नवरात्रि तृतीय दिवस : आध्यात्म, तप, स्वाध्याय और ईश्वर प्रणिधान : डॉ प्रणव पंड्या जी
23/09/2017
किमध्यात्मं ?
“स्वभावोऽध्यात्ममुच्यते”
विषय – अक्षर ब्रम्ह योग । (8वां अध्याय – श्री कृष्ण द्वारा अर्जुन के पूछे सात प्रश्नों के उत्तर)
नवरात्र तृतीय दिवस – द्वितीय प्रश्न – किमध्यात्मं? , उत्तर – “स्वभावोऽध्यात्ममुच्यते” । (गीता 8/1 , 8/3)
- दूसरा प्रश्न – किमध्यात्मं?
- ब्रम्ह के बारे में पूछने के बाद अर्जुन कृष्ण से पूछते हैं अध्यात्म क्या है?
- अध्यात्म बड़ा रहस्यमय है, गूढ़ विषय है । इसके बारे में जानना जरूरी है ।
- गीत – आत्म साधना ऐसी हो जो चटका दे चट्टान को ।
- हमारी साधना ऐसी हो जो चट्टान को भी टूटने के लिए मजबूर कर दे ।
- तीन चीजें हैं – तप, स्वाध्याय और ईश्वर प्रणिधान ।
- इन तीनों के माध्यम से शरीर को इस लायक बनाना कि परमात्मा से मिल सकें ।
- सबसे बढ़िया तपश्चर्या हो सकती है वह है तप ।
- तप मतलब अपने आपको तपाना, अच्छी तरह से गलाना, अपने अंदर के कषाय–कल्मष को साफ करना ।
विद्यार्थियों द्वारा प्रश्नोत्तरी –
- What are the Properties of Bramha. Can he/she listen, feel & react to us? – ब्रम्ह के गुण क्या हैं, क्या वह हमें देख सुन सकता है? – समष्टि का नाम ब्रम्ह है । ब्रम्ह Substratum है । वह सबका समिश्रण है । वह न तो सुन सकता है और न ही देख सकता है । परंतु वह हमारे कर्मों के जवाब/परिणाम देता है । अच्छे बुरे दोनों कर्मों का जवाब देता है ।
- ब्रम्ह ब्रम्हा, विष्णु और महेश से ऊपर है । और ब्रम्ह से ऊपर है परब्रम्ह । परब्रम्ह सबकुछ है ।
- तप क्या होता है – तप के माध्यम से अपने आपको शिथिल बनाने का प्रयास । मैल चढ़ जाता है तो उस मैल को धोते हैं अपने अंदर के मैल को । अपने कायन्द्रियों नस–नाड़ियों हर चीज में मैल चढ़ जाता है । भौतिक जगत के लौकिक काम की वजह से मैल चढ़ जाता है । मैल को धोना तप के माध्यम से संभव है । तप जरूरी नहीं एकदम कठोर हो थोड़ा थोड़ा बढ़ाएं थोड़ा–थोड़ा तप करें ।
- तप 3 प्रकार से होते हैं – शारीरिक तप, मानसिक तप, आध्यात्मिक तप । पतञ्जलि योग सूत्र में कहा गया है तप(स्थूल शरीर के लिए), स्वाध्याय(सूक्ष्म शरीर के लिए) और ईश्वर प्रणिधान(कारण शरीर के लिए ये क्रिया योग के तीन चरण है ।
- जन्म मरण के चक्र से मुक्त होने पर आत्मा का क्या होता है? – आत्मा चली जाती है यहां नहीं रहती । पर सत्कर्मों के अनुसार उसका पुनर्जन्म होता है, कभी भी आना हो तो वहां आ सकती हैं । और इसका निर्धारण परमात्मा करते हैं कि इसको कहां जाना चाहिए । श्रेष्ठ आत्माएं जन्म लेने के लिए उत्सुक रहती हैं । क्यों?- क्योंकि धरती पर आकर उनको काम करने का मौका मिलता है, शरीर मिल जाता है, मनुष्य तन मिल जाता है और कई आत्माएं ऐसी होती है जो बंधन मुक्त हो जाती है ।
- आदमी अकेला मरता है अकेले कर्म का फल भोगता है तो समाज सेवा क्यों करते हैं? समाज सेवा इसलिए करता है कि जो कर्म कर रहे हो उसमें कोई गड़बड़ियां हो गई हो तो वह ठीक हो जाए । समाज सेवा से कर्म में जो गड़बड़ियां है वह ठीक हो जाती है । जितने सत्कर्म करोगे कर्म जो है उतने करेक्ट(Correct) होते चले जाएंगे । जाने अनजाने में कई बार गलत काम हो जाते हैं तो कई बार लापरवाही की वजह से गलतियां हो जाती हैं । किस ग्रेविटी की गलतियां है इस पर डिपेंड करता है सब कुछ इन गलतियों को ठीक करने का काम करता है समाज सेवा । परम पूज्य गुरुदेव ने कहा है – परमार्थ में ही सच्चा स्वार्थ है ।
- Why Living Spiritual Society Group is trying to Prove the other Wrong? – No! We are not proving others wrong. Nothing proves others wrong. If you are doing good, you are doing good for betterment of the society.
