पितृपक्ष में अपने पूर्वजों के लिए श्राद्ध की परंपरा देश के कई पावन जगहों पर की जा रही है। हर दिन लाखों लोग पूजा पाठ और परंपरा से इस कर्मकाण्ड को निभाते है। श्राद्ध में हर दिन का महत्व होता है। आज शहरों के जीवन की भागदौड़ में परंपराओं के लिए वक्त नहीं मिलता। लोग अपनी सदियों पुरानी आस्था पर प्रश्न भी करते है। देश के युवाओं को ये समझाना भी मुश्किल है कि एक खास स्थान पर जाकर, इतनी दिक्कतें झेलकर कुछ न समझ आने वाली परंपराओं को निभाकर कैसे हमारे पू्र्वजों की आत्मा को कैसे शांति मिलेगी। इसका हमारे आज के जीवन से क्या नाता है? ऐसे कुछ सवालों के जवाब देना जरूरी है, इसलिए रिलीजन वर्ल्ड ने पंडित विशाल दयानंद शास्री जी से इन प्रश्नों को पूछा। दयानंद शास्री जी ने अपने जीवन के बहुत साल विदेशों में कार्य करते हुए बिताए और अब हिंदू धर्म की सेवा के लिए ज्ञान संचय और प्रसार में लगे हैं।
प्रश्न – मेरे मन में सदा ये संशय रहता है की मनुष्यों द्वारा पितरों का जो तर्पण किया जाता है, उसमें जल तो जल में ही चला जाता है; फिर हमारे पूर्वज उस से तृप्त कैसे होते हैं ? इसी प्रकार पिंड आदि का सब दान भी यहीं देखा जाता है। अतः हम यह कैसे कह सकते हैं की यह पितर आदि के उपभोग में आता है ?
उत्तर – पितरों और देवताओं की योनि ही ऐसी होती है की वे दूर की कही हुई बातें सुन लेते हैं, दूर की पूजा भी ग्रहण कर लेते हैं और दूर की स्तुति से भी संतुष्ट होते हैं ।।
इसके सिवा ये भूत, भविष्य और वर्तमान सब कुछ जानते और सर्वत्र पहुचते हैं पांच तन्मात्राएँ, मन, बुद्धि, अहंकार और प्रकृति – इन नौ तत्वों का बना हुआ उनका शरीर होता है।।
इसके भीतर दसवें तत्व के रूप में साक्षात् भगवान् पुरुषोत्तम निवास करते हैं इसलिए देवता और पितर गंध तथा रस तत्व से तृप्त होते हैं। शब्द तत्व से रहते हैं तथा स्पर्श तत्व को ग्रहण करते हैं और किसी को पवित्र देख कर उनके मन में बड़ा संतोष होता है जैसे पशुओं का भोजन तृण और मनुष्यों का भोजन अन्न कहलाता है, वैसे ही देवयोनियों का भोजन अन्न का सार तत्व है सम्पूर्ण देवताओं की शक्तियां अचिन्त्य एवं ज्ञानगम्य हैं।
अतः वे अन्न और जल का सार तत्व ही ग्रहण करते हैं, शेष जो स्थूल वस्तु है, वह यहीं स्थित देखी जाती है।
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प्रश्न – श्राद्ध का अन्न तो पितरों को दिया जाता है, परन्तु वे अपने कर्म के अधीन होते हैं यदि वे स्वर्ग अथवा नर्क में हों, तो श्राद्ध का उपभोग कैसे कर सकते हैं ? और वैसी दशा में वरदान देने में भी कैसे समर्थ हो सकते हैं ?
