रानी पद्मावती : कहानी, फंतासी, इतिहास और फिल्म के बीच खड़ा एक रानी का जौहर
रानी पद्मावती कल्पना हैं या असलियत, इस पर भले ही सवाल हों लेकिन भारतीय उनकी कहानी हमेशा से सुनते आ रहे हैं. इस पर तमिल और हिंदी में साठ के दशक में फ़िल्में भी बन चुकी हैं.
जहां तक ‘पद्मावती’ का सवाल है, यह स्त्री की सुंदरता और उसकी पवित्रता की सामंत युगीन मान्यताओं से निर्मित एक ऐसा चरित्र है जिसकी ऐतिहासिकता भले ही संदिग्ध हो, लेकिन लोककथाओं के जरिये जिसकी कल्पना किसी भी जीवित चरित्र से बहुत ज्यादा जीवंत बनी हुई है । यह लेखक या कथावाचक के अपने सौन्दर्यलोक की ऐसी उपज है जिसका कभी क्षय नहीं होता है, वह अमर होती है ।
ऐसी किसी गैर-ऐतिहासिक इंद्रियातीत कल्पना को जब भी कोई कला के किसी भी दूसरे दृश्य माध्यम में साकार करता है तो उसकी हमेशा एक खास प्रकार की समस्या रहती है । यह किसी भी अतिन्द्रिय अनुभूति के विषय के इतिहासीकरण की एक सामान्य समस्या भी है, क्योंकि विषय के अतीत के वृत्तांतों के पीछे जाते-जाते आप दृश्य माध्यमों में उतने पीछे तक तो नहीं जा सकते कि जहां उसका गैर-ऐतिहासिक लोकोत्तर तत्व उद्घाटित होता है ।
राजस्थान के चित्तौड़ की रानी पद्मावती ऐतिहासिक क़िरदार हैं या नहीं इसे लेकर इतिहासकारों में मतभेद हैं. कुछ इतिहासकार पद्मावती को मलिक मोहम्मद जायसी की कल्पना बताते हैं तो कुछ उन्हें ऐतिहासिक क़िरदार मानते हैं.
लातिन अमेरिका के जादुई यथार्थवाद के महान कथाकार गैब्रियल गार्सिया मार्केस ने लाखों डालर के प्रस्तावों को ठुकरा कर अपनी सबसे महत्वपूर्ण कृति ‘वन हंड्रेड इयर्स आफ सोलिच्यूड’ के फिल्मांकन की अनुमति नहीं दी थी, क्योंकि वे नहीं चाहते थे कि उनके चरित्रों को किसी फिल्मी नायक-नायिका की एक रूढ़ सूरत मिल जाए। इसे उन्होंने अपने चरित्रों की सार्वलौकिकता के साथ समझौता माना जो उन्हें उपन्यास की सार्वलौकिक व्याप्ति के हित में नहीं लगा था । इसके विपरीत, हमारे देश में तो राजा रविवर्मा ने अपने चित्रों के माध्यम से कई हिंदू देवी देवताओं को ठोस सूरतें प्रदान की हैं और लोग उन तस्वीरों में ही अपने ईष्ट को देखने-पूजने के अभ्यस्त हो गये हैं । मार्केस के उपन्यास पर उनका कॉपीराइट था, उनके उपन्यास की लाखों प्रतियां बिकी थीं । इसीलिये उन्होंने अपने जीते जी उनका फिल्मांकन नहीं होने दिया । लेकिन जैसे प्राचीन भारतीय पुराण-कथाओं पर किसी का कोई कॉपीराइट नहीं है, इसीलिये राजा रविवर्मा ने उनके चरित्रों के चित्र बेखौफ बनाये और उन्हें लोक समाज में खुले मन से अपनाया भी गया । वही स्थिति पद्मावती के चरित्र की भी है । किसी का भी उस पर कोई कॉपीराइट नहीं है ।
इसके बावजूद, आज अगर कोई यह सवाल उठाता है कि पद्मावती जैसे कवि की कल्पना वाले चरित्र को किसी ठोस आकृति में उतारा ही न जाए तो यह बहस का एकदम भिन्न दूसरा मुद्दा बन जाता है । यहां समस्या किसी कलाकृति की सार्वलौकिक सत्ता का नहीं है । यह शुद्ध रूप में एक राजनीतिक समस्या है । इसके अपने तात्कालिक और कुछ दूरगामी राजनीतिक संदर्भ भी हैं । तात्कालिक संदर्भ गुजरात के चुनाव का है । भाजपा गुजरात में आसन्न पराजय के डर से ऐसी हर संभव कोशिश कर रही है जिससे देश में सांप्रदायिक गर्मी पैदा हो और उसके प्रभाव से गुजरात में भी चुनाव के पहले नये सिरे से सांप्रदायिक ध्रुवीकरण को संभव बनाया जा सके
इसीलिये, भंसाली की ‘पद्मावती’ फिल्म के जरिये हिंदू-मुस्लिम द्वेष को कितना भड़काया गया है और कितना नहीं, सिर्फ इसी मानदंड पर आज की हमारी शासक पार्टी ने पूरे विषय को विवाद का विषय बना दिया है । वे फिल्म के रिलीज होने के पहले इसे देखना चाहते हैं और इसके जरिये सभी फिल्म निर्माताओं को यह दूरगामी संदेश देना चाहते हैं कि ऐतिहासिक – गैर-ऐतिहासिक कोई भी विषय क्यों न हो, उन्हें ऐसी फिल्में बनाने की अनुमति नहीं दी जा सकती है जो इस देश में सांप्रदायिक सौहार्द्र का संदेश देती है अथवा जीवन में सांप्रदायिक नजरिये की निंदा करती है ।