- किसी को गलत सिद्ध करने की कोई आवश्यकता नहीं, वह अपने आप सिद्ध हो जाता है । अपने काम से हम अपने आपको को खुद प्रामाणिक कर देते हैं ।
- It is sign of weakness to ask Guru before taking all decisions in life or is it a Sign of Samarpan? जब समर्पण होता है तो अपने आप अंदर से प्रश्न उठता है और गुरु अंदर से ही जवाब दे देते हैं । अगर आपका समर्पण सच्चा है तो गुरू तुरंत जवाब देंगे । अगर तुम कोई गलत स्टेप उठा रहे हो तो वह अंदर से कहेंगे तुमको कि नहीं! यह मत करो । Inner Voice ही गुरु की Voice है ।
- बुद्ध के अनुसार पहले स्वास्थ्य फिर भूख फिर धर्म क्या यह सही है? – स्वस्थ शरीर स्वस्थ मन सभ्य समाज । स्वस्थ शरीर बनेगा भूख पूरी होने के बाद, थोड़ी सी क्रिया कर्म होने के बाद, थोड़े Actions होंगे तो । धर्म जो है इंसान की बेसिक आवश्यकता नहीं है सबसे पहले जो बेसिक आवश्यकता है वह है भूख । यह बिल्कुल सही है जो बुद्ध जी ने बताया । धर्म परमार्थ है, जो भूखा है उसे भोजन कराना एक तरह से धर्म ही है ।
- किसी की मृत्यु पर विलाप होना एक सहज स्वाभाविक प्रक्रिया है । ऐसे में शोक में डूबना नहीं है बल्कि उसे स्वीकार करना है । गुरुदेव के जाने पर माताजी भी रोई थी उनको भी विलाप हुआ था पर उन्होंने स्वीकार किया था । किसी अपने के चले जाने पर विलाप सहज ही होता है परंतु जब हम उसे उसकी मृत्यु को स्वीकार कर लेते हैं तो वह विलाप Balanced हो जाता है । कई बार किसी की मृत्यु पर विलाप हो यह जरूरी भी नहीं है, किसी–किसी को ही ऐसा होता है क्योंकि वह परिस्थिति को स्वीकार कर लेते हैं और balanced कर लेते हैं ।
- वेशभूषा का आध्यात्मिक जीवन में क्या प्रभाव है? – बेटा! वेशभूषा यह बताती है कि आप कैसे हैं? आपका नेचर क्या है? आपका मूड क्या है? आपका व्यक्तित्व(Personality) क्या है? हमारे देश की सबसे बड़ी क्वालिटी है वेशभूषा । चाहे धोती–कुर्ता हो या पैजामा–कुर्ता हो, यह हमारे देश की क्वालिटी है कि जैसा हम यहां के क्लाइमेट में रह सकते हैं हम रहने की कोशिश करते हैं । बाकी आप पेंट शर्ट में रही है कोई दिक्कत नहीं है । पर कई साधु सन्यासी ऐसे भगवा कपड़े पहन लेते हैं और कुकर्म करते हैं । कपड़ा कुछ कर्म कुछ । कपड़े से कुछ डिसाइड नहीं होता, कपड़ा डिसाइड नहीं करता कि यह आदमी Civilized है या नहीं सिविक सेंस (civic sense) उसे है या नहीं ।
- वेदांत के 4 सूत्र– अहम् ब्रह्मास्मि (मैं ब्रम्ह हूँ), अयम् आत्मा ब्रह्म (ये मेरी आत्मा ब्रह्म है), शिवोहम(मैं शिव हूँ) और सच्चिदानंद अहम् ( में सत चित आनंद हूँ) ऐसे करीब 7 सूत्र हैं इसमें से 4 सूत्रों को प्रथम माना जाता है ।
- श्री कृष्ण करुणा और दया के सागर है फिर उन्होंने बर्बरीक का शीश क्यों काट लिया? – श्री कृष्ण जी ने देखा कि सारा का सारा स्वयं यह एक अकेला बर्बरीक लेना चाहता है । महाभारत में बर्बरीक ने कर्म के अलावा एक विशिष्ट कर्म जो था जो उसे नहीं करना चाहिए था उस अनीतिपूर्ण काम के लिए उन्होंने उसका शीश सुदर्शन चक्र से काट दिया क्योंकि भगवान कृष्ण नहीं चाहते की कोई नीति के विरुद्ध काम करें । यदि नीति के विरुद्ध कोई आचरण करता है तो श्री कृष्ण खड़े हो जाते हैं ।
