ध्यान एक अवस्था को कहा गया है। मानिसक प्रक्रिया के तौर पर ध्यान को खुद को बदलने, समझने और रूपांतरित करने का सबसे सशक्त तरीका बताया गया है। ध्यान करने के लिए तीन चीजों की जरूरत बताई गई है। खुद की इच्छा, ध्यान करने का ज्ञान और एक खास अनुशासन की पालना। रिलीजन वर्ल्ड ध्यान की इस खास दुनिया में आपको ले जाने के लिए एक खास सीरीज शुरू कर रहा है। इसके तहत आप दुनिया में प्रचलित, गुप्त और विशेष ध्यान के प्रकारों और उसके प्रभावों को समझ पाएंगे। हम पूरी दुनिया में होने वाले ध्यान को आपके सामने पेश करेंगे। आप इससे ये समझ बना पाएंगे कि कौन सा ध्यान किसलिए किया जाता है। साथ ही आप कौन सा ध्यान करके जीवन को और ज्यादा जी सकते हैं।
पेश है हमारी पहली खोज…
Vipassana Meditation : विपश्यना ध्यान: अभ्यास से शारीरिक व मानसिक तनाव को दूर करने की है साधना
किसी भी मनुष्य का सभी बाहरी कार्यों से विरक्त होकर किसी एक कार्य में लीन हो जाना ही ध्यान है. आशय यह है कि किसी एक कार्य में किसी का इतना लिप्त होना कि उसे समय,मौसम,एवं अनय शारीरिक जरूरतों का बोध न रहे इसे ही ध्यान कहते हैं.
ध्यान तीन प्रकार के स्वभावोंवाला होता है-
(क) सहज (यथा धमाके की आवाज पर)
(ख) बलात्- (यथा, नक्शे में ढूँढने की स्थिति में),
(ग) अर्जित (यथा, ताजे अखबार के शीर्षकों में).
ध्यान का एक फैलाव क्षेत्र होता है. एक सीमित समय में कुछ गिनती की वस्तुओं में ही थोड़ी-थोड़ी देर पर ध्यान चक्कर काटता रहता है.
सबसे पहले इस विषय पर लिखते हुए दार्शनिक लेखक वोल्फ (1754) ने ध्यान को विशिष्ट मानस गुण (मेंटल फैकल्टी) माना. विलियम जेम्स (1842-1910) ने इसकी प्रथम सुसंबद्ध वैज्ञानिक व्याख्या इसे “चेतनाप्रवाह” की गति का आयामविशेष मानते हुए की. रिब्बो (1839-1916) ने ध्यान को पूर्वानुप्रेरित क्रिया (ऐंटिसिपेटरी बिहेवियर) कहा. टिचनर (1867-1927) ने अपेक्षाकृत अधिक वैज्ञानिक स्पष्टता के साथ बताया कि ध्येय विषय चेतना द्वारा प्रसीमित क्षेत्र (फोकस) में आते हैं और अन्य वस्तुएँ इसके इर्द-गिर्द हाशिये (मार्जिन) पर होती हैं. यों ध्यान हमारी चेतना का लक्ष्य बिंदु बनाता है. हाशियों पर ध्यान क्रमश: निस्तेज होता हुआ विलुप्त होता रहता है.
कोफ्का, कोहलर तथा वर्थाइमर ने इस सदी के दूसरे दशक में मनोविज्ञान के गेस्टाल्ट संप्रदाय की स्थापना करके आंतरिक सूझबूझ तथा बिखरी वस्तुओं में सावयवताबोध को विशेष महत्व दिया. इनके अनुसार ध्यान की प्रक्रिया में पूरी वस्तु को अलग-अलग परिप्रेक्ष्य द्वारा बदले जाने पर उसकी अलग-अलग स्वायत्ता दिखाई देती है. शतरंज की पाटी को देर तक देखें, तो कभी काले खाने एक वर्ग में होकर सफेद को पृष्ठभूमि बनाते हैं और कभी-कभी सफेद ही आगे आकर काले खानों को पीछे ढकेल देते हैं. तीन सीधी रेखाओं में बीच की एक सर्वाधिक बड़ी रेखा पूरे चित्र में ही कार्निस की शक्ल में आगे की ओर निकले होने का बोध देती है. मुड़े हुए आयताकार वस्तु का ज्यामितिक चित्र हमारे ध्यान को उसके भीतर एवं बाहर की ओर मुड़े होने का बारी बारी से बोध कराता है. यों हमारे ध्यानाकर्षण की क्रिया में भी चेतना का प्रक्षेपण होता है.
कैटेल निर्मित टैचिस्टोकोप में विभिन्न संख्या में छपे स्पष्ट बिंदुओं के कार्ड थोड़ी देर में उजागर कर छिपा लिए जाते हैं और देखनेवालों से ठीक संख्या पूछी जाती है. न्यूनतम संख्या ध्यान के लिए अधिक स्पष्ट सिद्ध होती हैं क्योंकि 4 की संख्या ऐसी थी जिसे शत प्रतिशत लोगों ने ठीक बताया. अददों का कम होना ध्यान की स्पष्टता की एक शर्त है.
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क्या है विपश्यना ध्यान…
‘विपश्यना का अर्थ है – विशेष प्रकार से देखना (वि + पश्य + ना). पालि भाषा में इसे विपासना कहते हैं.
हमारे यहाँ योग साधना के तीन मार्ग प्रचलित हैं – विपश्यना, भावातीत ध्यान और हठयोग.
