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कैसा था भगवान राम का अयोध्या से रामेश्वरम तक का सफ़र

अयोध्या में भगवान राम की जन्मभूमि में श्रीराम मंदिर के भूमिपूजन की तैयारियां ज़ोरों पर हैं। 5 अगस्त को प्रधनमंत्री श्री नरेन्द्र मोदी इस भूमिपूजन का हिस्सा बनेंगे। जैसा कि सब जानते हैं कि भगवान राम का जन्मस्थ्ल अयोध्या है । त्रेता युग में श्रीराम ने कई ऋषि-मुनियों से शिक्षा और विद्या ग्रहण की, तपस्या की । माता कैकेयी के कहने पर मर्यादा पुरुषोत्तम प्रभु श्रीराम को 14  वर्ष का वनवास हुआ था।और इसी दौरान भारतवर्ष के आदिवासी, वनवासी और तमाम तरह के समाज को संगठित कर उन्हें धर्म के मार्ग पर चलाया था।



श्रीराम और सीता के जीवन की घटनाओं से जुड़े ऐसे स्थान आज भी तत्संबंधी स्मारक स्थल विद्यमान हैं, जहां श्रीराम और सीता रुके या रहे थे। वहां के स्मारकों, भित्तिचित्रों, गुफाओं आदि स्थानों के समय-काल की जांच-पड़ताल वैज्ञानिक तरीकों से होती रही है। इनमें प्रथम 5 उत्तर प्रदेश में स्थित है। छठा, सातवाँ और आठवां मध्य प्रदेश में नवां और दसवां छत्तीसगढ में, ग्यारहवां , बारहवां और तेरहवां महाराष्ट्र में, चौदहवां और पन्द्रहवां आंध्रप्रदेश में, सोलहवां केरल में सत्रहवां कर्नाटक में, 18वें से लेकर 20वें तक तमिलनाडु में और आखिरी इक्कीसवां श्रीलंका में स्थित है।
तो चलिए शुरू करते हैं श्रीराम का अयोध्या से अन्य प्रदेशों तक के सफ़र के बार में-

उत्तर प्रदेश

कैसा था भगवान राम का अयोध्या से रामेश्वरम तक का सफ़रतमसा नदी
यह नदी अयोध्या से जिले की सीमा दराबगंज तक वनगमन यात्रा 35 किलोमीटर का सफर तय करती है। राम को जब वनवास हुआ तो वाल्मीकि रामायण और शोधकर्ताओं के अनुसार वे सबसे पहले तमसा नदी पहुंचे , जो अयोध्या से 20 किमी दूर फैजाबाद के महादेवा घाट पर है। यहां पर उन्होंने नाव से नदी पार की। तमसा नदी पार करते हुए भगवान राम ने जिस घाट पर वन-गमन का पहला रात्रि प्रवास किया था, वह स्थल रामचौरा के नाम से जाना जाता है। 1985 में तत्कालीन मुख्यमंत्री नारायणदत्त तिवारी ने 42 लाख की लागत से इस स्थल का पर्यटन की दृष्टि से विकास कराया था।

श्रृंगवेरपुर (सिंगरौर)
श्रीराम  गोमती नदी पार करके प्रयागराज (इलाहाबाद) से 20-22 किलोमीटर दूर श्रृंगवेरपुर पहुंचे , जो निषादराज गुह का राज्य था। यहीं पर गंगा के तट पर उन्होंने केवट से गंगा पार कराने को कहा था। श्रृंगवेरपुर को वर्तमान में सिंगरौर कहा जाता है। रामायण में इस नगर का उल्लेख आता है। यह नगर गंगा घाटी के तट पर स्थित था। महाभारत में इसे तीर्थस्थल कहा गया है।

कुरई
इलाहाबाद जिले में ही कुरई नामक एक स्थान है, जो सिंगरौर के निकट गंगा नदी के तट पर स्थित है। गंगा के उस पार सिंगरौर तो इस पार कुरई। सिंगरौर में गंगा पार करने के पश्चात श्रीराम इसी स्थान पर उतरे थे। इस ग्राम में एक छोटा-सा मंदिर है, जो स्थानीय लोकश्रुति के अनुसार उसी स्थान पर है, जहां गंगा को पार करने के पश्चात राम, लक्ष्मण और सीताजी ने कुछ देर विश्राम किया था।