- ब्रह्मा जी ने इस पृथ्वी की रचना की और क्यों इसमें वास करने के लिए मनुष्य बनाया? मनुष्य बनाने के पीछे क्या कारण था? जबकि मनुष्य प्राप्त होता है मृत्यु को और मृत्यु को प्राप्त होता है तो फिर मनुष्य बनाने की क्या जरूरत थी? – तीन चीजों के लिए वासना, तृष्णा और अहंता । इन तीन चीजों से कैसे मुक्त हुआ जाता है यह सिखाने के लिए मनुष्य बनाया । वासना तृष्णा और अहंता से जन्मभर हमें लड़ना पड़ेगा, जीवनभर लड़ना पड़ेगा और लड़ते लड़ते ही अंतिम शिखर पर पहुंचेंगे । नहीं लड़ पाए तो फिर से पुनर्जन्म लेना पड़ेगा । भगवान श्री कृष्ण कहते हैं कि फिर से पुनर्जन्म होता है और फिर पुनर्जन्म होने के बाद मुझे प्राप्त हो जाता है । जब तक मुझे प्राप्त नहीं होते तब तक मनुष्य जन्म लेता रहता है । पुनरपि जननं पुनरपि मरणं पुनरपि जननीजठरे शयनम् ।
विषय वस्तु सार–
- नवरात्र तृतीय दिवस – आज की देवी है चन्द्रघण्टा ।
- नाद के प्रकाश का प्रथम अनुभव । नाद का प्रथम अनुभव, उस नाद का जिस नाद से यह धरती उत्पन्न हुई ऐसा कहते हैं कि यह धरती नाद से उत्पन्न हुई है या फिर तीव्र प्रकाश से । एक नूर ते सब जग उपज्या – गुरुनानक जी कहते हैं । एक प्रकाश से सारा जग पैदा हुआ है । एक नाद बजा और सारा का सारा संसार पैदा हो गया उस नाद को बोलते हैं प्रणव नाद (ॐ = अ+ उ+म्) ।
यह आध्यात्मिक नाद ऊर्ध्व गमन की ओर ले जाता है ।
- आठवें अध्याय का दूसरा प्रश्न । “किमध्यात्मं”
- अर्जुन के अंदर जिज्ञासा बहुत है । जिज्ञासा के उच्चतम तल पर है ।
श्लोक–
किं तद्ब्रह्म “किमध्यात्मं” किं पुरुषोत्तम ।
अधिभूतं च किं प्रोक्तमधिदैवं किमुच्यते ॥
भावार्थ– अर्जुन ने कहा– हे पुरुषोत्तम! वह ब्रह्म क्या है? अध्यात्म क्या है? कर्म क्या है? अधिभूत नाम से क्या कहा गया है और अधिदैव किसको कहते हैं ॥1/1॥
श्लोक–
अक्षरं ब्रह्म परमं “स्वभावोऽध्यात्ममुच्यते” ।
भूतभावोद्भवकरो विसर्गः कर्मसंज्ञितः॥
भावार्थ– श्री भगवान ने कहा– परम अक्षर ‘ब्रह्म‘ है, अपना स्वरूप अर्थात जीवात्मा ‘अध्यात्म‘ नाम से कहा जाता है तथा भूतों के भाव को उत्पन्न करने वाला जो त्याग है, वह ‘कर्म‘ नाम से कहा गया है ॥8/3॥
- ब्रम्ह क्या है?, अध्यात्म क्या है?, कर्म क्या है? कैसे जानें इनको?
- अर्जुन के मन में जिज्ञासा पैदा हुई मैं जानना चाहता हूँ । भगवान कृष्ण कहते हैं अध्याय 7 के 29वें श्लोक में –
श्लोक– (7/29)
जरामरणमोक्षाय मामाश्रित्य यतन्ति ये ।
ते ब्रह्म तद्विदुः कृत्स्नमध्यात्मं कर्म चाखिलम्॥
भावार्थ– जो मेरे शरण होकर जरा और मरण से छूटने के लिए यत्न करते हैं, वे पुरुष उस ब्रह्म को, सम्पूर्ण अध्यात्म को, सम्पूर्ण कर्म को जानते हैं ॥7/29॥
फिर कहते हैं –
श्लोक– (7/30)
साधिभूताधिदैवं मां साधियज्ञं च ये विदुः ।
प्रयाणकालेऽपि च मां ते विदुर्युक्तचेतसः॥
भावार्थ– जो पुरुष अधिभूत और अधिदैव सहित तथा अधियज्ञ सहित (सबका आत्मरूप) मुझे अन्तकाल में भी जानते हैं, वे युक्तचित्तवाले पुरुष मुझे जानते हैं अर्थात प्राप्त हो जाते हैं ॥7/30॥
- आज का प्रश्न है अध्यात्म क्या है?
- जीवन के बड़े मौलिक प्रश्न है लक्ष्य क्या है? मार्ग क्या है?
