मलिक मोहम्मद जायसी: पद्मावत के रचयिता और एक उदार सूफी महात्मा
मलिक मुहम्मद जायसी भक्तिकाल की निर्गुण प्रेमाश्रयी शाखा व मलिक वंश के कवि थे. जायसी अत्यंत उच्चकोटि के सरल और उदार सूफ़ी महात्मा थे. हिन्दी के प्रसिद्ध सूफ़ी कवि, जिनके लिए केवल ‘जायसी’ शब्द का प्रयोग भी, उनके उपनाम की भाँति, किया जाता है. यह इस बात को भी सूचित करता है कि वे जायस नगर के निवासी थे. इस संबंध में उनका स्वयं भी कहना है,
जायस नगर मोर अस्थानू.
नगरक नाँव आदि उदयानू.
तहाँ देवस दस पहुने आएऊँ.
भा वैराग बहुत सुख पाएऊँ॥
इससे यह भी पता चलता है कि उस नगर का प्राचीन नाम ‘उदयान’ था, वहाँ वे एक ‘पहुने’ जैसे दस दिनों के लिए आये थे, अर्थात् उन्होंने अपना नश्वर जीवन प्रारंभ किया था अथवा जन्म लिया था और फिर वैराग्य हो जाने पर वहाँ उन्हें बहुत सुख मिला था.
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जन्म को लेकर मतभेद
जायस नाम का एक नगर उत्तर प्रदेश के रायबरेली ज़िले में आज भी वर्तमान है, जिसका पुराना नाम ‘उद्यान नगर’ ‘उद्यानगर’ या ‘उज्जालिक नगर’ बतलाया जाता है तथा उसके ‘कंचाना खुर्द’ नामक मुहल्ले में मलिक मुहम्मद जायसी का जन्म स्थान होना कहा जाता है.
इससे जान पड़ता है कि वह उस नगर को ‘धर्म का स्थान’ समझता था और वहाँ रहकर उसने अपने काव्य ‘पद्मावत’ की रचना की थी. यहाँ पर नगर का ‘धर्म स्थान’ होना कदाचित यह भी सूचित करता है कि जनश्रुति के अनुसार वहाँ उपनिषदकालीन उद्दालक मुनि का कोई आश्रम था. गार्सां द तासी नामक फ़्रेंच लेखक का तो यह भी कहना है कि जायसी को प्राय: ‘जायसीदास’ के नाम से अभिहित किया जाता रहा है.
जायसी की किसी उपलब्ध रचना के अन्तर्गत उसकी निश्चित जन्म-तिथि अथवा जन्म-संवत का कोई स्पष्ट उल्लेख नहीं पाया जाता. एक स्थल पर वे कहते हैं,
भा आवतार मोर नौ सदी.
तीस बरिख ऊपर कवि बदी.
जिसके आधार पर केवल इतना ही अनुमान किया जा सकता है कि उनका जन्म सम्भवत: 800 हिजरी एवं 900 हिजरी के मध्य, अर्थात् सन् 1397 ई॰ और 1494 ई॰ के बीच किसी समय हुआ होगा तथा तीस वर्ष की अवस्था पा चुकने पर उन्होंने काव्य-रचना का प्रारम्भ किया होगा.
परिवार
जायसी के पिता का नाम मलिक राजे अशरफ़ बताया जाता है और कहा जाता है कि वे मामूली ज़मींदार थे और खेती करते थे. इनके नाना का नाम शेख अल-हदाद खाँ था. स्वयं जायसी को भी खेती करके जीविका-निर्वाह करना प्रसिद्ध है. मलिक मुहम्मद जायसी कुरूप और एक आँख से काने थे. कुछ लोग उन्हें बचपन से ही काने मानते हैं जबकि अधिकांश लोगों का मत है कि चेचक के प्रकोप के कारण ये कुरूप हो गये थे और उसी में इनकी एक आँख चली गयी थी. उसी ओर का बायाँ कान भी नाकाम हो गया. अपने काने होने का उल्लेख उन्होंने स्वयं ही किया है :-
एक नयन कवि मुहम्मद गुमी.
सोइ बिमोहो जेइ कवि सुनी.. चांद जइस जग विधि ओतारा. दीन्ह कलंक कीन्ह उजियारा..
जग सुझा एकह नैनाहां. उवा सूक अस नखतन्ह मांहां.. जो लहिं अंबहिं डाभ न होई. तो लाहि सुगंध बसाई न सोई..
कीन्ह समुद्र पानि जों खारा. तो अति भएउ असुझ अपारा.. जो सुमेरु तिरसूल बिना सा. भा कंचनगिरि लाग अकासा..
जौं लहि घरी कलंक न परा. कांच होई नहिं कंचन करा.. एक नैन जस दापन, और तेहि निरमल भाऊ. सब रुपवंत पांव जहि, मुख जोबहिं कै चाउ..
मुहम्मद कवि जो प्रेम या, ना तन रकत न मांस.
जेइं मुख देखा तइं हंसा, सुना तो आये आंहु..
उपर्युक्त पंक्तियों से अनुमान होता है कि बाएँ कान से भी उन्हें कम सुनाई पड़ता था. एक बार जायसी शेरशाह के दरबार में गए, तो बादशाह ने इसका मुँह देखकर हँस दिया. जायसी ने शांत भाव से पूछा –
मोहि कां इससि कि कोहरहि?
अर्थात् तू मुझ पर हंसा या उस कुम्हार पर, इस पर शेरशाह ने लज्जित होकर क्षमा माँगी.
जायसी एक सन्त प्रकृति के गृहस्थी थे. इनके सात पुत्र थे लेकिन दीवार गिर जाने के कारण सभी उसमें दब कर मर गये थे. तभी से इनमें वैराग्य जाग गया और ये फ़कीर बन गये.
