आत्मजागृति का पर्व – गुरु पूर्णिमा
- पं० श्रीराम शर्मा आचार्य
आषाढ़ पूर्णिमा को गुरु पूर्णिमा का पर्व मनाया जाता है। हिन्दू धर्म में प्रचलित अन्य सभी त्यौहारों की अपेक्षा इसका महत्त्व अधिक माना गया है; क्योंकि सन्मार्ग के प्रेरक सभी व्रतों, पर्वों, त्योहारों में लाभ तभी उठाया जा सकता है, जब सद्गुरुओं द्वारा उनकी उपयोगिता एवं आवश्यकता सर्वसाधारण को अनुभव कराई जा सके।
सद्ïगुरु की महिमा गाते-गाते शास्त्रकार थकते नहीं। मनीषियों ने निरन्तर यही कहा है कि आत्मिक प्रगति के लिए गुरु की सहायता आवश्यक है। इसके बिना आत्म-कल्याण का द्वार खुलता नहीं और न ही साधन सफल होता है। सामान्य जीवन-क्रम में माता, पिता और गुरु को देव माना गया है और उनकी अभ्यर्थना समान रूप से करते रहने का निर्देश दिया गया है।
सामान्य अर्थ में शिक्षक को गुरु कहते हैं। साक्षरता का अभ्यास कराने वाले, शिल्प, उद्योग, कला, व्यायाम आदि क्रियाकौशलों की शिक्षा देने वाले गुरु ही होते हैं। तीर्थगुरु, ग्रामगुरु कितने ही नियमित वर्ग भी बन गये हैं। असाधारण चातुर्य में प्रवीण व्यक्ति को भी व्यंग में ‘गुरु’ कहते हैं जिसका वास्तविक अर्थ होता है हरफनमौला, तिकड़मी या धूर्तराज। कितने ही धर्म की आड़ में चेली-चेला बनाने का धन्धा परम्परा के आधार पर ही चलाते हैं। हमारा बाप तुम्हारे बाप का गुरु था, इसलिए हम तुम्हारे गुरु बनेंगे। यह दावा करने वाला और इसी तर्क से प्रभावित करके धन्धा चलाने वाला एक बहुत बड़ा वर्ग मौजूद है। परम्परावादी लोगों के गले यह दलील उतर भी जाती है और वे योग्य-अयोग्य का विचार किए बिना इन तथाकथित गुरुओं का नमन करते हुए भेंट-पूजा करते रहते हैं।
परन्तु जिस सद्गुरु का माहात्म्य-वर्णन शास्त्रकारों ने किया है, वह वस्तुत: मानवीय अन्त:करण ही है। निरन्तर सद्ïशिक्षण और ऊध्र्वगमन का प्रकाश दे सकना इसी केन्द्र-तत्व के लिए संभव है। बाहर के गुरु-शिष्य की वास्तविक मन:स्थिति का बहुत ही स्वल्प परिचय प्राप्त कर सकते हैं। अस्तु, उनके परामर्श भी अधूरे ही रहेंगे। फिर कोई बाहरी गुरु हर समय शिष्य के साथ नहीं रह सकता, जबकि उसके सामने निरूपण और निराकरण के लिए अगणित समस्याएँ पग-पग पर, क्षण-क्षण में प्रस्तुत होती रहती हैं। इनमें से किसका, किस प्रकार समाधान किया जाय, इसका मार्गदर्शन करने के लिए किसी व्यक्ति विशेष पर निर्भर नहीं रहा जा सकता, भले ही वह कितना ही सुयोग्य क्यों न हो।
अपने अन्त:करण को निरन्तर कुचलते रहने, उसकी पुकार को अनसुनी करते रहने से आत्मा की आवाज मंद पड़ जाती है। पग-पग पर अत्यन्त आवश्यक और अत्यन्त महत्त्वपूर्ण प्रकाश देते रहने का उसका क्रम शिथिल हो जाता है। अन्यथा सजीव आत्मा की प्रेरणा सामान्य स्थिति में इतनी प्रखर होती है कि कुमार्ग का अनुसरण कर सकना मनुष्य के लिए संभव ही नहीं होता। यह आत्मिक प्रखरता ही वस्तुत: सद्ïगुरु है। इसी का नमन-पूजन और परिपोषण करना गुरु-भक्ति का यथार्थ स्वरूप है।
गुरु-दीक्षा इस व्रत धारण का नाम है कि ‘हम अन्तरात्मा की प्रेरणा का अनुसरण करेंगे। ऐसा निश्चय करने वाला व्यक्ति मानवोचित चिन्तन और कत्र्तव्य से विरत नहीं हो सकता। जैसे ही अचिन्त्य चिन्तन मन:क्षेत्र में उभरता है, वैसे ही प्रतिरोधी देव-तत्व उसके दुष्परिणाम के संबंध में सचेत करता है और भीतर ही भीतर एक अन्तद्र्वंद्व उभरता है।
अनैतिक और निकृष्टï स्तर का कोई विचार उस मस्तिष्क में देर तक अपने पैर नहीं जमा सकता, जिसका संरक्षण आन्तरिक ‘सद्गुरु’ सतर्कतापूर्वक कर रहा है। सद्विचारों की रक्षा पंक्ति को भेदकर मानवीय चेतना पर दुर्विचारों का आधिपत्य जम सकना तभी सम्भव होता है, जब अन्तरात्मा मूर्छित या मृतक स्थिति में पहुँचा दी गई हो।
कुकर्म करते समय, शरीरगत दिव्य चेतना का विद्रोह देखते ही बनता है। पैर काँपते हैं, दिल धड़कता है, गला सूखता है, सिर चकराता है तथा और भी न जाने क्या-क्या होता है। ध्यानपूर्वक देखने से कुकर्म के लिए कदम बढ़ाते समय की भीतरी स्थिति ऐसी होती है, मानो किसी निरीह पशु का वध करने के लिए जाते समय कातर स्थिति में देखा जा रहा हो।
सामान्य व्यक्तियों में अधिकांश की आन्तरिक स्थिति ऐसी हो जाती है कि वे उस अवांछनीय कार्य को पूरा कर ही नहीं पाते; अधूरा छोड़कर अथवा असफल होकर वापिस लौट आते हैं। वस्तुत: यह पराजय, यह असफलता उस अन्तद्र्वन्द्व से ही उत्पन्न होती है, जो कुकृत्य न करने के पक्ष में प्रबल प्रतिपादन कर रहा था। ‘सद्ïगुरु डूबते को उबारते हैंÓ वाली उक्ति ऐसे ही अवसरों पर सर्वथा लागू होती है।
अस्तु, ‘गुरु’ शब्द का अर्थ किसी बाहरी गुरु की अपेक्षा अपने अन्त:करण का करना अधिक उचित बैठता है। अत: अपने अन्त:करण को परिष्कृत-परिमार्जित करके उस शुद्ध हुई अन्तरात्मा की आवाज पर ध्यान देना चाहिए। गुरु पूर्णिमा के पवित्र अवसर पर चलिए, हम स्वयं को पवित्र करने और अपने अन्दर के गुरु से मार्गदर्शन लेना प्रारम्भ करते हैं।
(गायत्रीतीर्थ शान्तिकुञ्ज, हरिद्वार)