मुहर्रम पर इटावा में होती है अनोखी लुट्टस रस्म
मुहर्रम पर पूरे देश में ऐसी मिसाल देखने को नहीं मिलती है जैसी उत्तर प्रदेश के इटावा में दिखायी पड़ती है. इस परम्परा का नाम है लुट्टस. यह परम्परा करीब डेढ सौ सालों से जारी है. गम के तौर पर मुहर्रम को देखा जाता है लेकिन लुट्टस के कारण लोग खुशी को इस तरह से जाहिर करते हैं मानो जश्न का कोई पर्व हो. जिसमें हिंदूओ के साथ-साथ मुस्लिम तबके के लोग भी खासी तादात मे शरीक होते हैं. यह साम्प्रदायिक सद्भाव की एक बड़ी मिसाल है. इस परम्परा के निर्वाह के चक्कर में कई लोगों को हमेशा चोट लगती रहती है लेकिन कोई भी आज तक पुलिस के पास शिकायत करने के लिए नहीं पहुंचा.
लुट्टस परम्परा की शुरूआत इटावा के एक हिंदू परिवार ने लम्बी मन्नत के बाद बेटे की पैदाइश होने पर शुरू किया था. इस परिवार के कुछ लोग अपने मासूम बच्चों को प्रतीक स्वरूप लटका कर परम्परा का निर्वाह तो करते ही हैं साथ ही बर्तन आदि लुटा कर अपनी मनोकामना पूरी करने के लिए परम्परा को जीवंत बनाए हुए हैं, जो आज इटावा की एक परम्परा के रुप में पर्व बन गया है. मुहर्रम वैसे तो गम का महीना माना जाना जाता है लेकिन इटावा की लुट्टस ने मुहर्रम के मायने ही बदल दिए हैं. इस लुट्टस परम्परा से मुहर्रम पर इटावा में अलग ढंग का माहौल देखने को मिलता है.
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लुट्टस परम्परा की शुरूआत :-
झम्मनलाल की कलार मुहल्ले में रहने वाले गुप्ता परिवार को लंबी मन्नत के बाद जब बेटे के रूप मे खुशी मिली तो जश्न के तौर पर मुहल्ले वालों को खूब पैसा-बर्तन तो लुटाया ही गया साथ ही खाने पीने के लिए खूब पकवान भी बंटवाए. आज के परिवेश में परम्परा के नाम पर ये परिवार करीब एक करोड़ से अधिक का सामान लुट्टस के तौर पर बंटवाते हैं. मन्नत के बाद जिस बेटे की पैदाइश हुई उसका नाम रखा गया था फकीरचंद्र. फकीरचंद्र का परिवार इटावा में करीब 300 लोगों के बड़े परिवार में बदल कर एक मुहल्ले का स्वरूप ले चुका है.
आजादी से पहले अंग्रेज सरकार के कुछ चुनिंदा अफसर भी इस लुट्टस परम्परा के मुरीद हुआ करते थे, जो मुहर्रम के दिनों में लुट्टस का आनन्द लेने के लिए आते रहे हैं. इस बात के प्रमाण इटावा के गजेटियर में भी लिपिबद्ध किए गए हैं. इटावा में लुट्टस परम्परा की शुरुआत करने वाले परिवार के सदस्य राकेश गुप्ता बताते हैं कि खानदान में कोई नहीं था, सिर्फ पांच बेटियां ही थीं. रूढ़वादी दौर में बेटा न होना बड़ी ही कचोटने वाली बात मानी जाती थी. उस समय तमाम मन्नतों के बाद बेटे का जन्म हुआ तो पूरा परिवार खुशी के मारे पूरे शहर भर में झूमता फिरा.
मन्नत पूरी होने के बाद परिवार के उस समय के बुर्जगों ने तय किया कि बेटे की मन्न्नत पूरी होने के एवज में मुहर्रम के दौरान बर्तन और खाने-पीने का सामान बंटवाया जाएगा, तब से यह सिलसिला बदस्तूर जारी है. यह लुट्टस परम्परा देश की अनूखी परम्परा के तौर पर तब्दील हो चुकी है क्योंकि मुहर्रम के दौरान देश में ना तो ऐसा होता है और ना ही ऐसा अभी तक देखा गया है.
इनके बेटे दिनेश गुप्ता का कहना है कि उनके परिवार ने मन्नत पूरी होने के एवज में जिस लुट्टस परम्परा की शुरूआत की है उसे हर हाल में न केवल जारी रखेंगे बल्कि परिवार के नए सदस्यों को भी इस बात के लिए प्रेरित करते रहेंगे कि मन्नत ने खानदान को बनाया है इसलिए लुट्टस रूपी मन्नत परम्परा को हमेशा बरकरार रखें. लुट्टस परम्परा शुरू करने वाले परिवार के रिश्तेदार दूर-दराज से लुट्टस के दौरान खासी तादात में इस दौरान जमा हो जाते हैं.
कौमी तहफुज्ज कमेटी के संयोजक खादिम अब्बास का कहना है कि मुहर्रम के दौरान होने वाली लुट्टस परम्परा की बदौलत इटावा का नाम अनोखी परम्परा में दर्ज है. इस परम्परा की खासियत यह है कि इसकी शुरूआत हिंदू भाई ने की और अब इसमें हिस्सेदारी मुस्लिम तबके के लोग खासी तादात में करते हैं. सबसे बड़ी बात यह है कि कई हजार लोग भारी संघर्ष के बाद एक दूसरे के ऊपर कूदकर सड़कों पर उतर करके छतों से फेंके जाने वाले बर्तनो और अन्य सामान को लूटते हैं लेकिन कोई किसी से फसाद नहीं करता है, क्योंकि सब यह मानते हैं कि छतों से फेंके जाना वाला सामान सिर्फ सामान न होकर प्रसाद की तरह है.
उनका कहना है कि साम्प्रदायिक एकता की मिसाल की इस परम्परा को बनाए रखा जाएगा. यहां के झम्मनलाल की कलारी मुहल्ले में उनके परिवारीजन अपने पूर्वजों की परम्परा का निर्वाह करते हुए विभिन्न किस्म के बर्तनो को लुटाते हैं जिसे अकीदतमंद और श्रद्धालु लूट करके इस परम्परा के गवाह बनते हैं. वरिष्ठ पुलिस अधीक्षक वैभव कृष्ण का कहना है कि मुहर्रम के दौरान वैसे तो सुरक्षा के खासे इंतजाम किए जाते हैं लेकिन यहां पर होने वाली लुट्टस के मद्देनजर व्यापक पुलिस बल लगाया जाता है, क्योंकि लुट्टस के दौरान लोगों का भारी जमावड़ा लगता है. उनका कहना है कि मुहर्रम के दौरान लुट्टस नाम की अनोखी परम्परा के बारे में पता चला है कि वाकई में यह परम्परा पुराने संस्कारो का एहसास करा रहा है.