प्रयाग
कुरई से आगे चलकर श्रीराम अपने भाई लक्ष्मण और पत्नी सहित प्रयाग पहुंचे  थे। प्रयाग को पहले इलाहाबाद लेकिन अब पुनः प्रयागराज कहा जाता है। यहां गंगा-जमुना का संगम स्थल है। हिन्दुओं का यह सबसे बड़ा तीर्थस्थान है। प्रभु श्रीराम ने संगम के समीप यमुना नदी को पार किया और फिर पहुंच गए चित्रकूट। यहां स्थित स्मारकों में शामिल हैं- वाल्मीकि आश्रम, मांडव्य आश्रम, भरतकूप इत्यादि।

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चित्रकूट

कैसा था भगवान राम का अयोध्या से रामेश्वरम तक का सफ़र
प्रभु श्रीराम ने प्रयाग संगम के समीप यमुना नदी को पार किया और फिर चित्रकूट पहुंच गए। चित्रकूट में श्रीराम के दुर्लभ प्रमाण हैं। चित्रकूट वह स्थान है,जब दशरथ का देहांत हो जाता है तब राम को मनाने के लिए भरत अपनी सेना के साथ पहुँचते हैं। भरत यहां से राम की चरण पादुका ले जाकर उनकी चरण पादुका रखकर राज्य करते हैं।

मध्यप्रदेश
संस्कृति विभाग का मानना है कि भगवान राम अपने वनवास के दौरान साढ़े ग्यारह साल चित्रकूट में रहे थे।इसके बाद सतना, पन्ना, शहडोल, जबलपुर, विदिशा के वन क्षेत्रों से होकर दंडकारण्य चले गये थे। भगवान श्री राम नचना, भरहुत, उचेहरा, भेड़ाघाट एवं बाँधवगढ़ होते हुए छत्तीसगढ़ गये थे। इन जिलों के नाम रामायण, पौराणिक ग्रंथों और व्यापक सर्वेक्षण के आधार पर निकाले गए।
भगवान राम वनवास के दौरान सतना जिले के कई स्थानों से होकर गुजरे थे। उनमें सरभंगा आश्रम व सिद्धा पहाड़ भी था। रामचरित मानस के अरण्य कांड में सरभंगा आश्रम का जिक्र है।सरभंगा ऋषि के तपोबल से मंदाकिनी नदी का उद्गम यहां से हुआ। नदी के उद्गम स्थल को ब्रह्म कुण्ड कहा जाता है। इस कुण्ड में अस्थि विसर्जन भी किया जाता है। भगवान राम वनवास के दौरान अपने अनुज लक्ष्मण के साथ इस आश्रम में भी आए थे। रामचरित मानस के ही अनुसार भगवान राम जब चित्रकूट की ओर बढ़े, तो सिद्धा पहाड़ मिला, यह पहाड़ अस्थियों का था। तब राम को मुनियों ने बताया कि राक्षस कई मुनियों को खा गए हैं और यह अस्थियांउन्हीं मुनियों की हैं। भगवान राम ने यहीं पर राक्षसों के विनाश की प्रतिज्ञा ली थी।

अत्रि ऋषि का आश्रम

कैसा था भगवान राम का अयोध्या से रामेश्वरम तक का सफ़र

चित्रकूट के पास ही सतना मध्यप्रदेश स्थित अत्रि ऋषि का आश्रम था। महर्षि अत्रि चित्रकूट के तपोवन में रहा करते थे। वहां श्रीराम ने कुछ वक्त बिताया। अत्रि ऋषि ऋग्वेद के पंचम मंडल के द्रष्टा हैं। अत्रि ऋषि की पत्नी का नाम है अनुसूइया, जो दक्ष प्रजापति की चौबीस कन्याओं में से एक थी। अत्रि पत्नी अनुसूइया के तपोबल से ही भगीरथी गंगा की एक पवित्र धारा चित्रकूट में प्रविष्ट हुई और मंदाकिनी नाम से प्रसिद्ध हुई। ब्रह्मा, विष्णु व महेश ने अनसूइया के सतीत्व की परीक्षा ली थी, लेकिन तीनों को उन्होंने अपने तपोबल से बालक बना दिया था। तब तीनों देवियों की प्रार्थना के बाद ही तीनों देवता बाल रूप से मुक्त हो पाए थे।

