ध्यान : भीतर की यात्रा
अष्टांग योग का सातवां अंग है ‘ध्यान’
पिछले छः अंगो का एक ही उद्देश्य है इस ध्यान की अवस्था को प्राप्त करना । ध्यान क्या है – वैसे ध्येय और ध्याता के बीच की प्रक्रिया हीं ध्यान है । लेकिन पतंजलि योग सूत्र ध्यान को मात्र इतना ही परिभाषित नहीं करता है । ध्यान अभ्यास का विषय नहीं है यह तो एक अवस्था है । अभ्यास यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, और धारणा का होता है।
बाह्य दृष्टिकोण से देखे तो धारणा और ध्यान एक जैसे ही नजर आते हैं । धारणा का अर्थ है मन को किसी एक स्थान पर लगाना अथवा धारण करना । वह स्थान विशेष हमारे मस्तिष्क का मध्य भाग होता है । फिर प्रश्न उठता है कि धारणा और ध्यान में अंतर क्या है ?
करें ध्यान – Meditation by Respected Dr Pranav Pandya, Gayatri Parivaar, Haridwar
मन को एक स्थान में संलग्न कर के फिर उस एकमात्र स्थान को अवलंबन स्वरुप मानकर एक विशिष्ट प्रकार के वृति-प्रवाह उठाये जाते हैं, दूसरे प्रकार के वृति प्रवाहों से उनको बचाने का प्रयत्न करते करते वे प्रथमोक्त वृति प्रवाह क्रमशः प्रबल आकार धारण कर लेते हैं और ये दूसरे वृति प्रवाह कम होते होते अंत में बिलकुल चले जाते हैं । और केवल एक वृति वर्तमान रह जाती है । बस यही अवस्था ‘ध्यान’ है । इसे ही ‘ध्यान’ कहते हैं । ध्यान एकीभाव अवस्था है अर्थात यहाँ सारी भावनाएं ख़त्म हो जाती हैं और मात्र एकभाव रह जाता है, वह है ध्येय का भाव , मात्र वही रह जाता है तो वह ‘ध्यान’ है । अर्थात धारणा के अभ्यास से ध्यान की अवस्था प्राप्त होती है।
जब हम धारणा का अभ्यास प्रारम्भ करते हैं तो सारी वृतियां बनी रहती है
वृत्तियों से तात्पर्य है आहार, निद्रा भय मैथुनं एवं लोभ मोह काम क्रोध अहंकार है। ध्यानस्त योगी सभी भावो का त्याग कर एकी भाव हो जाता है । लेकिन भावातीत नहीं । क्योंकि इस अवस्था में सारे भावनाएं ख़त्म हो जाती लेकिन एक भाव अभी शेष बचा रहता है और वह है ध्येय का भाव अर्थात जो ध्यान का केंद्र बिंदु एवं लक्ष्य है । उसका आधार लेकर अहंकार और अस्मिता भी बची रहती है। अर्थात सारे विकार ख़त्म होकर एक विकार शेष रहता है। लेकिन यह अवस्था परमानंद की अवस्था है। इस अवस्था में योगी को कई सिद्धियां भी प्राप्त होती हैं।
लेकिन महर्षि पतंजलि ने इन सिद्धियों को अष्टांग योग का अंग नहीं बताया है। इन सिद्धियों को योग में बाधा उत्पन्न करने वाला तत्व बताया है।
महर्षि पतंजलि ने सिद्धियों के कारण को संयम नाम दिया। यह योगी की इक्षा पर निर्भर करता है की वो संयम का प्रयोग कर अपने ध्यान शक्ति से सिद्धियों का प्रयोग करे । लेकिन यह कार्य समाधि तक पहुंचने में बाधा सिद्ध होती है। अतः ध्यान की अवस्था में योगी कई सिद्धियों को भी प्राप्त करता है ।
ध्यानस्थ योगी त्रय साक्षी होता है अर्थात वह तूरया अवस्था को प्राप्त कर लेता यह चौथी अवस्था है ये जागृत स्वप्न एवं सुषुप्ति से परे चौथी अवस्था ।इस अवस्था को हमारे उपनिषदों में ‘चतुष्पाद’ भी लिखा हुआ है। ध्यानस्थ योगी एकीभाव होता है । अर्थात वह अन्य किसी भावो से प्रभावित नहीं होता ना वो किसी से प्रेम करता करता ना ही शत्रुता । वह भावातीत अवस्था की ओर आगे बढ़ता है।
वह दूसरों के भाव अभिव्यक्ति से भी प्रभावित नहीं होता। कोई उससे प्रेम करे तो भी वह प्रभावित नहीं होता कोई उसे गालियां दे या क्रोध करे तो भी उसका मन कोई प्रतिक्रिया नहीं करता अगर कोई उसे भयभित करे तो भी वह शांत रहता है उसका मन भय के वशीभूत नहीं होता ।
अभिव्यक्ति के दृष्टिकोण से यह। सर्वश्रेष्ठ अवस्था है। ऐसे योगी संसार योगी संसार में रहते हुए लीला मात्र हीं करते हैं। क्योंकि वो किसी भाव के वशीभूत नहीं होते । तो सुख दुख अथवा उदासी और प्रसन्नता का कोई मतलब नहीं निकलता। यह परम आनंदमयी अवस्था है।
ऐसी अवस्था में सूक्ष्म शरीर और स्थूल शरीर के बीच का सम्बन्ध कमजोर पड़ जाता है और सूक्ष्म शरीर विशाल होने लग जाता है जिससे योगी को अनेको शक्तियां भी प्राप्त होनी शुरू हो जाती हैं।
अगले अभिलेख में हम अष्टम अंग समाधि से पहले ‘संयम’ की चर्चा करेंगे पतंजलि योग सूत्र में इसका वर्णन आता है । संयम का प्रारम्भ धारणा से होता है और इसका अंत समाधि में होता है ।
-मनीष देव
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