गीताप्रेस गोरखपुर के संस्थापक भाई हनुमान प्रसाद पोद्दार की पुण्यतिथि पर विशेष
भारत ही नहीं, विश्व भर में हिन्दू धर्मग्रन्थों को शुद्ध पाठ एवं छपाई में बहुत कम मूल्य पर पहुंचाने का श्रेय हनुमान प्रसाद पोद्दार (भाई जी) को जाता है। भाई का जन्म शिलांग में 17 सितम्बर, 1892 को हुआ था। उनके पिता श्री भीमराज और माता का नाम श्रीमति रिखीबाई था। दो वर्ष की अवस्था में ही हनुमान प्रसाद पोद्दार की माताजी का देहान्त हो गया।
बंग–भंग से प्रेरित होकर लिया स्वदेशी व्रत
मात्र 13 साल की आयु में भाई जी ने बंग–भंग से प्रेरित होकर स्वदेशी व्रत लिया और फिर जीवन भर उसका पालन किया। केवल उन्होंने ही नहीं, बल्कि उनकी पत्नी ने भी इस व्रत को निभाया और घर की विदेशी वस्तुओं की होली जला दी। भाई जी के तीन विवाह हुए थे प्रथम दो पत्नियों का जीवन अधिक नहीं रहा, लेकिन तीसरी पत्नी ने उनका जीवन भर साथ दिया।
हिंदू महासभा के मंत्री बने, जेल भी जाना पड़ा
1912 में भाई जी अपना पुश्तैनी कारोबार संभालने के लिए कोलकाता आ गए। 1914 में उनका सम्पर्क महामना मदनमोहन मालवीय से हुआ और वे हिन्दू महासभा में सक्रिय हो गए। 1915 में भाई जी हिन्दू महासभा के मन्त्री बने।
कोलकाता में उनका सम्पर्क पंडित गोविन्द नारायण मिश्र, बालमुकुन्द गुप्त, अम्बिका प्रसाद वाजपेयी, झाबरमल शर्मा, लक्ष्मण नारायण गर्दे, बाबूराव विष्णु पराड़कर जैसे सम्पादक और विद्वान साहित्यकारों से हुआ। अनुशीलन समिति के सदस्य के नाते उनके सम्बन्ध डॉ. हेडगेवार, अरविन्द घोष, सुरेन्द्रनाथ बनर्जी, विपिनचन्द्र पाल, ब्रह्मबान्धव उपाध्याय आदि स्वन्तत्रता सेनानियों और क्रान्तिकारियों से लगातार बने रहते थे। जब वे रोडा कम्पनी में कार्यरत थे, तो उन्होंने विदेशों से आयी रिवॉल्वरों की एक पूरी खेप क्रान्तिकारियों को सौंप दी। इस पर उन्हें राजद्रोह के आरोप में दो साल के लिए अलीपुर जेल में बन्द कर दिया गया।
कल्याण पत्रिका से हुई शुरुआत
1918 में भाई जी व्यापार के लिए मुम्बई आ गए। यहां सेठ जयदयाल गोयन्दका के सहयोग से अगस्त, 1926 में धर्मप्रधान विचारों पर आधारित ‘कल्याण’ नामक मासिक पत्रिका प्रारम्भ की। कुछ वर्ष बाद गोरखपुर आकर उन्होंने गीताप्रेस की स्थापना की। इसके बाद ‘कल्याण’ का प्रकाशन गोरखपुर से होने लगा। 1933 में चिम्मनलाल गोस्वामी के सम्पादन में अंग्रेजी में ‘कल्याण कल्पतरू’ मासिक पत्रिका प्रारम्भ हुई।
ये सभी पत्रिकाएं आज भी बिना विज्ञापन के निकल रही हैं। गीताप्रेस ने बच्चों, युवाओं, महिलाओं और बुजुर्गों के लिए बेहद कम कीमत पर संस्कारक्षम साहित्य प्रकाशित कर नया उदाहरण पेश किया।
हिंदू धर्मग्रंथों की शुद्धता की परंपरा की शुरू
हिन्दू धर्मग्रन्थों में पाठ भेद और गलतियों से भाई जी को बहुत कष्ट होता था। इसलिए उन्होंने तुलसीकृत श्री रामचरितमानस की जितनी हस्तलिखित प्रतियां मिल सकीं, एकत्र की और विद्वानों को बैठाकर ‘मानस पीयूष’ नामक उनका शुद्ध पाठ, भावार्थ एवं टीकाएं तैयार कराईं। फिर इन्हें कई आकारों में प्रकाशित किया, जिससे हर कोई उससे लाभान्वित हो सके। प्रिंटिंग की भूल को कलम से शुद्ध करने की परम्परा भी उन्होंने गीता प्रेस से प्रारम्भ की।
नाम मात्र मूल्य पर धर्मग्रंथ प्रकाशन से समाज सेवा
उन्होंने श्रीमद्भगवद्गीता के भी अनेक संस्करण निकाले। इसके साथ ही 11 उपनिषदों के शंकर भाष्य, वाल्मीकि रामायण, अध्यात्म रामायण, महाभारत, विष्णु पुराण आदि धर्मग्रन्थों को लागत मूल्य पर छापकर उन्होंने हिन्दू समाज की अनुपम सेवा की। वे ऐसी व्यवस्था भी कर गए, जिससे उनके बाद भी यह कार्य चलता रहे। 22 मार्च, 1971 को हनुमान प्रसाद पोद्दार (भाई जी) का शरीरान्त हुआ।
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रिपोर्ट– डॉ. देवेन्द्र शर्मा
ईमेल: sharmadev09@gmail.com
विशेष आभार– डॉ. जया दवे, अध्यक्ष, राजस्थान संस्कृत अकादमी