फिर तीनों देवताओं के वरदान से उन्हें एक पुत्र मिला, जो थे महायोगी ‘दत्तात्रेय’। अत्रि ऋषि के दूसरे पुत्र का नाम था ‘दुर्वासा’। दुर्वासा ऋषि को कौन नहीं जानता? अत्रि के आश्रम के आस-पास राक्षसों का समूह रहता था। अत्रि, उनके भक्तगण व माता अनुसूइया उन राक्षसों से भयभीत रहते थे। भगवान श्रीराम ने उन राक्षसों का वध किया। वाल्मीकि रामायण के अयोध्या कांड में इसका वर्णन मिलता है। प्रातःकाल जब राम आश्रम से विदा होने लगे तो अत्रि ऋषि उन्हें विदा करते हुए बोले-
हे राघव! इन वनों में भयंकर राक्षस तथा सर्प निवास करते हैं, जो मनुष्यों को नाना प्रकार के कष्ट देते हैं। इनके कारण अनेक तपस्वियों को असमय ही काल का ग्रास बनना पड़ा है। मैं चाहता हूँ, तुम इनका विनाश करके तपस्वियों की रक्षा करो।
राम ने महर्षि की आज्ञा को शिरोधार्य कर उपद्रवी राक्षसों तथा मनुष्य का प्राणांत करने वाले भयानक सर्पों को नष्ट करने का वचन देकर सीता तथा लक्ष्मण के साथ आगे के लिए प्रस्थान किया।

सतना

अत्रि-आश्रम से भगवान राम मध्यप्रदेश के सतना पहुंचे , जहां रामवन हैं। मध्यप्रदेश एवं छत्तीसगढ़ क्षेत्रों में नर्मदा व महानदी नदियों के किनारे 10 वर्षों तक उन्होंने कई ऋषि आश्रमों का भ्रमण किया। दंडकारण्य क्षेत्र तथा सतना के आगे वे विराध सरभंग एवं सुतीक्ष्ण मुनि आश्रमों में गए। बाद में सुतीक्ष्ण आश्रम वापस आए। पन्ना, रायपुर, बस्तर और जगदलपुर में कई स्मारक विद्यमान हैं। उदाहरणत: मांडव्य आश्रम, श्रृंगी आश्रम, राम-लक्ष्मण मंदिर आदि।

कैसा था भगवान राम का अयोध्या से रामेश्वरम तक का सफ़र
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शहडोल (अमरकंटक)
ऐसा माना जाता है राम वहां से आधुनिक जबलपुर, शहडोल (अमरकंटक) गए होंगे। शहडोल से पूर्वोत्तर की ओर सरगुजा क्षेत्र है। यहां  एक पर्वत का नाम रामगढ़ है। 30 फीट की ऊँचाई से एक झरना जिस कुंड में गिरता है, उसे  सीता कुंड कहा जाता है। यहां वशिष्ठ गुफा है। दो गुफाओं के नाम लक्ष्मण बोंगरा और ‘सीता बोंगरा हैं। शहडोल से दक्षिण-पूर्व की ओर बिलासपुर के आसपास छत्तीसगढ़ है। वर्तमान में करीब 12300 वर्ग किलोमीटर क्षेत्रफल में फैले इस इलाके के पश्चिम में अबूझमाड़ पहाड़ियाँ तथा पूर्व में इसकी सीमा पर पूर्वी घाट शामिल हैं। दंडकारण्य में छत्तीसगढ़, ओडिशा एवं आंध्रप्रदेश राज्यों के हिस्से शामिल हैं। इसका विस्तार उत्तर से दक्षिण तक करीब 320 किमी तथा पूर्व से पश्चिम तक लगभग 480 किलोमीटर है।

