सच्चे संत की पहचान – निस्वार्थ सेवा
संत वह नहीं जो केवल ध्यान में बैठा रहे, गुफाओं में वास करे या शास्त्रों का ज्ञान रटे। सच्चा संत वह होता है जिसकी वाणी में प्रेम, हृदय में करुणा और हाथों में सेवा का संकल्प हो। निस्वार्थ सेवा ही उस संतत्व की सच्ची पहचान है।
कहानी: एक संत और किसान
बहुत समय पहले एक गाँव में एक महान संत रहते थे। दूर-दूर से लोग उनके दर्शन के लिए आते, उनसे ज्ञान प्राप्त करते। एक दिन एक गरीब किसान उनके पास आया और बोला,
“महाराज, सब कहते हैं कि आप सच्चे संत हैं। लेकिन मुझे समझ नहीं आता कि संत होता कौन है?”
संत मुस्कराए और बोले,
“तुम कल सुबह सूरज उगने से पहले मेरे पास आना। मैं तुम्हें उत्तर दूँगा।”
अगले दिन सुबह-सुबह किसान आया। संत ने कहा,
“मेरे पास एक काम है – पास के जंगल से थोड़ी लकड़ी ले आओ।”
किसान चौंका, पर चुपचाप गया और लकड़ी लेकर आया।
फिर संत ने कहा,
“अब इन्हें इस बूढ़ी विधवा के घर पहुँचा दो, जो अकेली रहती है।”
फिर बोले,
“इसके बाद गाँव के कुएँ से कुछ पानी भर कर उस अंधे आदमी को दे आओ जो प्यासा बैठा है।”
पूरा दिन बीत गया। किसान थक गया, पर कुछ बोला नहीं। जब शाम हुई, तो वह वापस संत के पास आया।
संत ने मुस्कराकर पूछा,
“तो अब बताओ, तुम्हें क्या मिला?”
किसान बोला,
“मुझे शांति मिली… और एक अजीब-सी खुशी। किसी की मदद करना अच्छा लगा।”
संत ने कहा,
“यही संत का मार्ग है – जो खुद की खुशी सेवा में ढूंढे, वही सच्चा संत होता है।”
सेवा से बड़ा कोई धर्म नहीं
सिख धर्म, संत रविदास, संत कबीर, गुरु नानक देव जी जैसे महापुरुषों ने यही सिखाया –
“जो तन, मन और धन से सेवा करे, वही सच्चा भक्त, वही सच्चा संत।”
सेवा करने के लिए बड़ा ज्ञानी होना जरूरी नहीं, बस दिल में करुणा और भावना होनी चाहिए। सेवा वो शक्ति है जो ईश्वर से जोड़ती है, और इंसान को अपने अहम से मुक्त करती है।
इस संसार में संत होना कठिन है, लेकिन सेवा से हम उस राह की ओर कदम बढ़ा सकते हैं। जब हम बिना किसी स्वार्थ के किसी की मदद करते हैं, तो हमारे भीतर छुपा हुआ संत जागता है।
इसलिए याद रखिए:
“सच्चे संत की पहचान – निस्वार्थ सेवा है।”