फाल्गुन शुक्ल पक्ष द्वादशी को गोकुल में प्रसिद्ध छड़ीमार होली खेली जाती है. यहां गोपियों के हाथ में लट्ठ नहीं, बल्कि छड़ी होती है और होली खेलने आए कान्हाओं पर गोपियां छड़ी बरसाती हैं. यहां लाठी की जगह छड़ी से होली खेली जाती है. मान्यता है कि बालकृष्ण को लाठी से कहीं चोट ना लग जाए, इसलिए यहां लाठी की जगह छड़ी से होली खेलने की परंपरा है.
गोकुल में होली के रंग में डूबा आस्था और भक्ति का नज़ारा देखते ही बनता है. यहां कृष्ण भक्ति के अनोखे रंग देखने को मिलते हैं. अबीर गुलाल से पहले छड़ीमार होली में मगन गांव की गोपियां सज-धज कर हाथों में छड़ियां लेकर पूरे गाजे बाजे के साथ निकलती हैं. गोकुल में छड़ीमार होली का उत्सव एक परंपरा बन चुका है, जो सदियों से जारी है. ये होली खुद में अनोखी विरासत को समेटे हुए है. आज भी गोकुल की छड़ीमार होली में श्रीकृष्ण के बालरूप की झलक मिलाती है.
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गोकुल बालकृष्ण की नगरी है. बालगोपाल का यहां बचपन गुजरा है. इसलिए गोकुल में उनके बालस्वरूप को ज़्यादा महत्व दिया जाता है. गोकुल के छैल छबीलों को गोपियां खूब छका देती हैं. कान्हा की पालकी और पीछे सजी-धजी गोपियां हाथों में छड़ी लेकर चलती हैं. दरअसल, कृष्ण-बलराम ने यहां ग्वालों और गोपियों के साथ होली खेली थी. कान्हा के रूप को याद करते हुए यहां छड़ीमार होली खेली जाती है. होली खेलते हुए गोपियां ये भी ख्याल रखती हैं कि कहीं कृष्ण लल्ला को चोट न लग जाए.
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गोकुल में होली द्वादशी से शुरू होकर धुलेंडी तक चलती है. कहा जाता है कि इस दौरान कृष्ण भगवान सिर्फ़ एक दिन यानी द्वादशी को बाहर निकलकर होली खेला करते थे. गोकुल में बाक़ी के दिन होली मंदिर में ही खेली जाती है. सैकड़ों साल से चली आ रही इस होली परंपरा की सबसे खास बात ये है कि जब भगवान बगीचे में बैठकर भक्तों के साथ होली खेलते हैं, तो हुरियारिन भगवान और श्रद्धालुओं के साथ छड़ी से होली खेलती हैं. इस दौरान पूरे ब्रज में सिर्फ़ इसी जगह ही लट्ठ की बजाय छड़ीमार होली खेली जाती है. ढोल नगाड़ों की थाप पर सब थिरकते हुए नंद नंदन को लेकर चलते हैं. कान्हा ने जहां अपने बचपन की लीलाएं की उसी गांव में इस दिव्य होली में रंगने के लिए दूर-दूर से श्रद्धालु यहां आते हैं. रंगों की बौछार से श्रद्धालुओं का रोम-रोम गोकुल की होली के रंग में रंग जाता है.
छड़ियों की होली के बाद भगवान की झांकी के दर्शन का अद्भुत नजारा होता है. कन्हैया की जय-जयकार से गोकुल की गलियां गूंज उठती हैं. देश के कोने-कोने से श्रद्धालु होली खेलने ब्रजभूमि पहुंचते हैं. छड़ीमार होली गोकुल के मुरलीधर घाट से शुरू होती है. माना जाता है कि इसी घाट पर कान्हा ने सबसे पहले अपने अधरों पर मुरली रखी थी. पहले यहां होरंगा खेला जाता है यानि गोपियां कान्हा बने होरियारों पर प्यार से छड़ियां बरसाती हैं. इसके बाद रंग-गुलाल से होली खेलने का दौर शुरू होता है. यहां एक बार आने वाले भक्त हर साल यहां खींचे चले आते हैं. कहा जाता है कि ब्रज की होली में एक बार रंग जाने वाले पर कभी कोई दूसरा रंग नहीं चढ़ता है. यहां के प्यार भरे गुलाल में श्री कृष्ण का आशीर्वाद समाया होता है. छड़ीमार होली के हुड़दंग के बीच भजन लोकगीत भी चलता है. आस्था और रंगों के इस अनोखे मिलन के साक्षी बनने के लिए देश और दुनिया के कोन-कोने से श्रद्धालु हर साल यहां पहुंचते हैं, क्योंकि ब्रज के इस रंगोत्सव में रमने का मौका कोई गंवाना नहीं चाहता है.
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