पथ-प्रदर्शक, अध्यात्म-चेतना के प्रतीक थे स्वामी सत्यमित्रानंद गिरि
विश्व प्रसिद्ध भारत माता मंदिर के संस्थापक निवृत्त शंकराचार्य पद्मभूषण महामंडलेश्वर स्वामी सत्यमित्रानंद गिरि का जन्म 19 सितंबर, 1932 को आगरा में हुआ था. उनका परिवार मूलत: सीतापुर (उत्तर प्रदेश) का निवासी था. संन्यास से पूर्व वे अंबिका प्रसाद पांडेय के नाम से जाने जाते थे. उनके पिता शिवशंकर पांडेय एक प्रख्यात शिक्षक थे जिन्हें राष्ट्रपति पुरस्कार से सम्मानित किया गया था. उनके पिता ने उन्हें बचपन से ही अध्ययनशीलता, चिंतन और सेवा का का पाठ पढ़ाया था और उन्हें सदैव अपने लक्ष्य के प्रति सजग और सक्रिय रहने की प्रेरणा दी. यही वजह थी कि वह अपने बाल्यावस्था से ही अध्ययनशील, चिंतक और निस्पृही व्यक्तित्व के धनी हो गए थे.
देश विदेश में सम्मानित
सेवाभाव की अधिकता के कारण उनका मन मानव और धर्मसेवा में अधिक लगता था और सांसारिक जीवन से उनका कोई प्रेमभाव नहीं रहा. अपनी इसी खूबी के कारण देश के भीतर उनका जितना सम्मान था, विदेशों में भी उनकी उतनी ही ख्याति थी. उन्होंने सद्भाव, सांप्रदायिक सौहार्द और समन्वय भाव के प्रसार के लिए विश्व के 65 से अधिक देशों की यात्रा की थी. धर्म, संस्कृति, समाज और विश्व कल्याण की उनकी इन्हीं सेवाओं को देखते हुए भारत सरकार ने उन्हें देश के सर्वोच्च नागरिक सम्मानों में शामिल पद्मभूषण से अलंकृत किया था.
अम्बिका पाण्डेय से सत्यमित्र का सफ़र
महामंडलेश्वर स्वामी सत्यमित्रानंद गिरी का बचपन का अधिकांश समय संत-महात्माओं या फिर विभिन्न विषयों के विद्वानों के सान्निध्य में ही बीतता था. उन्होंने बेहद कम आयु में ही महामंडलेश्वर स्वामी वेदव्यासानंद महाराज से संन्यास दीक्षा ग्रहण कर गृहत्याग कर ‘सत्यमित्र ब्रह्मचारी’ के रूप में धर्म साधना को अपना कर्म क्षेत्र बना लिया. धर्म के क्षेत्र में उनकी निस्वार्थ सेवा ने उन्हें साधना के विविध सोपान प्रदान किए.
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शंकराचार्य पद की प्राप्ति
29 अप्रैल 1960 अक्षय तृतीया के दिन मात्र 26 वर्ष की आयु में ज्योतिर्मठ भानपुरा पीठ पर जगद्गुरु शंकराचार्य पद पर उन्हें प्रतिष्ठित किया गया. उन्होंने प्रख्यात चिकित्सक स्व. डॉ. आरएम सोजतिया के सहयोग से भानपुरा और उसके आसपास क्षेत्र के अतिनिर्धन लोगों के उत्थान की दिशा में अनेक वर्ष तक कार्य किया. इसके अलावा उन्होंने देश-विदेश में अनेक जगह मानव सेवा और वंचितों के सेवार्थ कई कार्यक्रम चलाए, जिनमे से कई कार्यक्रम अब भी चल रहे हैं.
शंकराचार्य के तौर पर करीब नौ वर्षों तक धर्म और मानव के निमित्त सेवा कार्य करने के बाद उन्होंने 1969 में स्वयं को शंकराचार्य पद से मुक्त कर गंगा में दंड का विसर्जन कर दिया और स्वयं को परिव्राजक संन्यासी के रूप में प्रस्तुत कर धर्म और मानव सेवा के आजीवन संकल्प संग देश-विदेश में भारतीय संस्कृति व अध्यात्म के प्रचार-प्रसार में लग गए और जीवन के अंतिम समय तक इसी में लीन रहे. उन्होंने अपना सारा जीवन दीन-दुखी, गिरिवासी, वनवासी, हरिजनों की सेवा और सांप्रदायिक मतभेदों को दूर करने, समन्वय-भावना का विश्व में प्रसार करने में होम कर दिया, जिसके लिए उन्होंने सनातन हिंदू धर्म की महानतम पद-पदवी शंकराचार्य का त्याग कर दिया.