- ब्रम्ह से जुड़े हुए, ब्रम्ह से बने हुए तीन शब्द में मिलते हैं – ब्रम्ह , ब्रह्मा और ब्राम्हण । फिर एक और शब्द है ब्रम्हवेत्ता जो ब्रम्ह की जानकारी रखता है । यह चार शब्द ऐसे हैं जिनमें कहीं ना कहीं ब्रम्ह गुथा हुआ है ।
- ब्रम्ह है परम चेतना सब कुछ, सबका आधार । समष्टि की, सृष्टि की, व्यक्ति की पूर्णता ये ब्रम्ह है ।
- ॐ पूर्णमदः पूर्णमिदं पूर्णात् पूर्णमुदच्यते । पूर्णस्य पूर्णमादाय पूर्णमेवावशिष्यते । ।
- ॐ वह (परब्रह्म) पूर्ण है और यह (कार्यब्रह्म) भी पूर्ण है; क्योंकि पूर्ण से पूर्ण की ही उत्पत्ति होती है । तथा [प्रलयकाल मे] पूर्ण [कार्यब्रह्म]- का पूर्णत्व लेकर (अपने मे लीन करके) पूर्ण [परब्रह्म] ही बच रहता है ।
- चेतना की पूर्ण अवस्था – ब्रम्ह ।
- शास्त्र कहते हैं निर्विशेष, निर्विकल्प, निष्काम, निस्पंद स्थिति । ये ब्रम्ह की व्याख्या है । इसकी 3 धाराएं हैं सत, रज, तम । सत् की धारा से ब्रह्मा बने, रज की धारा जो सृष्टि का पालन पोषण करती है उससे विष्णु बने और तम् की धारा जो संहार करती है, सृष्टि का लय करती है उससे महेश (शिव) बने ।
- एक शब्द है ब्राम्हण, इसके दो अर्थ हैं– एक तो ब्रम्हा के वंशज और दूसरा है जो ब्रम्ह को जाने वह ब्राम्हण है । और जो ब्रम्ह को जान चुका है वह है ब्रम्हवेत्ता ।
- उपनिषद में एक प्रश्न आता है जिसे जानने पर सबकुछ जान लिया जाता है वह क्या है? (यस्मिन विजानिते सर्वम् विजानात्) – वह ब्रम्ह ही है । जहाँ अनंतता है, शुद्धता है सबकुछ चरम पर है ।
- अर्जुन जो प्रश्न पूछ रहे हैं ब्रम्ह क्या है, अध्यात्म क्या है आदि तो वास्तव में वो सब जीवन का श्रोत, जीवन के परम लक्ष्य, जीवन का आधार के लिए पूछ रहे हैं ।
- ब्रम्ह को जान लेने के बाद मनुष्य ब्राम्ही स्थिति में रहता है ।
श्लोक–
एषा ब्राह्मी स्थितिः पार्थ नैनां प्राप्य विमुह्यति ।
स्थित्वास्यामन्तकालेऽपि ब्रह्मनिर्वाणमृच्छति॥
भावार्थ– हे अर्जुन! यह ब्रह्म को प्राप्त हुए पुरुष की स्थिति है, इसको प्राप्त होकर योगी कभी मोहित नहीं होता और अंतकाल में भी इस ब्राह्मी स्थिति में स्थित होकर ब्रह्मानन्द को प्राप्त हो जाता है ॥2/72॥
- दो ही पदार्थ इस संसार में है एक क्षर दूसरा अक्षर । ब्रम्ह अक्षर है जो नष्ट नहीं किया जा सकता । एक वह है जिसे तोड़ा जा सकता है दूसरा वो जिसे नहीं तोड़ा जा सकता ।
- कल ब्रम्ह के चार सूत्र बताए गए थे –
1 सूत्र – अथातो ब्रम्ह जिज्ञासा । (अब(अथ–इसके बाद) ब्रम्ह के बारे में जानते हैं) मीमांसा में अथातो धर्म जिज्ञासा कहा गया है ।
2 सूत्र – जन्माद यस्य यतः । (जिसके जन्म के बाद तुम हो वह ब्रम्ह है)
3 सूत्र – शास्त्रयोनित्वात । (ब्रम्ह को जगत का कारण कहा गया है)
4 सूत्र – तत तु समन्वयात् । (उसी से सब हैं, जिसमें सब समय हुए हैं)
- इसके बाद अर्जुन जानना चाहते हैं कि अध्यात्म क्या है ?
- अध्यात्म में वह मार्ग हैं जिससे ईश्वर का साक्षात्कार होता है ।
- हम ब्रम्ह जो सृष्टि का संचालन करते हैं का साक्षात्कार करते हैं अध्यात्म के माध्यम से ।
- पुरुष, प्रकृति, शिव, ईश्वर और शक्ति इन सबका जो साक्षात्कार करा दे वह अध्यात्म है । यह अनुभव कैसे हैं? तो अध्यात्म की परिभाषा कहती है – अधिहः आत्मानम् इति अध्यात्म । अपने आप को जानें, अपने आप की अनुभूति करें सबसे पहले ।
- अपने अस्तित्व का अध्ययन, अपने आप को जानना, अपनी आत्म सत्ता का अध्ययन अध्यात्म है ।
- अध्यात्म को लेकर के चित्र–विचित्र धारणाएं हैं आज । कई बार व्यक्ति व्रत–उपवास करते हैं, माला जपते हैं, पूजा करते हैं, चित्र–विचित्र तिलक लगाते हैं, ढेर सारी भगवा कपड़े पहन लेते हैं, मालाएं पहनते हैं आदि आदि । लोग मंदिर जाते हैं कथा कीर्तन करते हैं और कहते हैं कि यह बड़ा आध्यात्मिक है, ध्यान लगाते हैं आंखें बंद करके बैठे रहते हैं पर मां नहीं लगता उनका । इन्हीं सब चीजों को अध्यात्म मान लेते हैं ।
- अध्यात्मिक वह है जिसके अंदर अलौकिक कुछ कार्य करने की चाह हो ।
- अध्यात्म की खोज में हजारों लाखों करोड़ों लोग लगे हुए । कई बार लोग घर छोड़ देते हैं, आश्रम में रहते हैं, वैराग्य ले लेते हैं, कपड़ा बदल लेते हैं, गेरुवां–पीला कपड़ा पहन लेते हैं, सफेद कपड़े पहन कर श्वेताम्बर कहने लगते हैं, कुछ लोग कपड़े उतार देते हैं दिगम्बर कहे जाते हैं (जैन मुनि) ।