दंडकारण्य

कैसा था भगवान राम का अयोध्या से रामेश्वरम तक का सफ़र
दंडक राक्षस के कारण इसका नाम दंडकारण्य पड़ा। यहां रामायण काल में रावण के सहयोगी बाणासुर का राज्य था। उसका इन्द्रावती, महानदी और पूर्व समुद्र तट, गोइंदारी (गोदावरी) तट तक तथा अलीपुर, पारंदुली, किरंदुली, राजमहेन्द्री, कोयापुर, कोयानार, छिन्दक कोया तक राज्य था। वर्तमान बस्तर की ‘बारसूर नामक समृद्ध नगर की नींव बाणासुर ने डाली, जो इन्द्रावती नदी के तट पर था। यहीं पर उसने ग्राम देवी कोयतर माँ की बेटी माता माय (खेरमाय) की स्थापना की। बाणासुर द्वारा स्थापित देवी दांत तोना (दंतेवाड़िन) है। यह क्षेत्र आजकल दंतेवाड़ा के नाम से जाना जाता है।

इसी दंडकारण्य का ही हिस्सा है आंध्रप्रदेश का एक शहर भद्राचलम। गोदावरी नदी के तट पर बसा यह शहर सीतारामचंद्र मंदिर के लिए प्रसिद्ध है। यह मंदिर भद्रगिरि पर्वत पर है। कहा जाता है कि श्रीराम ने अपने वनवास के दौरान कुछ दिन इस भद्रगिरि पर्वत पर ही बिताए थे।

स्थानीय मान्यता के मुताबिक दंडकारण्य के आकाश में ही रावण और जटायु का युद्ध हुआ था और जटायु के कुछ अंग दंडकारण्य में आ गिरे थे। ऐसा माना जाता है कि दुनियाभर में सिर्फ यहीं पर जटायु का एकमात्र मंदिर है। दंडकारण्य क्षे‍त्र की चर्चा पुराणों में विस्तार से मिलती है। इस क्षेत्र की उत्पत्ति कथा महर्षि अगस्त्य मुनि से जुड़ी हुई है। यहीं पर उनका महाराष्ट्र के नासिक के अलावा एक आश्रम था।

पंचवटी, नासिक

कैसा था भगवान राम का अयोध्या से रामेश्वरम तक का सफ़र
दण्डकारण्य में मुनियों के आश्रमों में रहने के बाद श्रीराम कई नदियों, तालाबों, पर्वतों और वनों को पार करने के पश्चात नासिक में अगस्त्य मुनि के आश्रम गए। मुनि का आश्रम नासिक के पंचवटी क्षेत्र में था। त्रेतायुग में लक्ष्मण व सीता सहित श्रीरामजी ने वनवास का कुछ समय यहां बिताया। उस काल में पंचवटी जनस्थान या दंडक वन के अंतर्गत आता था। पंचवटी या नासिक से गोदावरी का उद्गम स्थान त्र्यंम्बकेश्वर लगभग 32 किमी दूर है। वर्तमान में पंचवटी भारत के महाराष्ट्र के नासिक में गोदावरी नदी के किनारे स्थित विख्यात धार्मिक तीर्थस्थान है।
अगस्त्य मुनि ने श्रीराम को अग्निशाला में बनाए गए शस्त्र भेंट किए। नासिक में श्रीराम पंचवटी में रहे और गोदावरी के तट पर स्नान-ध्यान किया। नासिक में गोदावरी के तट पर पाँच वृक्षों का स्थान पंचवटी कहा जाता है। ये पाँच वृक्ष थे- पीपल, बरगद, आँवला, बेल तथा अशोक वट। यहीं पर सीता माता की गुफा के पास पाँच प्राचीन वृक्ष हैं जिन्हें पंचवट के नाम से जाना जाता है। माना जाता है कि इन वृक्षों को रामसीता और लक्ष्मण ने अपने हाथों से लगाया था। यहीं पर लक्ष्मण ने शूर्पणखा की नाक काटी थी। रामलक्ष्मण ने खर व दूषण के साथ युद्ध किया था। यहां पर मारीच वध स्थल का स्मारक भी अस्तित्व में है।
नासिक क्षेत्र स्मारकों से भरा पड़ा है, जैसे कि सीता सरोवर, राम कुंड, त्र्यम्बकेश्वर आदि। यहां श्रीराम का बनाया हुआ एक मंदिर खंडहर रूप में विद्यमान है। मारीच का वध पंचवटी के निकट ही मृगव्याधेश्वर में हुआ था। गिद्धराज जटायु से श्रीराम की मैत्री भी यहीं हुई थी। वाल्मीकि रामायण, अरण्यकांड में पंचवटी का मनोहर वर्णन मिलता है।