उनकी विद्वता के कारण वर्तमान समय में उन्हें स्वामी विवेकानंद की अनुकृति भी कहा जाता था. हाल ही में उन्होंने हरिद्वार में देश के शीर्ष संतों को भारत माता आराधना यज्ञ के लिए भारत माता मंदिर में आमंत्रित किया था. इसके लिए यज्ञस्थल पर 101 कुंडीय यज्ञवेदी का निर्माण कराया गया था. इसकी शुरुआत प्रदेश के मुख्यमंत्री त्रिवेंद सिंह रावत ने की थी और इसमें श्रीपंचदशनाम जूना अखाड़ा के आचार्य महामंडलेश्वर स्वामी अवधेशानंद गिरि, गायत्री तीर्थ शांतीकुंज प्रमुख डॉ. प्रणव पंड्या सहित देश के तमाम प्रमुख संतों और विद्वानों ने सहभागिता की थी.
भारत माता मंदिर के निर्माता
पतित पावनी गंगातट सप्तसरोवर पर वर्ष 1983 में अपने आप में अनोखे 108 फीट ऊंचे आठ मंजिला भारत माता मंदिर की स्थापना कर पद्मभूषण निवृत्त शंकराचार्य महामंडलेश्वर स्वामी सत्यमित्रानंद गिरी पूरे विश्व में चर्चा का केंद्र बन गए. आठ मंजिला इमारत के रूप में यह एक ऐसा मंदिर है, जिसे भारत देश के निर्माण और रक्षा में सर्वस्व त्याग कर आहुति देने वाले भारतमाता के सपूतों को समर्पित किया गया है, जहां रोजाना उनकी आराधना की जाती है.
स्वामी सत्यमित्रानंद गिरी के अनुसार उन्होंने यह मंदिर देश के ऐतिहासिक रत्नों को देवतुल्य मूर्ति का रूप देकर उनकी याद, देश के लिए दी गई उनकी सेवाओं, त्याग और बलिदान को याद करने, आने वाली पीढ़ी को इसकी जानकारी देने के लिए निर्मित कराया था.
जब दो विपरीत विचारधारा वालों को बैठाया एक मंच पर
पद्मभूषण स्वामी सत्यमित्रानंद गिरी से अपनी विद्वता के सम्मान और राजनीति पर पकड़ का लोहा देश-दुनिया को भारत माता मंदिर के उद्घाटन समारोह के दौरान दो विपरीत विचारधारा वाली हस्तियों तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी और कट्टर हिंदूवादी संघी नेता रज्जू भइया को एक साथ मंच साझा कराकर मनवाया था. स्वामी सत्यमित्रानंद गिरी ने उद्घाटन कार्यक्रम को सर्वधर्म सद्भाव सम्मेलन का स्वरूप प्रदान करते हुए हिंदू, मुस्लिम, सिक्ख और इसाई धर्मगुरु को बुलाकर सभी धर्मों का पाठ कराया. सर्वधर्म सद्भाव सम्मेलन के इस प्रयास का आदर व सम्मान करते हुए तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने सभी तरह की नकारात्मक सुरक्षा-खुफिया रिपोर्ट को दरकिनार करते हुए न केवल सम्मेलन में शिरकत की, बल्कि रज्जू भइया के साथ मंच भी साझा किया.
अयोध्या राम मंदिर मुद्दे पर रहे मुखर
वह अयोध्या में राम मंदिर के निर्माण के मुद्दे को लेकर भी काफी मुखर रहे हैं. नवंबर 2018 में भी उन्होंने कहा था- अगर राम मंदिर अयोध्या में नहीं बनेगा, तो क्या मक्का, वेटिकन सिटी या किसी अन्य तीर्थ में बनेगा? उन्होंने कहा कि अयोध्या में राम मंदिर के अनेक प्रमाण मिल चुके हैं.
तब उन्होंने कहा था कि पुरातत्व विभाग से भी यह साबित हो गया है कि अयोध्या में मंदिर था, क्योंकि वहां आम्रपल्लव कलश व मूर्तियां मिली थीं. उन्होंने कहा कि अगर मुस्लिम पक्ष मंदिर के लिए बड़प्पन दिखाएगा तो मस्जिद बनवाने की जिम्मेदारी मेरी है. इसके लिए जो सामग्री की आवश्यकता होगी वे भारत माता मंदिर की तरफ से उपलब्ध कराएंगे.