- कुछ नहीं होता इनसे, जब तक अपने आप को नहीं जानेंगे तब तक कुछ नहीं होता, अध्यात्म नहीं आता । कपड़े बदलने/पहनने से अध्यात्म नहीं । बाहर का विन्यास तुम छोड़ दो, पहले अपने अंदर को जानो ।
- आचार्य शंकर कहते हैं – मुण्डित मस्तक लुंचन केशा, काशायाम्बर बहुकृत वेशा । (सिर मुड़वा लिया, केश का लुंचन करा लिया, बहुत सारे वेशभूषा) इससे भगवान नहीं मिलने वाला । इसमें अध्यात्म नहीं है ।
- आज का अज्ञान क्या है यह हमसे अलग है । हम समझते हैं ये हमसे अलग है, आध्यात्मिक है । ऐसा नहीं है । अध्यात्म कहीं और है ।
- कई ज्योतिर्विज्ञान को ही अध्यात्म समझ बैठता है । इस विज्ञान से भविष्य तो बता सकते हो । पर भविष्य बताने से कुछ नहीं होता । भविष्य के साथ–साथ जीवन की दिशा भी बतानी पड़ती है कि जीवन कैसे जियें । जो कि गुरु ही बता सकता है और कोई नहीं ।
- भगवान से किया हुआ प्रश्न बड़ा मौलिक है – किम् अध्यात्मं?
- तो भगवान जवाब देते हैं – “स्वभावोऽध्यात्ममुच्यते” ।
- “अपना स्वरूप अर्थात जीवात्मा ‘अध्यात्म‘ नाम से कहा जाता है” ।
श्लोक–
अक्षरं ब्रह्म परमं “स्वभावोऽध्यात्ममुच्यते” ।
भूतभावोद्भवकरो विसर्गः कर्मसंज्ञितः॥
भावार्थ– श्री भगवान ने कहा– परम अक्षर ‘ब्रह्म‘ है, “अपना स्वरूप अर्थात जीवात्मा ‘अध्यात्म‘ नाम से कहा जाता है” तथा भूतों के भाव को उत्पन्न करने वाला जो त्याग है, वह ‘कर्म‘ नाम से कहा गया है ॥8/3॥
- हमारी प्रकृति ही अध्यात्म है, हम जो हैं वही अध्यात्म है । हम खोजें हम देखें कि हमारी प्रकृति क्या है? अपने अंदर झांको की तुम क्या हो? जो अंदर है वही तुम्हारा अध्यात्म है ।
- जैन साधुओं में एक परंपरा है । बौद्ध साधना में एक परंपरा है इसको जैन परंपरा कहते हैं । इस परंपरा के प्रवर्तक महाकाश्यप थे । भगवान बुद्ध के शिष्य । महाकाश्यप एक ज्ञानी शिष्य हुए हैं । विरल महापुरुष माने जाते हैं धरती पर । ऐसे कम ही लोग होते हैं जिनके शिष्य उन्हीं की तरह हो गए हों यानि बुद्ध के सामने बुद्ध बन गए बोधि को प्राप्त कर लिए । बैशाख पूर्णिमा की रात थी जिसदिन राजकुमार ने जन्म लिया सिद्धार्थ ने । बैशाख मास की पूर्णिमास तिथि थी जब उनके हृदय में प्रकाश आया और उनको बोधि सत्व के रुप से ज्ञान मिला कि वह प्रकाशपुंज बुद्ध हैं । बैशाख पूर्णिमा के दिन महानिष्क्रमण(उस सीमा से ऊँचे उठना) किया उन्होंने, बैशाख पूर्णिमा को ही निर्वाण(जीते जागते शरीर में मोक्ष को प्राप्त होना) प्राप्त किया उन्होंने और बैशाख पूर्णिमा को ही परिनिर्वाण(शरीर छोड़ना) प्राप्त हुआ ।
- बुद्धि के पास बहुत सारे लोग है । अलौकिक व्यक्तित्व, अलौकिक मेधा, अलौकिक ज्ञान वाले । निरंजना नदी के तट पर बुद्ध ने अपनी तपस्या का अंतिम चरण पूरा किया । और उनके पास जब लोग आए तो उनको ऐसा लग जैसे नदी के पास जाने पर जो ठंडक का अहसास होता है वैसा लगता है उन्हें । बुद्ध के पास आने पर सारे कष्ट/परेशानी नष्ट हो जाते ।
- बुद्ध नदी का एक स्रोत हैं ठीक उसी प्रकार जिस प्रकार लोग नदी, झरनों के पास जाकर अपनी प्यास बुझाते हैं । जब कोई फूल खिलता है तो उसके रुप का, उसके रस का, उसके रंग का, उसके गंध का , उसकी सुषमा का , उसके सौरभ का सानिध्य पाने लोग आते हैं जैसे भौरें/मक्खियां आती है पराग चूसती है । बुद्ध के पास भी कुछ लोग आए और बुद्ध के जीते जी परमज्ञान को प्राप्त हो गए । महाकाश्यप, सारिपुत्र और मौद्गल्यायन ये तीन लोग थे जो अंतिम स्थिति में उनके साथ ही बुध्द बने ।
- महापुरुषों की सुगंध अपने आप ही फैल जाती है ।
- किस साहित्यकार ने लिखा है –
पुष्प का है सुरभि से एक अनलिखा अनुबंध,
पवन को सौपें बिना मैं झरु सौगंध ।
- महाकाश्यप परम ज्ञानी थे । बुद्ध की परंपरा को उन्होंने आगे बढ़ाया । उन्होंने एक ध्यान शब्द दिया झान (Jhan) इससे से ही जैन परंपरा बना । ये ईस्ट में गया (जापान, इंडोनेशिया आदि) । महाकाश्यप ले गए इनको जैन साधु कहते हैं ।
- जैन का मतलब क्या होता है – Find out your own originality. अपने मौलिक स्वरुप को जानने की कोशिश करो कि तुम मौलिक रुप में क्या हो?
