गुरु पूर्णिमा विशेष: भगवान शिव ने ही की थी गुरु शिष्य परम्परा की शुरुआत
भगवान शिव जगत के गुरु हैं.उन्हें आदि गुरु भी कहा जाता है. भगवान शिव के कारण ही गुरु पूर्णिमा का महत्त्व माना जाता है . कहते हैं कि सबसे पहले भगवान शिव ने अपना ज्ञान 7 लोगों को दिया था. जो आगे चलकर ब्रह्मर्षि कहलाए. इन्ही सात ऋषियों ने शिव शंकर से ज्ञान प्राप्त कर अलग-अलग दिशाओं में इस ज्ञान का प्रचार किया. उन्होंने विश्व के कोने-कोने में शैव धर्म, योग और वैदिक ज्ञान का प्रचार-प्रसार किया. परशुराम और रावण भी शिव के शिष्य थे.
शिव ने ही गुरु और शिष्य परंपरा की शुरुआत की थी जिसके चलते आज भी नाथ, शैव, शाक्त आदि सभी संतों में उसी परंपरा का निर्वाह होता आ रहा है. आदिगुरु शंकराचार्य और गुरु गोरखनाथ ने इसी परंपरा और आगे बढ़ाया.
सप्त ऋषियों के नाम: बृहस्पति, विशालाक्ष (शिव), शुक्र, सहस्राक्ष, महेन्द्र, प्राचेतस मनु, भरद्वाज इसके अलावा 8वें गौरशिरस मुनि भी थे. उल्लेखनीय है कि हर काल में अलग-अलग सप्त ऋषि हुए हैं. उनमें भी जो ब्रह्मर्षि होते हैं उनको ही सप्तर्षियों में गिना जाता है.
सप्त ब्रह्मर्षि देवर्षि, महर्षि, परमर्षय:
कण्डर्षिश्च श्रुतर्षिश्च राजर्षिश्च क्रमावश:
अर्थात : 1. ब्रह्मर्षि, 2. देवर्षि, 3. महर्षि, 4. परमर्षि, 5. काण्डर्षि, 6. श्रुतर्षि और 7. राजर्षि. वैदिक काल में ये 7 प्रकार के ऋषिगण होते थे.
सबसे पहले मोक्ष या निर्वाण की प्राप्ति भगवान शिव ने ही की . आदि योगी शिव ने ही इस संभावना को जन्म दिया कि मानव जाति अपने मौजूदा अस्तित्व की सीमाओं से भी आगे जा सकती है. सांसारिकता में रहना है, लेकिन इसी का होकर नहीं रह जाना है. अपने शरीर और दिमाग का हरसंभव इस्तेमाल करना है, लेकिन उसके कष्टों को भोगने की जरूरत नहीं है. ये शिव ही थे जिन्होंने मानव मन में योग का बीज बोया.
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ब्रह्मर्षि कैसे बनें भगवान शिव के शिष्य
योग विद्या के अनुसार 15 हजार साल से भी पहले शिव ने सिद्धि प्राप्त की थी. इस अद्भुत निर्वाण या कहें कि परमानंद की स्थिति में पागलों की तरह हिमालय पर नृत्य किया था. फिर वे पूरी तरह से शांत होकर बैठ गए. उनके इस अद्भुत नृत्य को उस दौर और स्थान के कई लोगों ने देखा. देखकर सभी के मन में जिज्ञासा जाग उठी कि आखिर ऐसा क्या हुआ कि वे पागलों की तरह अद्भुत नृत्य करने लगे.
आखिरकार लोगों की दिलचस्पी बढ़ी और इसे जानने को उत्सुक होकर धीरे-धीरे लोग उनके पास पहुंचे लेकिन शिवजी ने उन पर ध्यान नहीं दिया, क्योंकि आदि योगी तो इन लोगों की मौजूदगी से पूरी तरह बेखबर परमानंद में लीन थे. उन्हें यह पता ही नहीं चला कि उनके इर्द-गिर्द क्या हो रहा है. लोग इंतजार करते रहे और फिर लौट गए. लेकिन उन लोगों में से 7 लोग ऐसे भी थे, जो उनके इस नृत्य का रहस्य जानना ही चाहते थे. लेकिन शिव ने उन्हें नजरअंदाज कर दिया, क्योंकि वे अपनी समाधि में लीन थे.
कठिन इंतजार के बाद जब शिव ने आंखें खोलीं तो उन्होंने शिवजी से उनके इस नृत्य और आनंद का रहस्य पूछा. शिव ने उनकी ओर देखा और फिर कहा, ‘यदि तुम इसी इंतजार की स्थिति में लाखों साल भी गुजार दोगे तो भी इस रहस्य को नहीं जान पाआगे, क्योंकि जो मैंने जाना है वह क्षणभर में बताया नहीं जा सकता और न ही उसे क्षणभर में पाया जा सकता है. वह कोई जिज्ञासा या कौतूहल का विषय नहीं है.’
ये 7 लोग भी हठी और पक्के थे. शिव की बात को उन्होंने चुनौती की तरह लिया और वे भी शिव के पास ही आंखें बंद करके रहते. दिन, सप्ताह, महीने, साल गुजरते गए, लेकिन शिव थे कि उन्हें नजरअंदाज ही करते जा रहे थे.
84 साल की लंबी साधना के बाद ग्रीष्म संक्रांति के शरद संक्रांति में बदलने पर पहली पूर्णिमा का दिन आया, जब सूर्य उत्तरायण से दक्षिणायण में चले गए. पूर्णिमा के इस दिन आदि योगी शिव ने इन 7 तपस्वियों को देखा तो पाया कि साधना करते-करते वे इतने पक चुके हैं कि ज्ञान हासिल करने के लिए तैयार हैं. अब उन्हें और नजरअंदाज नहीं किया जा सकता था.
शिव ने उन सातों को अगले 28 दिनों तक बेहद नजदीक से देखा और अगली पूर्णिमा पर उनका गुरु बनने का निर्णय लिया. इस तरह शिव ने स्वयं को आदिगुरु में रूपांतरित कर लिया, तभी से इस दिन को ‘गुरु पूर्णिमा’ कहा जाने लगा.