जायसी की शिक्षा भी विधिवत् नहीं हुई थी. जो कुछ भी इन्होनें शिक्षा-दीक्षा प्राप्त की वह मुसलमान फ़कीरों, गोरखपन्थी और वेदान्ती साधु-सन्तों से ही प्राप्त की थी.
जायसी ने अपनी कुछ रचनाओं में अपनी गुरु-परम्परा का भी उल्लेख किया है. उनका कहना है, “सैयद अशरफ, जो एक प्रिय सन्त थे मेरे लिए उज्ज्वल पन्थ के प्रदर्शक बने और उन्होंने प्रेम का दीपक जलाकर मेरा हृदय निर्मल कर दिया. उनका चेला बन जाने पर मैं अपने पाप के खारे समुद्री जल को उन्हीं की नाव द्वारा पार कर गया और मुझे उनकी सहायता से घाट मिल गया, वे जहाँगीर चिश्ती चाँद जैसे निष्कलंक थे, संसार के मखदूम (स्वामी) थे और मैं उन्हीं के घर का सेवक हूँ”. “सैयद अशरफ जहाँगीर चिश्ती के वंश में निर्मल रत्न जैसे हाज़ी हुए तथा उनके अनन्तर शेख मुबारक और शेख कमाल हुए”
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चार मित्रों का वर्णन
जायसी ने ‘पद्मावत’ (22) में अपने चार मित्रों की चर्चा की है, जिनमें से युसुफ़ मलिक को ‘पण्डित और ज्ञानी’ कहा है, सालार एवं मियाँ सलोने की युद्ध-प्रियता एवं वीरता का उल्लेख किया है तथा बड़े शेख को भारी सिद्ध कहकर स्मरण किया है और कहा है कि ये चारों मित्र उनसे मिलकर एक चिह्न हो गए थे परन्तु उनके पूर्वजों एवं वंशजों की भाँति इन लोगों का भी कोई प्रमाणिक परिचय उपलब्ध नहीं है.
कब और कैसे की पद्मावत की रचना
जायसी की 21 रचनाओं के उल्लेख मिलते हैं जिसमें पद्मावत, अखरावट, आख़िरी कलाम, कहरानामा, चित्ररेखा आदि प्रमुख हैं पर उनकी ख्याति का आधार पद्मावत ग्रंथ ही है. इसकी भाषा अवधी है और इसकी रचना शैली पर आदिकाल के जैन कवियों की दोहा चौपाई पद्धति का प्रभाव पड़ा है.
यह महाकाव्य जायसी की काव्य-प्रतिभा का सर्वोत्तम प्रतिनिधि है. इसमें चित्तौड़ के राजा रलसेन और सिंहलद्वीप की राजकुमारी पद्मावती की प्रेमकथा वर्णित है. कवि ने कथानक इतिहास से लिया है परन्तु प्रस्तुतीकरण सर्वथा काल्पनिक है. भाव और कला-पक्ष, दोनों ही दृष्टियों से यह एक उत्कृष्ट रचना है. पद्मावत इनका ख्याति का स्थायी स्तम्भ है. ‘पद्मावत’ मसनवी शैली में रचित एक प्रबंध काव्य है. यह महाकाव्य 57 खंडो में लिखा है. जायसी ने दोनों का मिश्रण किया है. पद्मावत की भाषा अवधी है. चौपाई नामक छंद का प्रयोग इसमे मिलता है. इनकी प्रबंध कुशलता कमाल की है. जायसी के महत्त्व के सम्बन्ध में बाबू गुलाबराय लिखते है:- जायसी महान् कवि है ,उनमें कवि के समस्त सहज गुण विद्मान है. उन्होंने सामयिक समस्या के लिए प्रेम की पीर की देन दी. उस पीर को उन्होंने शक्तिशाली महाकाव्य के द्वारा उपस्थित किया . वे अमर कवि है.
‘पद्मावत’ का रचनाकाल उन्होंने 147 हिजरी (‘सन नौ से सैंतालीस अहै’- पद्मावत 24). अर्थात् 1540 ई॰ बतलाया है. ‘पद्मावत’ के अन्तिम अंश (653) के आधार पर यह भी कहा जा सकता है कि उसे लिखते समय तक वे वृद्ध हो चुके थे, “उनका शरीर क्षीण हो गया था, उनकी दृष्टि मन्द पड़ गयी थी, उनके दाँत जाते रहे थे उनके कानों में सुनने की शक्ति नहीं रह गयी थी, सिर झुक गया था, केश श्वेत हो चले थे तथा विचार करने तक की शक्ति क्षीण हो चली थी” किन्तु इसका कोई संकेत नहीं है कि इस समय वे कितने वर्ष की अवस्था तक पहुँच चुके थे. जायसी ने ‘आख़िरी कलाम’ का रचनाकाल देते समय भी केवल इतना ही कहा है:-
नौ से बरस छतीस जो भए.
तब यह कविता आखर कहे’
अर्थात् 936 हिजरी अथवा सन् 1529 ई. के आ जाने पर मैने इस काव्य का निर्माण किया. ‘पद्मावत’ (‘पद्मावत’ 13-17), में सुल्तान शेरशाह सूर (सन 1540-1545 ई.) तथा ‘आख़िरी कलाम’ में मुग़ल बादशाह बाबर (सन 1526-1530 ई.) के नाम शाहे वक़्त के रूप में अवश्य लिये हैं और उनकी न्यूनाधिक प्रशंसा भी की है, जिससे सूचित होता है कि वे उनके समकालीन थे.