सीताहरण का स्थान सर्वतीर्थ

कैसा था भगवान राम का अयोध्या से रामेश्वरम तक का सफ़र
नासिक क्षेत्र में शूर्पणखा, मारीच और खर व दूषण के वध के बाद ही रावण ने सीता का हरण किया और जटायु का भी वध किया जिसकी स्मृति नासिक से 56 किमी दूर ताकेड़ गाँव में सर्वतीर्थ नामक स्थान पर आज भी संरक्षित है। जटायु की मृत्यु सर्वतीर्थ नाम के स्थान पर हुई, जो नासिक जिले के इगतपुरी तहसील के ताकेड़ गाँव में मौजूद है। इस स्थान को सर्वतीर्थ इसलिए कहा गया, क्योंकि यहीं पर मरणासन्न जटायु ने सीता माता के बारे में बताया। रामजी ने यहां जटायु का अंतिम संस्कार करके पिता और जटायु का श्राद्धतर्पण किया था। इसी तीर्थ पर लक्ष्मण रेखा थी।

पर्णशाला, भद्राचलम
पर्णशाला आंध्रप्रदेश में खम्माम जिले के भद्राचलम में स्थित है। रामालय से लगभग 1  घंटे की दूरी पर स्थित पर्णशाला को पनशाला या पनसाला भी कहते हैं। हिन्दुओं के प्रमुख धार्मिक स्थलों में से यह एक है। पर्णशाला गोदावरी नदी के तट पर स्थित है। मान्यता है कि यही वह स्थान है, जहां से सीताजी का हरण हुआ था। हालाँकि कुछ मानते हैं कि इस स्थान पर रावण ने अपना विमान उतारा था। इस स्थल से ही रावण ने सीता को पुष्पक विमान में बिठाया था यानी सीताजी ने धरती यहां छोड़ी थी। इसी से वास्तविक हरण का स्थल यह माना जाता है। यहां पर राम-सीता का प्राचीन मंदिर है।

तुंगभद्रा तथा कावेरी नदियों के क्षेत्र
सर्वतीर्थ जहां जटायु का वध हुआ था, वह स्थान सीता की खोज का प्रथम स्थान था। उसके बाद श्रीराम-लक्ष्मण तुंगभद्रा तथा कावेरी नदियों के क्षेत्र में पहुँच गए। तुंगभद्रा एवं कावेरी नदी क्षेत्रों के अनेक स्थलों पर वे सीता की खोज में गए।

शबरी का आश्रम पम्पा सरोवर (केरल)

कैसा था भगवान राम का अयोध्या से रामेश्वरम तक का सफ़र
तुंगभद्रा और कावेरी नदी को पार करते हुए राम और लक्ष्‍मण सीता की खोज में आगे बढे। जटायु और कबंध से मिलने के पश्‍चात वे ऋष्यमूक पर्वत पहुंचे । रास्ते में वे पम्पा नदी के पास शबरी आश्रम भी गए, जो आजकल केरल में स्थित है। पम्पा नदी भारत के केरल राज्य की तीसरी सबसे बड़ी नदी है। इसे पम्बा नाम से भी जाना जाता है। पम्पा तुंगभद्रा नदी का पुराना नाम है। श्रावणकौर रजवाड़े की सबसे लंबी नदी है। इसी नदी के किनारे पर हम्पी बसा हुआ है। रामायण में भी हम्पी का उल्लेख वानर राज्य किष्किंधा की राजधानी के तौर पर किया गया है।