उत्तर – यह सत्य है की पितर अपने अपने कर्मों के अधीन होते हैं, परन्तु देवता, असुर और यक्ष आदि के तीन अमूर्त तथा चार वर्णों के चार मूर्त – ये सात प्रकार के पितर माने गए हैं ये नित्य पितर हैं, ये कर्मों के अधीन नहीं, ये सबको सब कुछ देने में समर्थ हैं। वे सातों पितर भी सब वरदान आदि देते हैं उनके अधीन अत्यंत प्रबल इकतीस गण होते हैं। इस लोक में किया हुआ श्राद्ध उन्ही मानव पितरों को तृप्त करता है। वे तृप्त होकर श्राद्धकर्ता के पूर्वजों को जहाँ कहीं भी उनकी स्थिति हो, जाकर तृप्त करते हैं। इस प्रकार अपने पितरों के पास श्राद्ध में दी हुई वस्तु पहुचती है और वे श्राद्ध ग्रहण करने वाले नित्य पितर ही श्राद्ध कर्ताओं को श्रेष्ठ वरदान देते हैं।
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प्रश्न – जैसे भूत आदि को उन्हीं के नाम से ‘इदं भूतादिभ्यः” कह कर कोई वस्तु दी जाती है, उसी प्रकार देवता आदि को संक्षेप में क्यों नहीं दिया जाता है ? मंत्र आदि के प्रयोग द्वारा विस्तार क्यों किया जाता है ?
उत्तर – सदा सबके लिए उचित प्रतिष्ठा करनी चाहिए ।।
उचित प्रतिष्ठा के बिना दी हुई कोई वास्तु देवता आदि ग्रहण नहीं करते घर के दरवाजे पर बैठा हुआ कुत्ता, जिस प्रकार ग्रास (फेंका हुआ टुकड़ा) ग्रहण करता है, क्या कोई श्रेष्ठ पुरुष भी उसी प्रकार ग्रहण करता है ? इसी प्रकार भूत आदि की भाँती देवता कभी अपना भाग ग्रहण नहीं करते ।।
वे पवित्र भोगों का सेवन करने वाले तथा निर्मल हैं अतः अश्रद्धालु पुरुष के द्वारा बिना मन्त्र के दिया हुआ जो कोई भी हव्य भाग होता है, उसे वे स्वीकार नहीं करते यहाँ मन्त्रों के विषय में श्रुति भी इस प्रकार कहती है -” सब मन्त्र ही देवता हैं, विद्वान पुरुष जो जो कार्य मन्त्र के साथ करता है, उसे वह देवताओं के द्वारा ही संपन्न करता है।
मंत्रोच्चारणपूर्वक जो कुछ देता है, वह देवताओं द्वारा ही देता है। मन्त्रपूर्वक जो कुछ ग्रहण करता है, वह देवताओं द्वारा ही ग्रहण करता है इसलिए मंत्रोच्चारण किये बिना मिला हुआ प्रतिग्रह न स्वीकार करे बिना मन्त्र के जो कुछ किया जाता है , वह प्रतिष्ठित नहीं होता “इस कारण पौराणिक और वैदिक मन्त्रों द्वारा ही सदा दान करना चाहिए।
प्रश्न – कुश, तिल, अक्षत और जल – इन सब को हाथ में लेकर क्यों दान दिया जाता है? मैं इस कारण को जानना चाहता हूँ।
उत्तर – पंडित दयानन्द शास्त्री ने बताया कि प्राचीन काल में मनुष्यों ने बहुत से दान किये, और उन सबको असुरों ने बलपूर्वक भीतर प्रवेश करके ग्रहण कर लिया। तब देवताओं और पितरों ने ब्रह्मा जी से कहा – स्वामिन ! हमारे देखते देखते दैत्यलोग सब दान ग्रहण कर लेते हैं। अतः आप उनसे हमारी रक्षा करें, नहीं तो हम नष्ट हो जायेंगे।” तब ब्रह्मा जी ने सोच विचार कर दान की रक्षा के लिए एक उपाय निकल। पितरों को तिल के रूप में दान दिया जाए, देवताओं को अक्षत के साथ दिया जाए तथा जल और कुश का सम्बन्ध सर्वत्र रहे। ऐसा करने पर दैत्य उस दान को ग्रहण नहीं कर सकते। इन सबके बिना जो दान किया जाता है, उस पर दैत्य लोग बलपूर्वक अधिकार कर लेते हैं और देवता तथा पितर दुखपूर्वक उच्ह्वास लेते हुए लौट जाते हैं। वैसे दान से दाता को कोई फल नहीं मिलता। इसलिए सभी युगों में इसी प्रकार (तिल, अक्षत, कुश और जल के साथ) दान दिया जाता है।
।।शुभम भवतु।।
।।कल्याण हो।।
पंडित विशाल दयानंद शास्री