भगवान बुद्ध ने ध्यान की ‘विपश्यना-साधना’ द्वारा बुद्धत्व प्राप्त किया था. महात्मा बुद्ध की शिक्षाओं में से एक विपश्यना भी है. यह वास्तव में सत्य की उपासना है. सत्य में जीने का अभ्यास है. विपश्यना इसी क्षण में यानी तत्काल में जीने की कला है. भूत की चिंताएं और भविष्य की आशंकाओं में जीने की जगह भगवान बुद्ध ने अपने शिष्यों को आज के बारे में सोचने के लिए कहा. विपश्यना सम्यक ज्ञान है. जो जैसा है, उसे ठीक वैसा ही देख-समझकर जो आचरण होगा, वही सही और कल्याणकारी सम्यक आचरण होगा. विपश्यना जीवन की सच्चाई से भागने की शिक्षा नहीं देता है, बल्कि यह जीवन की सच्चाई को उसके वास्तविक रूप में स्वीकारने की प्रेरणा देता है.
विपश्यना एक प्राचीन ध्यान विधि है जिसे भगवान बुद्ध ने पुनर्जीवित किया. यह एकमात्र ऐसी चमत्कारिक ध्यान विधि है जिसके माध्यम से सबसे ज्यादा लोगों ने बुद्धत्व को प्राप्त किया या ज्ञान को प्राप्त किया. वर्तमान में विपश्यना का जो प्रचलित रूप है, उस पर हम किसी भी प्रकार की कोई टिप्पणी नहीं करना चाहते हैं.
विपश्यना आत्मनिरीक्षण की एक प्रभावकारी विधि है. इससे आत्मशुद्धि होती है. यह प्राणायाम और साक्षीभाव का मिला-जुला रूप है. दरअसल, यह साक्षीभाव का ही हिस्सा है. चिरंतन काल से ऋषि-मुनि इस ध्यान विधि को करते आए हैं. भगवान बुद्ध ने इसको सरलतम बनाया. इस विधि के अनुसार अपनी श्वास को देखना और उसके प्रति सजग रहना होता है. देखने का अर्थ उसके आवागमन को महसूस करना.
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कैसे करें विपश्यना
विपश्यना बड़ा सीधा-सरल प्रयोग है. अपनी आती-जाती श्वास के प्रति साक्षीभाव. प्रारंभिक अभ्यास में उठते-बैठते, सोते-जागते, बात करते या मौन रहते किसी भी स्थिति में बस श्वास के आने-जाने को नाक के छिद्रों में महसूस करें. जैसे अब तक आप अपनी श्वासों पर ध्यान नहीं देते थे लेकिन अब स्वाभाविक रूप से उसके आवागमन को साक्षी भाव से देखें या महसूस करें कि ये श्वास छोड़ी और ये ली. श्वास लेने और छोड़ने के बीच जो गैप है, उस पर भी सहजता से ध्यान दें. जबरन यह कार्य नहीं करना है. बस, जब भी ध्यान आ जाए तो सब कुछ बंद करके इसी पर ध्यान देना ही विपश्यना है.
श्वास के अलावा दूसरी स्टेप में आप बीच बीच में यह भी देखें कि यह एक विचार आया और गया, दूसरा आया. यह क्रोध आया और गया. किसी भी कीमत पर इन्वॉल्व नहीं होना है. बस चुपचाप देखना है कि आपके मन, मस्तिष्क और शरीर में किसी तरह की क्रिया और प्रतिक्रियाएं होती रहती है.
विपश्यना विधि नहीं, स्वभाव है
विपश्यना को करने के लिए किसी भी प्रकार के तामझाम की या एकांत में रहने की जरूरत नहीं. इसका अच्छा अभ्यास भीड़ और शोरगुल में रहकर ही किया जा सकता है. बाइक चलाते हुए, बस में बैठे, ट्रेन में सफर करते, कार में यात्रा करते, राह के किनारे, दुकान पर, ऑफिस में, बाजार में, घर में और बिस्तर पर लेटे हुए कहीं भी इस विधि को करते रहो और किसी को पता भी नहीं चलेगा कि आप ध्यान कर रहे हैं.
विपश्यना क्यों करें
शरीर और आत्मा के बीच श्वास ही एक ऐसा सेतु है, जो हमारे विचार और भावों को ही संचालित नहीं करता है बल्कि हमारे शरीर को भी जिंदा बनाए रखता है. श्वास जीवन है. ओशो कहते हैं कि यदि तुम श्वास को ठीक से देखते रहो, तो अनिवार्य रूपेण, अपरिहार्य रूप से, शरीर से तुम भिन्न अपने को जानने लगोगे. जो श्वास को देखेगा, वह श्वास से भिन्न हो गया, और जो श्वास से भिन्न हो गया वह शरीर से तो भिन्न हो ही गया. शरीर से छूटो, श्वास से छूटो, तो शाश्वत का दर्शन होता है. उस दर्शन में ही उड़ान है, ऊंचाई है, उसकी ही गहराई है. बाकी न तो कोई ऊंचाइयां हैं जगत में, न कोई गहराइयां हैं जगत में. बाकी तो व्यर्थ की आपाधापी है.
विपश्यना का लाभ
इसे तनाव हट जाता है. नकारात्मक और व्यर्थ के विचार नहीं आते. मन में हमेशा शांति बनी रहती है. मन और मस्तिष्क के स्वस्थ रहने से इसके असर शरीर पर भी पड़ता है. शरीर के सारे संताप मिट जाते हैं और काया निरोगी होने लगती है. इसके सबसे बड़ा लाभ यह कि यदि आप इसे निरंतर करते रहे तो आत्म साक्षात्कार होने लगता है और सिद्धियां स्वत: ही सिद्ध हो जाती है.
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