- मौलिक रुप में तुम स्वयं परमात्मा हो यह अनुभव करने की कोशिश करो । ये अध्यात्म है ।
- वास्तविक चेहरा ढूंढो । अनेक मुखौटे हैं आपके पास । एक मुखौटा है डिग्री का इसको अलग रखो । ये समझो कि तुम एक साधक हो । और यहां साधना के उद्देश्य से पढ़ाई करते हो और कुछ हासिल करना चाहते हो ।
- अनेक भावदशा में जीते हो । भाव तो समझ में आता है पर स्वभाव क्या है? ये नहीं आता समझ में ।
- भाव के साथ कई शब्द जुड़े हुए हैं मूड़, मनःस्थिति, भाव दशा ।
- भाव से आपकी चेतना की वर्तमान मनोदशा का पता चलेगा । भाव के साथ दुर्भाव भी जुड़ते हैं । सुबह से शाम तक कई मनोभावों में जीते हैं । भाव दशा बदलती रहती है । दुर्भाव के साथ कुभाव भी हैं, प्रभाव भी हैं । एक शब्द है महाभाव (जो चैतन्य महाप्रभु की स्थिति थी), एक है अहोभाव (जब आनंदित हो जाते हैं मां आनंदमयी की स्थिति यही थी, चैतन्य महाप्रभु, मीरा, रामकृष्ण परमहंस आदि इसी अवस्था के थे)
- सुबह से शाम तक हमारा मूड बदलते रहता है सभी खुश कभी दुखी कई बार भाव हमें सताने लगता है कभी दूसरों को सताने लगता है । दूसरों को परेशान नहीं करना चाहिए ।
- घरपरिवाररिश्तेनातोमेंअगरदेखेंतोभावोंकेआधारपरहीरिश्तेविकसितहोतेहैंसारेकेसारे।
- कई बार भावों के टकराने से उपद्रव होता है । और उस मूड के शमन होने पर वह भाव भूल जाते हैं दोस्ती हो जाती है ।
- संसार भावों की अभिव्यक्ति है । हम अपना संसार भावों की अभिव्यक्ति से बनाते हैं । अब Positive बनाते हैं या Negative ये आपके ऊपर निर्भर है ।
- आज लोगों में सेल्फी लेने का प्रचलन है । अपने चेहरे की सेल्फी लेते है अपर आपका असली चेहरा क्या है? your own qualities, your own feelings are your face.भाव भी एक चेहरा है । आत्मजगत की सेल्फी कोई नहीं लेता है । इसकी सेल्फी हमारी डायरी ले सकती है जिसमें अपने भावों की हम अभिव्यक्ति लिखते हैं और कोई नहीं ले सकता अन्तर्जगत की सेल्फी ।
- अगर अन्तर्जगत को खोज लें, जान लें तो समझो अध्यात्म मिल गया ।
- भगवान इसलिए कहते हैं – स्वभावो अध्यात्मं उच्यते । आपका अपना भाव क्या है, स्वभाव क्या है इसको जानना अध्यात्म है ।
- एक बौद्ध दार्शनिक हुए Sant Augustine, महान संत थे उन्होंने अपने अनुभवों का एक सार निकाला – Search your own self.
