जैन धर्म के प्रथम तीर्र्थकर ऋषभदेव जी ने समाज को उनके कर्तव्यों की ओर उन्मुख करके विद्या एवं कलाओं के द्वारा विकास का रास्ता दिखाया। आज 17 मार्च को ऋषभदेव जयंती है. आइये जानते हैं उनके बारे में कुछ विशेष तथ्य-
एक श्रेष्ठ राजा
जैन धर्म के प्रथम तीर्र्थकर ऋषभदेव जी एक श्रेष्ठ राजा तो थे ही, साथ ही महान दार्शनिक भी थे। उन्हें आदिनाथ भी कहते हैं।
चैत्र शुक्ल नवमी को अयोध्या के राजकुल में जन्मे ऋषभदेव ने समाज को उनके कर्तव्यों की ओर उन्मुख किया। उन्होंने युद्धकला, लेखनकला, कृषि, शिल्प, वाणिज्य और विद्या आदि के माध्यम से समाज के विकास में महत्वपूर्ण योगदान किया।
स्त्री-शिक्षा की सर्वप्रथम वकालत करने वाले भी ऋषभदेव ही थे, जिन्होंने अपनी पुत्री ब्राह्मी को लिपि विद्या तथा सुंदरी को अंक विद्या सिखलाई थी।
जो लोग भारत में लेखन कला का प्रारंभ ऋषभदेव के बहुत बाद में होना मानते हैं, उन्हें ऋषभदेव की पुत्री ब्राहमी के बारे में जानना चाहिए, कहा जाता है कि उनके ही नाम पर भारत की प्राचीनतम लिपि ब्राहमी लिपि कहलाई।
भारतीय संस्कृति और दर्शन के निर्माण में योगदान
भारतीय संस्कृति और दर्शन के निर्माण में ऋषभदेव के योगदान की चर्चा संसार के प्राचीनतम ग्रंथ ऋग्वेद में भी हुई है- त्रिधा बद्धोवृष भोरोरवीति महादेवोमत्र्यां आ विवेश। इस मंत्रांश का शब्दार्थ है-तीन स्थानों से बंधे हुए वृषभ (ऋषभदेव का एक नाम वृषभनाथ भी है) ने बार-बार घोषणा की कि महादेव मनुष्यों में ही प्रविष्ट हैं। यह घोषणा आत्मा को ही परमात्मा बताने की घोषणा है। आत्मा में परमात्मा के दर्शन करने के लिए मन, वचन, काय का संयम आवश्यक है। यही वृषभ का तीन स्थानों पर संयमित होना है। आत्मा ही परमात्मा है, यह घोषणा भारतीय संस्कृति को उन धर्र्मो से अलग करती है, जिनमें परमात्मा और जीव को अलग-अलग माना गया है। किंतु भारतीय चिंतन में जो आत्मा है, वही परमात्मा है- ‘अप्पा सो परमप्पा।’
ऋषभदेव का यह स्वर इतना बलवान था कि यह केवल जैनों तक सीमित नहीं रहा, अपितु पूरे भारतीय चिंतन में व्याप्त हो गया। उपनिषदों ने भी घोषणा की- अयम् आत्मा ब्रह्म।
वेदांत ने तो इतना भी कह दिया कि सब शास्त्रों का सार यही है कि जीव ही ब्रह्म है- जीवो ब्रह्मैवनापर। आत्मा परमात्मा की एकता के तथ्य के अन्वेषण में ऋषभदेव जैसे महान दार्शनिक का महत्वपूर्ण योगदान है।
मान्यता है कि ऋषभदेव के दर्शन के प्रभाव के कारण ही उनके ज्येष्ठ चक्रवर्ती पुत्र भरत के नाम पर इस देश का नाम भारतवर्ष पड़ा।
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जैन धर्म के संस्थापक
यजुर्वेद में ऋषभदेव, अजितनाथ और अरिष्ट नेमि इन तीन तीर्थंकरों के नाम का उल्लेख है। भागवत पुराण में ऋषभदेव को जैन धर्म का संस्थापक बताया गया है। इसमें ऋषभदेव का उल्लेख परम वीतरागी, दिगंबर, परमहंस और अवधूत राजा के रूप में किया गया है।
ऋषभदेव कहते थे कि सत्य एक है, किंतु वह बहुकोणीय और बहुआयामी है। हम अपने इंद्रिय ज्ञान से उस सत्य की खोज करते हैं, जो इंद्रिय ज्ञान से परे है। किंतु यदि हम सत्य के एक पक्ष की व्याख्या कर रहे हैं, तो हमें दूसरे पक्ष की संभावना से भी इनकार नहीं करना चाहिए। अपनी बात या निष्कर्ष को यदि हम दुराग्रह से मानेंगे और दूसरे धमरें की निंदा करेंगे तो हम सत्य की खोज कभी नहीं कर पाएंगे।
ऐसा ही है नहीं ऐसा भी है कहें
वे कहते थे कि हर धर्म को अपनी व्याख्या करते समय ‘ऐसा ही है‘ कहने की जगह ‘ऐसा भी है’ कहना चाहिए। तब कभी भी लड़ाई-झगडे़ और वैमनस्य नहीं होंगे। धार्मिक लोग सत्य की खोज करने की जगह अपने एकतरफा सत्य को पूर्ण मान कर दूसरे को गलत ठहराने में लगे हुए हैं, इसीलिए सांप्रदायिक संघर्ष हो रहे हैं।
ऋषभदेव जी के समय में उनके एक शिष्य मारीचि ने खुद को सर्वज्ञ मानकर घमंड में परस्पर विरोधी 363 मतों की स्थापना कर डाली थी। उसके समाधान में ऋषभदेव ने यह बात कही थी।
आज जिस तरह का अहंकारपूर्ण वातावरण धार्मिक क्षेत्रों में दिखाई दे रहा है, उस दृष्टि से भी ऋषभदेव की व्यापक सोच सभी समस्याओं का समाधान कर सकती है। आज आवश्यकता है कि ऋषभदेव जी के जीवन से जुड़े सिद्धांतों को जन-जन तक पहुंचाया जाए।