कैसे हुई स्वामी रामदेव और आचार्य बालकृष्ण की मित्रता ?
- कैसे हुई स्वामी रामदेव और आचार्य बालकृष्ण की मित्रता
- कहां मिले स्वामी रामदेव और आचार्य बालकृष्ण पहली बार
- कैसे दोनों पहुंचे हरिद्वार
- स्वामी रामदेव को उनके गुरु शंकरदेव जी कैसे मिले
- कैसे शुरु हुई दोनों की आध्यात्मिक यात्रा
धर्म की दुनिया में रिश्ते नाते छोड़कर व्यक्ति प्रवेश करता है और बाहरी भावनाओं और भौतिक संबंधों के बीच एक सादा जीवन जीता है। लेकिन हर संत के लिए संन्यास के बाद बनने वाले संंबंधों में एक आध्यात्मिकता का भाव विकसित होता है। ऐसी ही दोस्ती या आध्यात्मिकता भरा एक रिश्ता दो संतों के बीच बना, जिसने आज जगत को काफी सबलता दी है। स्वामी रामदेव और आचार्य बालकृष्ण का आध्यात्मिक रिश्ता धर्म की परिभाषा के हर धरातल पर सबल दिखता है। आज जब विश्व मित्रता दिवस मना रहा है, तो इन दोनों संतों की मित्रता या निजता के किस्से को जानते हैं।
स्वामी रामदेव का जन्म हरियाणा के महेन्द्रगढ़ जिले में हजारीबीग अली सैयदपुर में हुआ और आचार्य बालकृष्ण का हरिद्वार में जहां से वे बहुत छोटी आयु में नेपाल चल गए। जहां स्वामी रामदेव का असली नाम राम किशन यादव था तो आचार्य बालकृष्ण का जन्म का नाम नारायण प्रसाद सुबेदी था। आप दोनों की पहली मुलाकात आज से 30 साल पहले हरियाणा के गुरुकुल में हुई थी। पढ़ाई के दौरान दोनों में गहरी दोस्ती हो गई। स्वामी रामदेव हरियाणा के इसी गुरुकुल में शिक्षक रहे और इसके बाद वे हरिद्वार आए, इसी दौरान आचार्य बालकृष्ण काशी अध्ययन के लिए चले गए। दोनों ब्रह्मचारी दोबारा हरिद्वार में मिले। और पुरानी पहचान यहीं से एक आध्यात्मिक गठबंधन में बदल गई।
नब्बे दशक में स्वामी रामदेव जहां योग पर कार्य करने को उत्सुक थे, वहीं आचार्य बालकृष्ण आयुर्वेद के लिए जीवन समर्पित करना चाहते थे। दोनों संत उत्तराखंड के कई हिस्सों में समय बिताते रहे। कभी गंगोत्री में कई महीनों रहते, साधना करते, कभी गंगा के किनारे हरिद्वार के आश्रम में गर्मी में प्रवास करते। हरिद्वार उनके लिए अपनी आध्यात्मिक उत्थान के लिए चुनी गई जगह थी। दोनों के लिए एक संयोग ने बहुत ही बड़ा काम किया, खानपुर गुरुकुल में संग पढ़ना। वहीं से बहुत सारी चीजें तय हो गई थी। हरियाणा के खानपुर गुरुकुल में आने का रास्ता आचार्य बालकृष्णजी के लिए पानीपत के एक रिश्तेदार के जरिए बना। खानपुर गुरूकुल आने से पहले वे युसुफसराय गुरुकुल गए थे, पर वहां मन नहीं लगा और फिर वे आ गए खानपुर, जहां वे पहली बार स्वामी रामदेव से मिले। स्वामी रामदेव आचार्यजी से वरिष्ठ थे। आचार्यजी की यात्रा में अगला पड़ाव था गुरुकुल कालवा जहां के बाद वे काशी जाकर अध्ययन करने लगे। खानपुर में यशदेव शास्त्री जी भी थे, जो आज भी स्वामीजी और आचार्य जी के संग है।