- श्वेतकेतु को 5 साल पढ़ने के बाद जब मातापिता ने पुनः पढ़ने भेजा और कहा कि बताओ तुम क्या हो? कहा तुमको ये सिखाया कि तुम क्या हो? नहीं तो जाओ सिख कर आओ । फिर लौट के आता है तो उसके तप की वजह से, गुरु की शिक्षा की वजह से मालूम होता है कि मातापिता सबकुछ है और प्रणाम करता है माता पिता को । मातापिता बोलते हैं हम बताते है कि क्या हो तुम? गूलर का फल देते हैं और तोड़ने बोलते हैं , तोड़ा! इसमें क्या है तो बीज है! बीज को तोड़ो , तोड़ा! बोले इसमें क्या है? तो इसमें कुछ भी नहीं है । बोले इस कुछ नहीं के अंदर ही सबकुछ है । उपनिषद की ये एक सुंदर कथा है । तुम्हारा अपना व्यक्तित्व इस बीज के रूप में तुम हो । तत्वमसि श्वेत केतु । तुम जिसे खोज रहे हो वो तुम ही हो ।
- रमण महर्षि के पास लोग पूछते थे कि हमें अध्यात्म को जानना है, ज्ञान प्राप्त करना है । तो सबसे पहले रमण महर्षि उनसे पूछते थे कि तुम कौन हो ये बताओ । मैं ब्रम्ह के बारे में नहीं पूछ रहा मैं तो पूरा कि तुम कौन हो? सबसे पहला उपदेश होता था कि तुम कौन हो ये जानो ।
- परम पूज्य गुरुदेव ने (1938-39 में) एक किताब लिखी – “मैं क्या हूँ” । सबसे पहली पुस्तक ।
- हमें पता ही नहीं होता कि हम किस मूड में रह रहे हैं । दिन भर में तरह–तरह के भाव होते इसलिए भगवान कहते हैं कि वास्तविक रंग क्या है? चेहरा क्या है? , भाव क्या है? केंद्रीय तत्व क्या है? बेसिक एसेंशियल एलिमेंट क्या है इसे जानो ।
- उपनिषद कहते हैं तुम वही हो जिसे खोज रहे हो । तत्वमसि ।
- बचपन से लेके अभी तक आपके मैं ने Self ने बहुत सारे रंग बदले ।
- शुरू से रंग बदलने की प्रक्रिया चलते चली आरही है, धीरे से पता चला कि ये तो वास्तविक रंग है ही नहीं । भाव परिवर्तित हो जाते है इसे कहते हैं Oscillated State of Mind से Stablish State of Mind में जाना ।
- वास्तविक वही है जो सत्य की अनुभूति कर दे ।
- कृष्ण अर्जुन का संवाद सूत्र रूप में है । गीता जो अर्जुन से कही गयी वह अर्जुन की ही है । वह अनुभूति अर्जुन ने प्राप्त की । शंकाएं, वो प्रश्न, वो समाधान, वो उत्तर, वो अनुभूति अर्जुन ने प्राप्त की । गीता श्री कृष्ण की देन है पर अनुभूति अर्जुन की है । कृष्ण अर्जुन को शब्द नहीं दे रहे हैं अनुभव दे रहे हैं । अर्जुन की चेतना, भावदशा निरंतर विकसित और परिष्कृत होती चली जा रही है । पहले अध्याय से अठारहवें अध्याय तक ।
- गीता एक अनुभव यात्रा है – A journey of Experiential Knowledge.
- अर्जुन गीता के दूसरे अध्याय में कहते हैं –
श्लोक–
कार्पण्यदोषोपहतस्वभावः
पृच्छामि त्वां धर्मसम्मूढचेताः ।
यच्छ्रेयः स्यान्निश्चितं ब्रूहि तन्मे
शिष्यस्तेऽहं शाधि मां त्वां प्रपन्नम्॥
भावार्थ– इसलिए कायरता रूप दोष से उपहत हुए स्वभाव वाला तथा धर्म के विषय में मोहित चित्त हुआ मैं आपसे पूछता हूँ कि जो साधन निश्चित कल्याणकारक हो, वह मेरे लिए कहिए क्योंकि मैं आपका शिष्य हूँ, इसलिए आपके शरण हुए मुझको शिक्षा दीजिए ॥2/7॥
- इसके बाद वही अर्जुन सीखते–सीखते 18वें अध्याय में कहते हैं –
श्लोक– (18/73)
अर्जुन उवाच
नष्टो मोहः स्मृतिर्लब्धा त्वप्रसादान्मयाच्युत ।
स्थितोऽस्मि गतसंदेहः करिष्ये वचनं तव॥
भावार्थ– अर्जुन बोले– हे अच्युत! आपकी कृपा से मेरा मोह नष्ट हो गया और मैंने स्मृति प्राप्त कर ली है, अब मैं संशयरहित होकर स्थिर हूँ, अतः आपकी आज्ञा का पालन करूँगा॥18/73॥
- ( प्रश्न, उत्तर, जिज्ञासा, समाधान और अनुभूति ये यात्रा करके चेतना के शिखर पर अर्जुन । )
- अब मैं सब कुछ समझ चुका हूँ । अपना स्वभाव जान गया हूँ ।
- Life में कभी–कभी कई ऐसी घटनाएं होती है । जिससे हमें अपने स्वभाव का पता चलता है ये गुरु की कृपा से ही संभव है ।
- हमारी मनोदशा बदलते रहती है कई तरीके की लहरें उठती हैं मैन में और ज्यादा लहरें टकराती है इकट्ठी होती है तो दंगा होता है जैसे इंदिरा गांधी के समय में इमरजेंसी लगी थी तब । पार्टियों का सत्ता में आना जाना लगा रहा । मतलब लहरें आती जाती रहती है मन में ।
- स्वाधीनता आंदोलन में ऐसी ही एक लहर आयी भारत छोड़ो आंदोलन । समाज की लहरें बदलती रही समाज के भाव दिशा बदल गए ।
- शादी के time पर लड़के द्वारा लड़की को देखा जाना मेकअप के साथ बहुत अच्छा लगता है पर जरूरी ये है कि असली चेहरा क्या है?
