सात्विक आहार की महत्ता
जैसा कि सर्वविदित ही है कि पति-पत्नी की पारस्परिक हार्दिक एकता एवं आत्मिक शांति एक सुखी एवं समृद्ध परिवार के साथ-साथ स्वस्थ समाज की सुदृढ़ आधारशिला है। ऐसे पति-पत्नी जो दोष दृष्टि से विमुक्त होकर एक दूसरे को आत्मीयता की दृष्टि से देखें, मुख से मीठे वचन बोलें, अपनी हैसियत में ही संतुष्ट बने रह, पतिव्रत-पत्निव्रत धर्म की मर्यादा का पालन करते हुए धीरता से सद्व्यहार करें तथा आपस में विश्वास, दृढ़ता और उत्साह से प्रसन्नतापूर्वक मिल-बाँट कर दापंत्य जीवन के समस्त कर्तव्यों का निर्वाह करते हुए, नेक कमाई से परिवार का भरण-पोषण करें, वे ही सदा सत्य-धर्म के मार्ग पर अग्रसर रहते हुए अपनी संतानों सहित संपर्क में आने वाले अन्य सजनों को समभाव से सदाचार के मार्ग पर प्रशस्त कर सकते हैं। इस तरह वे ही संगठित रूप से, एक आदर्श संस्कारी समाज की कल्पना को साकार कर, इस विश्व को सतयुगी संस्कृति के अनुरूप श्रेष्ठतम सभ्यता का परिचायक बना सकते हैं।
इसी उद्देश्य के दृष्टिगत सजनोंसतयुग दर्शन ट्रस्ट (रजि.), विभिन्न आयोजनों के माध्यमों से सत्संग में सम्मिलित होने वाले व सम्पर्क में आने वाले अन्य सामाजिक सजनों का मार्गदर्शन कर, उनको सतत् रूप से, शरीर रूपी मकान के साथ-साथ, अपना घर सतयुग बनाने का आवाहन् देता आया है। इन्हीं आयोजनों की श्रृंखला में सजनों ट्रस्ट द्वारा पहले दिनाँक 29 अगस्त 2017 को जालन्धर शहर में, दिनाँक 26 नवम्बर 2017 व 4 दिसम्बर 2017 को फरीदाबाद, गाँव भूपानि स्थित, वसुन्धरा परिसर में तथा अब दिनाँक 15 अप्रैल 2018 को गुडगाँव में सात्विक आहार की महत्ता बताते हुए एक विशेष कार्यक्रम का आयोजन किया गया जिसके अंतर्गत सम्मिलित हुए समस्त पति-पत्नियों ने आपसी समस्त मतभेदों व कड़वाहट को भुलाकर प्रेम और प्रीतिपूर्वक खाना बनाया, खिलाया व नि:स्वार्थ भाव से अटूट विश्वास के साथ मिलजुल कर हँसते-हँसते पारिवारिक जीवन के कत्र्तव्यों का पालन करने की कला सीखी। सजनों “सात्विक आहार की महत्ता” नामक इस कार्यक्रम के अंतर्गत संतुलित सात्विक आहार के सेवन की महत्ता, खाना बनाने व परोसने के तरीके के संदर्भ में सजनों को समझाया गया कि आहार ही शरीर है और शरीर ही आहार है। अत: हमारे लिए सुनिश्चित रूप से केवल उसी पौष्टिक व संतुलित आहार का सेवन करना अनिवार्य है जिससे हमारा शरीर परिपूर्णता से स्वस्थ व ह्मष्ट-पुष्ट रहे व शरीर की कार्य करने की क्षमता यथा बनी रहे। इस तरह हम अपना ख़्याल ध्यान स्थिरता से “आत्मा मे जो है परमात्मा” उस संग अफुरता से जोड़े रख, उनकी बात सुनने, समझने व युक्तिसंगत प्रयोग करने की कला सीख, अपना व जगत का निष्काम भाव से उद्धार कर सकें।
इस तथ्य के दृष्टिगत ही सजनों मानव शरीर की संरचना को ध्यान में रखते हुए, धर्म ग्रन्थों में केवल सात्विक व संतुलित आहार का सेवन करने का सुझाव दिया गया है। अत: इस सुझाव का मनन करते हुए हर मानव के लिए बनता है कि वह इस जगत में, जीवों के लिए उपलब्ध, अनेक प्रकार की खाने की वस्तुओं में से, केवल उन्हीं सात्विक वस्तुओं को ही ग्रहण करने के स्वभाव में ढ़ले जिससे उसकी पाचन शक्ति दुरुस्त रहे यानि खाया हुआ अन्न भली-भांति हज़म हो जाए और शारीरिक वृद्धि के लिए जो आवश्यक रस इत्यादि हैं वह भी नित्य प्रति उसे संतुलित मात्रा में प्राप्त होते रहे।