ऋष्यमूक पर्वत हनुमान से भेंट (कर्नाटक)

कैसा था भगवान राम का अयोध्या से रामेश्वरम तक का सफ़र
मलय पर्वत और चंदन वनों को पार करते हुए वे ऋष्यमूक पर्वत की ओर बढ़े। यहां उन्होंने हनुमान और सुग्रीव से भेंट की, सीता के आभूषणों को देखा और श्रीराम ने बाली का वध किया। ऋष्यमूक पर्वत वाल्मीकि रामायण में वर्णित वानरों की राजधानी किष्किंधा के निकट स्थित था। इसी पर्वत पर श्रीराम की हनुमान से भेंट हुई थी। बाद में हनुमान ने राम और सुग्रीव की भेंट करवाई, जो एक अटूट मित्रता बन गई। जब महाबली बाली अपने भाई सुग्रीव को मारकर किष्किंधा से भागा तो वह ऋष्यमूक पर्वत पर ही आकर छिपकर रहने लगा था।  विरुपाक्ष मंदिर के पास से ऋष्यमूक पर्वत तक के लिए मार्ग जाता है।  तुंगभद्रा नदी में पौराणिक चक्रतीर्थ माना गया है। पास ही पहाड़ी के नीचे श्रीराम मंदिर है। पास की पहाड़ी को ‘मतंग पर्वत’ माना जाता है। इसी पर्वत पर मतंग ऋषि का आश्रम था, जो हनुमानजी के गुरु थे। ऋष्यमूक पर्वत तथा किष्किंधा नगर कर्नाटक के हम्पी, जिला बेल्लारी में स्थित है।

कोडीकरई (तमिलनाडु)

हनुमान और सुग्रीव से मिलने के बाद श्रीराम ने अपनी सेना का गठन किया और लंका की ओर चल पड़े। मलय पर्वत, चंदन वन, अनेक नदियों, झरनों तथा वन-वाटिकाओं को पार करके राम और उनकी सेना ने समुद्र की ओर प्रस्थान किया। श्रीराम ने पहले अपनी सेना को कोडीकरई में एकत्रित किया। तमिलनाडु की एक लंबी तटरेखा है, जो लगभग 1000 किमी तक विस्‍तारित है। कोडीकरई समुद्र तट वेलांकनी के दक्षिण में स्थित है, लेकिन राम की सेना ने उस स्थान के सर्वेक्षण के बाद जाना कि यहां से समुद्र को पार नहीं किया जा सकता और यह स्थान पुल बनाने के लिए उचित भी नहीं है, तब श्रीराम की सेना ने रामेश्वरम की ओर कूच किया।

रामेश्वरम (तमिलनाडु)

कैसा था भगवान राम का अयोध्या से रामेश्वरम तक का सफ़ररामेश्वरम के बारे में जैसा कि आप सब जानते हैं कि भगवान राम  को  लंका में रावण से युद्ध करने के लिए रामेश्वरम के समुद्रतात को पार करना था लेकिन श्रीराम की बार बार प्रार्थना करने पर भी जब समुद्र ने रास्ता नहीं दिया तब भगवान् राम ने क्रोध दिखाया और समुद्र देव ने क्षमा याचना कर लंका जाने का उपाय बताया। ऐसा माना जाता है कि तब से रामेश्वरम का समुद्रतट एकदम शांत रहता हैं। महाकाव्‍य रामायण के अनुसार भगवान श्रीराम ने लंका पर चढ़ाई करने के पहले यहां भगवान शिव की पूजा की थी। रामेश्वरम का शिवलिंग श्रीराम द्वारा स्थापित शिवलिंग है।

धनुषकोडी (तमिलनाडु)