- अंदर से जैसे हो बाहर वैसे ही रहो । यत् अंतरम् तत् बाह्यं, यत् बाह्यं तत् अंतरम् ।
- पतंजलि कहते हैं – योगश्चित्तवृत्ति निरोधः । चित्त की वृत्तियों को साफ करो । ऐसी स्थिति में इसे आने दो जहां अपना स्वरूप देख सको – तदा द्रष्टु स्वरूपेवस्थानं ।
- वृत्तियां ठीक होंगी, संस्कार छटेंगे तब अपने स्वरूप में स्थित हो पाओगे ।
- हमारा स्वरूप क्या है? Face क्या है – चिंतन, चरित्र और व्यवहार । इससे हमारा व्यक्तित्व प्रकाशित होता है ।
- चित्त की परतें छटते–छटते ऐसी स्थिति में पहुंच जाती हैं जहां कोई चेहरा नहीं होता । उस अवस्था को कहते हैं विवेक ख्याति ।
- पतंजलि कहते हैं विवेक ख्याति की अवस्था में चित्त में कुछ नहीं होता । चित्त स्फटिक की भांति चमकने लगता है । प्रकाश ही प्रकाश होता है । शुद्धतम अवस्था है ।
- पहले हम बैठें तो सही । स्थिरं सुखं आसनं । सुख पूर्वक स्थिर आसन में बैठना । स्थिर होना सीखो । मन की लहरें छटेंगी, जन्म–जन्मांतर के कर्म–संस्कार झड़ेंगे तब स्थिरता आएगी ।
- स्वभाव और प्रकृति एक ही शब्द है । प्रकृति के साथ एक चीज घुल गयी है विकृति । जो Naturality है वो आज है ही नहीं । विकृतियों को दूर करो । तो कैसे?
- पतंजलि कहते हैं – तप से दूर करो । कायन्द्रीय सिद्धि अशुद्धि अशक्ष्यात तपसः । काया और इंद्रियों के अशुद्धि का क्षय और सिद्धि की प्राप्ति होती है तप से ।
- इसलिए पतंजलि तीन चीजें बताते हैं – तप, स्वाध्याय और ईश्वर प्रणिधान । ये क्रिया योग है । Cleansing Process है ।
- पुराने जमाने में बर्तनों में मिट्टी लगाते थे फिर मांजते थे खाना बनाने के बाद । तो मांजने के बाद उसकी चमक दिखाई देती थी । ठीक वैसे ही रगड़–रगड़ के अपने मन के मैल को साफ करना तप है ।
- चित्त परिष्कृत होना चाहता है । उसे परिष्कृत करो । कई जन्मों का मैल है उसे शुद्ध करो । धीरे – धीरे जन्मों की परतों की सफाई करते जाओ । यह भाव दशा वृत्तियों की है जब वृत्तियां थमेंगी, हलचल थमेंगी तो मन का सरोवर स्थिर होगा और सबकुछ स्पष्ट प्रकट होगा ।
- जब पानी स्थिर होता है तभी उसके अंदर स्पष्ट दिखाई देता है ।
- तप की ऊर्जा, भक्ति की ऊर्जा और ध्यान की ऊर्जा इन तीन ऊर्जाओं से व्यक्ति को अंदर से परतों के क्षय करने से आराम मिलता है ।
- हमारा स्वभाव दुखपूर्ण नहीं है सहज ही आनंदपूर्ण है । आनंदमयो एव पुरुषः । यह पुरुष आनंदमय है ।
- हमें क्या करना चाहिए? तो हमें अपने स्वभाव की खोज करनी चाहिए ।
- देह मंदिर में आराधना करनी चाहिए । गुरुदेव ने 18 सूत्रों में पहला सूत्र दिया – शरीर को भगवान का मंदिर समझकर आत्मसंयम और नियमितता द्वारा आरोग्य की रक्षा करेंगे ।
- शरीर को भगवान का मंदिर समझें और आराधना करें ।
- रमण महर्षि कहते हैं – What am I ? असली अध्यात्म यही है ।
- असली अध्यात्म स्वभाव ही है ।
- तुम वही हो जो परमात्मा है । इसे अनुभव करो ।
- पांच चरण हैं –
पहला चरण – अपनी वृत्तियों को थामों । पहले परिभाषित करो और फिर थामों ।
दूसरा चरण – संस्कारों को क्षीण करो । कर्म की परतों को तोड़ो ।
तीसरा चरण – चित्त को स्फटिक की तरह प्रकाशित करो, शुद्ध करो और उसमें स्वयं का भाव प्रकट होने दो ।
चौथा चरण – तस्य प्रज्ञा ऋतंभरा(PYS) तब उस व्यक्ति की प्रज्ञा ऋत में स्थित हो जाती है ऋतम्भरा हो जाती है । उस ऋतम्भरा के प्रकाश में अपने Original Face को देखना । वास्तविक रूप में क्या है यह पता चलता है ।
पांचवा चरण – तदा द्रष्टु स्वरूपेवस्थानं । इसके बाद अपने स्वरूप में स्वभाव में प्रतिष्ठित हो जाना ।
- स्व भाव में प्रतिष्ठित होना आध्यात्मिक होना है “स्वभाव” यही अध्यात्म है ।
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