खानपुर गुरूकुल में स्वामी रामदेव और आचार्य बालकृष्ण की दोस्ती या अपनत्व के कारण दोनों का संपर्क और संवाद इसके बाद पत्राचार से बना रहा। स्वामी जी इस दौरान खानपुर गुरुकुल में अपनी मेधा से शिक्षण का कार्य भी करने लगे। एक दिन दोनों ने गंगोत्री में जाकर साधना की ठानी। स्वामी जी हरियाणा से और आचार्य जी काशी से हरिद्वार पहुंचे और फिर गंगोत्री जाकर गंगाधाट के पास गुफा में साधना शुरू की। ये कई महीने चलती थी। जब शीतकाल में बर्फबारी शुरू होती तो दोनों संत हरिद्वार आकर दक्ष मंदिर के पास स्वामी अमलानंदजी के त्रिपुरा योग आश्रम में रूकते थे। वहीं दिनभर सेवा, साधना और चिंतन मनन चलता। इसी आश्रम में स्वामी शंकरदेव जी का आना जाना होता था। किसी भी धार्मिक आयोजन पर भंडारा होता तो आसपास के संत आते। ऐसे आयोजनों में स्वामी जी और आचार्य जी जमकर कार्य करते और अपनी क्षमता से सबकुछ सकुशल संपन्न करते। यहीं पर स्वामी शंकरदेव जी की नजर स्वामी रामदेव पर पड़ी। हिंदू धर्म की गुरु-शिष्य परंपरा में हर गुरू को एक योग्य और उचित शिष्य की तलाश रहती है। गुरुकुल यमुनागर के संचालक आचार्य राजकिशोर शास्त्री जी की भूमिका इस गुरु और शिष्य को जोड़ने में बड़ी ही खास रही। वे गुरुकुल कांगड़ी में थे और हरिद्वार ही रहते और शंकरदेव जी को जानते थे। उन्होंने स्वामी रामदेव जी के विषय में शंकरदेव जी को बताया। उनकी प्रतिभा से अवगत कराया। इन सारी बातों को समझने और स्वयं से देखने के बाद शंकरदेव जी ने तय कर लिया था कि वे स्वामी रामदेव जी को ही अपना उत्तराधिकारी बनाएंगे। शंकरदेव जी ने तो बाकायदा इसके कोर्ट से उनको उत्तराधिकारी बनाने के पेपर भी तैयार करवा लिए थे। पर स्वामी जी ने पहले मना कर दिया था। लेकिन बाद में सबके समझाने के बाद उन्होनें 1995 में शंकरदेव जी से बाकायदा दीक्षा ली।
स्वामी रामदेव, आचार्य बालकृष्ण, आचार्यकर्मवीर और यशदेव शास्त्री सभी कृपालु बाग आश्रम में रहने लगे।आचार्य कर्मवीर इससे पहले ज्वालापुर के वानप्रस्थ आश्रम में रहते थे। शंकरदेव जी के आश्रम में हरिशचंद्र शास्री जी भी रहा करते थे।इसके बाद स्वामी रामदेव जी के छोटे भ्राता रामभरत जी भी हरिद्वार आए और यही शिक्षा लेने लगे। शंकरदेव जी के आश्रम में व्यवस्था बनाने में इन लोगों ने खास योगदान दिया।
1995 में ही दिव्य योग फार्मेसी बनी और आयुर्वेदिक दवाइयों का उत्पादन शुरू हुआ। इसके बाद हर साल दोनों संतों ने दिन दूनी रात चौगुनी उन्नति की है। आज हम दोनों संतों को एक प्राण और दो देह के तौर पर देखते हैं।
लेखक – भव्य श्रीवास्तव, संस्थापक, रिलीजन वर्ल्ड
ईमेल – bhavya@religionworld.in