नि:संदेह सजनों ऐसा करने से एक तो रसना को राजसिक व तामसिक वस्तुओं के रसास्वादन से सुरक्षित रख, शरीर को हर तरह से रोगी व जीर्ण होने से बचाया जा सकता है, दूसरा पेट को आवश्यकता अनुसार जब मानव के खाने योग्य आहार मिलता रहता है तो उस संतुष्टि के प्रभाव से आत्मा भी सदा प्रसन्न रहती है। फलत: इंसान के लिए सत्य को धार कर, अपने मन को संकल्प रहित अवस्था में साधे रख, स्थिर बुद्धि हो समझदारी के साथ, इस जगत में धर्मसंगत विचरना सहज हो जाता है। कहने का आशय यह है फिर जीवन का सर्वरूपेण शारीरिक और मानसिक पोषण व रक्षण होता है यानि चारित्रिक उन्नयन होता है और सदा शुभ व अच्छा परिणाम ही प्राप्त होता है। इस प्रकार जीव के लिए जीवन का परम पुरुषार्थ सिद्ध कर, आत्मोद्धार करना सहज हो जाता है।
इसके विपरीत सजनों जब मानव सात्विक भोजन के स्थान पर, एक बार राजसिक या तामसिक भोजन के रसास्वादन में फँस जाता है और उसके पेट को, शरीर को स्वस्थ रखने योग्य आवश्यक खुराक प्राप्त नहीं हो पाती तो इस अपूर्णता के कारण शरीर में स्वस्थता व संतुलन की स्थिति कायम रखने वाले आवश्यक रसों का समुचित निष्कासन नहीं हो पाता। परिणामस्वरूप शरीर में असंतोष व असंतुलन की स्थिति उत्पन्न हो जाती है और शारीरिक, मानसिक व आत्मिक शक्तियों का सर्वरुपेण ह्यास यानि शोषण व भक्षण होने लगता है। इस कारण रोग ग्रस्तता पनपती है और जीवन का परम पुरुषार्थ मनुष्य के हाथ से छूट जाता है।
कहने का आशय यह है कि जिह्वा के रस में उलझा हुआ इंसान अपौष्टिक व असंतुलित आहार के रूप में जो भी सेवन करता है, उससे उसकी शारीरिक-मानसिक तृप्ति नहीं हो पाती और इंसान अपनी आशा-तृष्णा की पूर्त्ति हेतु, लालायित हो भोग्य नश्वर पदार्थों की प्राप्ति में रत हो मिथ्याचारी हो जाता है। परिणामस्वरूप ख़्याल ध्यान वल व ध्यान प्रकाश वल नहीं रह पाता और इंसान असत्य धारणा कर बैठता है। इसी असत्य धारणा के कारण उसके ह्मदय में अज्ञानता का वातावरण पनपता है और वह काम, क्रोध, लोभ, मोह, अहंकार के चक्रव्यूह में फँस, आत्मीयता के विपरीत शारीरिक स्वभाव अपना कर जगत में रूल जाता है। इस तरह स्पष्ट है सजनों जिस इंसान को सात्विक आहार के सेवन द्वारा, पेट को तुष्ट रखकर ख़्याल ध्यान वल ध्यान प्रकाश वल रखते हुए, सत्य धारणा में प्रवृत्त होना था, वही इंसान राजसिक-तामसिक आहार के सेवन द्वारा, अतृप्त व संतप्त हो, असत्य मार्ग पर अग्रसर हो जाता है और धडल्ले से पापी पेट की खातिर सर्वविध् पाप कमा पापी बन जाता है।
हमारे साथ सजनों ऐसा न हो इस हेतु कदाचित् विष तुल्य माँसाहारी व नशीले पदार्थों से युक्त, राजसिक व तामसिक आहार का सेवन मत करो। अन्यथा जितना खाते जाओगे, तृप्ति हासिल नहीं होगी तथा और-और की लालसा में भोगग्रस्त हो अपनी शारीरिक शक्ति, बल व पराक्रम का सर्वरूपेण नाश कर बैठोगे जो दु:खों को प्राप्त हो अनमोल जीवन हारने की बात होगी।
सारत: सजनों हैसियत अनुसार अमृत तुल्य सात्विक आहार का सेवन करना ही सुनिश्चित करो। याद रखो ऐसे भोजन का अल्प मात्रा में सेवन करने से ही न केवल आपको पूर्ण तृप्ति व आरोग्य लाभ के साथ-साथ दीर्घ आयुबल प्राप्त होगा वरन् आपकी वृत्ति, स्मृति, बुद्धि व भाव-स्वभाव रूपी बाणा भी निर्मल हो जाएगा। इस तरह साग ही कडाह बन जाएगा और उजड़या घर बस जाएगा।