कैसा था भगवान राम का अयोध्या से रामेश्वरम तक का सफ़र
वाल्मीकि रामायण के अनुसार तीन दिन की खोजबीन के बाद श्रीराम ने रामेश्वरम के आगे समुद्र में वह स्थान ढूँढ निकाला, जहां से आसानी से श्रीलंका पहुँचा जा सकता हो। उन्होंने नल और नील की मदद से उक्त स्थान से लंका तक का पुनर्निर्माण करने का फैसला लिया। छेदुकराई तथा रामेश्वरम के इर्द-गिर्द इस घटना से संबंधित अनेक स्मृतिचिह्न अभी भी मौजूद हैं।
धनुषकोडी भारत के तमिलनाडु राज्‍य के पूर्वी तट पर रामेश्वरम द्वीप के दक्षिणी किनारे पर स्थित एक गाँव है। धनुषकोडी पंबन के दक्षिण-पूर्व में स्थित है।  इसका नाम धनुषकोडी इसलिए है कि यहां से श्रीलंका तक वानर सेना के माध्यम से नल और नील ने जो पुल (रामसेतु) बनाया था उसका आकार मार्ग धनुष के समान ही है। 30  मील लंबा और सवा मील चौड़ा यह रामसेतु 5 से 30 फुट तक पानी में डूबा है।

नासा की सेटेलाइट तस्वीरों और अन्य प्रमाणों के साथ विशेषज्ञ कहते हैं कि चट्टानों और बालू की उम्र में यह विसंगति बताती है कि इस पुल को इंसानों ने बनाया होगा. ऐतिहासिक पुरातत्वविद और सदर्न ऑरेगन यूनिवर्सिटी में पढ़ाने वाली चेल्सी रोस कहती हैं, “चट्टानों की उम्र उस बालू से भी ज्यादा है जिस पर वह टिकी हैं. इसका मतलब है कि कहानी में बहुत कुछ है.”

वहीं भूगर्भ विशेषज्ञ एलन लेस्टर कहते हैं, “हिंदू पौराणिक कथाओं के अनुसार भगवान राम ने भारत और श्रीलंका को जोड़ने के लिए एक पुल बनाया था. इसके लिए दूर दूर से पत्थर लाए गए और उन्हें बालू के टीलों की एक श्रृंखला के ऊपर रखा गया.” उनका कहना है कि इस तरह का पुल बनाना एक बहुत बड़ी इंसानी उपलब्धि हो सकती है.

नुवारा एलियापर्वत शृंखला (श्रीलंका)

कैसा था भगवान राम का अयोध्या से रामेश्वरम तक का सफ़र
वाल्मिकी रामायण अनुसार श्रीलंका के मध्य में रावण का महल था। नुवारा एलिया पहाड़ियों से लगभग 90 किलोमीटर दूर बांद्रवेला की तरफ मध्य लंका की ऊँची पहाड़ियों के बीचोंबीच सुरंगों तथा गुफाओं के भंवरजाल मिलते हैं। यहां ऐसे कई पुरातात्विक अवशेष मिलते हैं जिनकी कार्बन डेटिंग से इनका काल निकाला गया है। श्रीलंका में नुवारा एलिया पहाड़ियों के आसपास स्थित रावण फॉल, रावण गुफाएँ, अशोक वाटिका, खंडहर हो चुके विभीषण के महल आदि की पुरातात्विक जांच से इनके रामायण काल के होने की पुष्टि होती है।



आजकल भी इन स्थानों की भौगोलिक विशेषताएं, जीव, वनस्पति तथा स्मारक आदि बिलकुल वैसे ही हैं जैसे कि रामायण में वर्णित किए गए हैं। श्री वाल्मीकि ने रामायण की संरचना श्रीराम के राज्याभिषेक के बाद वर्ष 5075 ई।पू। के आसपास की होगी। श्रुति स्मृति की प्रथा के माध्यम से पीढ़ी-दर-पीढ़ी परिचलित रहने के बाद वर्ष 1000 ई।पू। के आसपास इसको लिखित रूप दिया गया होगा। इस निष्कर्ष के बहुत से प्रमाण मिलते हैं।

श्वेता सिंह 

सोर्स- रामचरितमानस, वाल्मीकि रामायण, विकिपीडिया ,www.dw.com

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