करवाचौथ विशेष : जानिये क्या होती है करवा चौथ, उसका महत्त्व और इतिहास
कार्तिक मास की कृष्ण पक्ष की चतुर्थी को मनाया जाने वाला पर्व करवा चौथ भारत में सौभाग्यवती महिलाओं का प्रमुख त्योहार है। यह व्रत सुबह सूर्योदय से पूर्व प्रात: 4 बजे प्रारंभ होकर रात में चंद्रमा दर्शन के बाद पूर्ण होता है। किसी भी आयु, जाति, वर्ण, संप्रदाय की स्त्री को इस व्रत को करने का अधिकार है। अपने पति की आयु, स्वास्थ्य व सौभाग्य की कामना से स्त्रियां इस व्रत को करती हैं । इस दिन श्री गणेश की पूजा विशेष रूप से की जाती है। करवाचौथ में भी संकष्टी या गणेश चतुर्थी की तरह दिन भर उपवास रखकर रात में चन्द्रमा को अर्घ्य देने के बाद भोजन करने का विधान है।
करवा चौथ का महत्त्व
करवा चौथ व्रत की विशेषता यह है कि केवल सौभाग्यवती स्त्रियों को ही यह व्रत करने का अधिकार है। हांलाकि अब कई जगह अविवाहित कन्याएं भी योग्य वर की कामना से या विवाह सुनिश्चित होने के बाद होने वाले पति की शुभेच्छा के कारण ये व्रत करने लगी हैं। ये विश्वास किया जाता है कि करवाचौथ का व्रत करके उसकी कथा सुनने से विवाहित महिलाओं के सुहाग की रक्षा होती है, और परिवार में सुख, शांति एवम् समृद्धि आती है। महाभारत में श्री कृष्ण ने भी करवाचौथ के महात्म्य के बारे में बताया है। इस बारे में एक कथा भी सुनाई जाती है। इस कथा के अनुसार कृष्ण जी से करवाचौथ की महिमा को समझ कर द्रौपदी ने इस व्रत को रखा, जिसके फलरूप ही अर्जुन सहित पांचों पांडवों ने महाभारत के युद्ध में कौरवों सेना को पराजित कर विजय हासिल की थी।
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करवा चौथ का इतिहास
ऐसी मान्यता है कि करवाचौथ की परंपरा देवताओं के समय से चली आ रही है। एक कथा के अनुसार एक बार देवताओं और दानवों के युद्ध के दौरान देवों को पराजय से बजाने के लिए ब्रह्मा जी ने उनकी पत्नियों को व्रत रखने का सुझााव दिया। इसे स्वीकार करते हुए इंद्रांणी ने इंद्र के लिए और अन्य देवताओं की पत्नियों ने उनके लिए निरहार, निर्जल व्रत किया। परिणाम स्वरूप देव विजयी हुए और इसके बाद ही सभी देव पत्नियों ने अपना व्रत खोला। उस दिन कार्तिक मास की कृष्ण पक्ष की चतुर्थी थी और आकाश में चांद निकल आया था। माना जाता है कि तभी से करवाचौथ के व्रत के परंपरा शुरू हुई। इसके अतिरिक्त बताते हैं कि शिव जी को प्राप्त करने के लिए देवी पार्वती ने भी इस व्रत को किया था। इसी तरह लक्ष्मी जी ने भी विष्णु जी के बलि के द्वारा बंदी बना लिए जाने के बाद इस व्रत को किया और उन्हें मुक्ति दिलाई । महाभारत काल में इस व्रत का जिक्र आता है और पता चलता है कि गांधारी ने धृतराष्ट्र और कुंती ने पाण्डु के लिए इस व्रत को किया था।
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उत्तरी भारत में क्यों इतनी प्रचलित है करवा चौथ
वैसे तो पूरे भारतवर्ष में हिंदू धर्म को मानने वाले लोग इस त्यौहार को मनाते हैं लेकिन उत्तर भारत खासकर पंजाब, हरियाणा, राजस्थान, उत्तर प्रदेश, मध्यप्रदेश आदि में तो इस पर्व का सबसे ज्यादा महत्व है। करवाचौथ व्रत के दिन शाम से पूजा का सिलसिला प्रारंभ हो जाता है। जहां पंजाब, हरियाणा में महिलायें समूह में बैठ कर करवे के गीत गाते हुए आपस में पूजा की थाली बदलती हैं, वहीं शेष उत्तर भारत में व्रत करने वाली स्त्रियां करवे और श्री गणेश की पूजा करती और कथा सुनती हैं। इसके बाद शाम ढलते ही सभी जगह चांद का दर्शन कर उसे अर्ध्य देने का इंतजार प्रारंभ हो जाता है। इस पर्व को मनाने वाले परिवारों में शाम से ही चांद निकलने के पहले ही बच्चे और बाकि सदस्य छतों और आंगन में चांद की एक झलक देखने के लिए इकट्ठा हो जाते हैं। चांद निकलने पर सारा दिन पति की लंबी उम्र के लिये व्रत रखने के बाद महिलायें उसकी पूजा करके और अर्ध्य देने बाद अपना उपवास खोलती हैं।
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कब और कैसे मनाते हैं करवा चौथ
कार्तिक कृष्ण पक्ष की चतुर्थी को करकचतुर्थी या करवा–चौथ व्रत करने का विधान है। कार्तिक कृष्ण पक्ष की चंद्रोदय व्यापिनी चतुर्थी अर्थात उस चतुर्थी की रात्रि को जिसमें चंद्रमा दिखाई देने वाला है, उस दिन प्रातः स्नान करके अपने सुहाग की आयु, आरोग्य, सौभाग्य का संकल्प लेकर दिनभर निराहार रहें। बालू अथवा सफेद मिट्टी की वेदी पर शिव-पार्वती, स्वामी कार्तिकेय, गणेश एवं चंद्रमा की मूर्तियों की स्थापना करें। यदि मूर्ति ना हो तो सुपारी पर धागा बांध कर उसकी पूजा की जाती है। इसके पश्चात सुख सौभाग्य की कामना करते हुए इन देवों का स्मरण करें और करवे सहित बायने पर जल, चावल और गुड़ चढ़ायें। अब करवे पर तेरह बार रोली से टीका करें और रोली चावल छिडकें। इसके बाद इसके बाद हाथ में तेरह दाने गेहूं लेकर करवा चौथ की व्रत कथा का श्रवण करें।