की सहायता करता है जो अपनी सहायता आप करते हैं, इसलिये आध्यात्मिकता का संदेश यह है कि हर आदमी को अपने आप को देखना, समझना, सुधारने के लिए भरपूर प्रयत्न करना चाहियें, अपने आपको हम जितना सुधार लेते हैं, उतनी ही परिस्थितियाँ हमारे अनुकूल बनती चली जाती हैं, यह सिद्धांत गायत्री मंत्र का दूसरा वाला चरण है।
तीसरा वाला चरण गायत्री मंत्र का है धार्मिकता, धार्मिकता का अर्थ होता है! कर्तव्यपरायणता, कर्तव्यों का पालन, कर्तृत्व, कर्म और धर्म लगभग एक ही चीज हैं, मनुष्य में और पशु में सिर्फ इतना ही अंतर है कि पशु किसी मर्यादा से बँधा हुआ नहीं है, मनुष्य के ऊपर हजारों मर्यादायें और नैतिक नियम बँधे हैं और जिम्मेदारियाँ लादी गयीं हैं, जिम्मेदारियों को और कर्तव्यों को पूरा करना मनुष्य का कर्तव्य है।
शरीर के प्रति हमारा कर्तव्य है कि इसको हम नीरोग रखें, मस्तिष्क के प्रति हमारा कर्तव्य है कि इसमें अवांछनीय विचारों को न आने दें, परिवार के प्रति हमारा कर्तव्य है कि उनको सद्गुणी बनायें देश, धर्म, समाज और संस्कृति के प्रति हमारा कर्तव्य है कि उन्हें भी समुन्नत बनाने के लिए भरपूर ध्यान रखें, लोभ और मोह के पास से अपने आप को छुड़ा करके अपनी जीवात्मा का उद्धार करना, यह भी हमारा कर्तव्य है, भगवान ने जिस काम के लिए हमको इस संसार में भेजा है, जिस काम के लिए मनुष्य योनि में जन्म दिया है, उस काम को पूरा करना भी हमारा कर्तव्य है।
इन सारे के सारे कर्तव्यों को अगर हम ठीक तरीके से पूरा न कर सके तो हम धार्मिक कैसे कहला सकेंगे? धार्मिकता का अर्थ होता है कर्तव्यों का पालन करना, हमने सारे जीवन में गायत्री मंत्र के बारे में जितना भी विचार किया, शास्त्रों को पढ़ा, सत्संग किया, चिंतन- मनन किया, उसका सारांश यह निकला कि बहुत सारा विस्तार ज्ञान का है, बहुत सारा विस्तार धर्म और अध्यात्म का है, लेकिन इसके सार में तीन चीजें समाई हुई हैं।
आस्तिकता अर्थात ईश्वर पर विश्वास,आध्यात्मिकता अर्थात स्वावलंबन, आत्मबोध और अपने आप को परिष्कृत करना, अपनी जिम्मेदारियों को स्वीकार करना और धार्मिकता अर्थात कर्तव्यपरायणता, कर्तव्य परायण, स्वावलंबी और ईश्वरपरायण कोई भी व्यक्ति गायत्री मंत्र का उपासक कहा जा सकता है और गायत्री मंत्र के ज्ञानपक्ष के द्वारा जो शांति और सद्गति मिलनी चाहिये उसका अधिकारी बन सकता है, हमारे जीवन का यही निष्कर्ष हैं।
विज्ञान पक्ष में तीन धारायें और ज्ञानपक्ष में तीन धारायें, इनको जो कोई प्राप्त कर सकता हो, गायत्री मंत्र की कृपा से निहाल बन सकता है और ऊँची से ऊँची स्थिति प्राप्त करके इसी लोक में स्वर्ग और मुक्ति का अधिकारी बन सकता है, ऐसा हमारा अनुभव, ऐसा हमारा विचार और ऐसा हमारा विश्वास है।
जय माँ गायत्री!
- आचार्य दयानंद शास्त्री