या जा रहा यह शोर शुद्ध रूप में एक सांप्रदायिक फासीवादी पार्टी का एजेंडा है और राजस्थान या अन्यत्र जहां भी क्षत्रिय या क्षत्राणियां सड़कों पर उतर कर तलवारें चमका रहे हैं, वे इस राजनीति के मोहरों के अतिरिक्त कुछ नहीं है । हम इसे भारत में कलाकारों की स्वतंत्रता की हत्या का एक और उपक्रम भी कहेंगे ।
(अरुण माहेश्वरी वरिष्ठ लेखक और स्तंभकार हैं और आजकल कोलकाता में रहते हैं।)
1963 में तमिल निर्देशक चित्रापू नारायण मूर्ति ने रानी पद्मिनी की कहानी पर “चित्तौड़ रानी पद्मिनी” फ़िल्म बनायी थी. इस फ़िल्म में मशहूर अभिनेत्री वैजयंती माला ने रानी पद्मिनी का क़िरदार निभाया था. ये फ़िल्म उमा पिक्चर्स के बैनर तले बनी थी जो आरएम रामनाथन की फ़िल्म कंपनी थी. इस फ़िल्म में शिवाजी गणेशन ने चित्तौड़ के राजा रतन सिंह का क़िरदार निभाया था. इस फ़िल्म में भी रानी पद्मिनी और दिल्ली के सुल्तान अलाउद्दीन खिलजी की कहानी दिखाई गई थी. हालांकि तब निर्माताओं ने इस फ़िल्म को ‘ऐतिहासिक फ़िक्शन’ बताया था.
इस फ़िल्म में भी खिलजी रानी पद्मिनी के प्रेम में पागल थे और उन्होंने चित्तौड़ के राजा राणा रतन सिंह को धमकी दी थी कि अगर रानी पद्मिनी का दीदार नहीं हुआ तो वह राजस्थान को बर्बाद कर देंगे. राणा के पास जब कोई विकल्प नहीं बचा तो वो रानी पद्मिनी को महल के तालाब के किनारे खड़े होने और उनकी छवि को एक शीशे में दिखाने के लिए तैयार हो गए. साथ ही उन्होंने अलाउद्दीन खिलजी की हत्या करने की एक गुप्त योजना भी तैयार की. लेकिन रानी पद्मिनी का इरादा खुद को किसी अजनबी के सामने पेश करने का नहीं था. फ़िल्म में खिलजी के सामने पेश होने के बजाए रानी पद्मिनी सती हो गईं थीं.
1963 में आई इस फ़िल्म में पद्मिनी का किरदार निभा रहीं वैजयंती माला पर कई गाने फ़िल्माए गए. वैजयंती माला एक बेहतरीन भरतनाट्यम नृत्यांगना थीं और निर्देशक ने उन पर फ़िल्म में नृत्य सीन फ़िल्माए थे. इतिहास के जिस दौर की ये फ़िल्म है उस दौर में राजस्थान में रानियां नृत्य नहीं करती थीं. हालांकि फ़िल्म का कोई विरोध नहीं हुआ लेकिन बॉक्स ऑफ़िस पर फ़िल्म बहुत क़ामयाब नहीं रही थी.
1964 में आई महारानी पद्मिनी
इसके एक साल बाद ही रानी पद्मिनी पर हिंदी में एक फ़िल्म बनी थी जिसका नाम था ‘महारानी पद्मिनी’. इस फ़िल्म का निर्देशन जसवंत झावेरी ने किया था और अनिता गुहा ने रानी पद्मिनी का क़िरदार निभाया था. ये फ़िल्म डिलाइट मूवीज़ के बैनर तले बनी थी. इस फ़िल्म में भी महारानी पद्मिनी के क़िरदार पर नृत्य दृश्य फ़िल्माए गए थे।
इस फ़िल्म में भी दिल्ली के सुल्तान अलाउद्दीन खिलजी का क़िरदार रानी पद्मिनी के इश्क़ में गिरफ़्तार है. हालांकि इस फ़िल्म में दिखाया गया है कि खिलजी के सेनापति मलिक काफ़ूर उन्हें महारानी पद्मिनी के हुस्न में उलझा लेते हैं ताकि वो दिल्ली की गद्दी पा सकें. महारानी पद्मिनी को हासिल करने के लिए खिलजी राणा रतन सिंह को क़ैद कर लेते हैं.
इस फ़िल्म के आखिर में खिलजी पद्मिनी को अपनी बहन मान लेते हैं और राजपूत राजा राणा रतन सिंह खिलजी की बांहों में दम तोड़ते हैं. फ़िल्म रानी पद्मिनी के जौहर पर समाप्त होती है.
फ़िल्म के एक सीन में महारानी पद्मिनी सुल्तान अलाउद्दीन खिलजी की जान भी बचाती हैं. फ़िल्म के आखिर में सुल्तान अलाउद्दीन खिलजी कहते हैं, “हमारी ये फ़तह इतिहास की सबसे बड़ी शिकस्त है.” इस फ़िल्म का भी कोई विरोध नहीं हुआ था. इसके अलावा जसवंत झावेरी ने पद्मिनी की कहानी पर ही 1961 में ‘जय चित्तौड़’ फ़िल्म बनाई थी. अनीस अहमद खान, स्वतंत्र पत्रकार।
साभार – https://naijangwebnews.blogspot.de/