सद्गुरु श्री टेम्बे महाराज : मेधावी और परमज्ञानी
भारत भूमि का कोई क्षेत्र ऐसा नहीं, जहाँ किसी पवित्र आत्मा ने जन्म न लिया हो। ऐसे ही एक श्रेष्ठ सन्त थे सदगुरु वासुदेवानन्द सरस्वती, जो टेम्बे महाराज के नाम से विख्यात हुए। महाराज का जन्म 13 अगस्त, 1854 (श्रावण कृष्ण पंचमी) को कोकणपट्टी (महाराष्ट्र) के सिन्धुदुर्ग जिले के माणगाँव में हुआ था। इनका अध्ययन इनके दादा श्री हरिभट्ट जी की देखरेख में हुआ।
उपनयन संस्कार के बाद इन्हें शास्त्रों के ज्ञान के लिए श्री विष्णु उकीडवे जी के पास भेजा गया। प्रखर बुद्धि होने के कारण इन्हें एक ही बार में पाठ याद हो जाता था। इसलिए 12 वर्ष की छोटी अवस्था में ही ये दशग्रन्थी शास्त्री के नाम से प्रसिद्ध हो गये।
महाराज जी ने शास्त्रों के अध्ययन से अनेक सिद्धियाँ प्राप्त कीं; पर उनका उपयोग उन्होंने कभी अपने लिए नहीं किया। हाँ, दूसरों की सेवा एवं सहायता के लिए वे सदैव तत्पर रहते थे। शास्त्र ज्ञान के बाद अपने गुरु उकीडवे जी के आदेश पर उन्होंने अन्नपूर्णा बाई के साथ गृहस्थाश्रम में प्रवेश किया। यद्यपि इस ओर उनकी कोई रुचि नहीं थी।
कालान्तर में अन्नपूर्णा देवी ने एक मृत पुत्र को जन्म दिया। पत्नी ने इनसे आग्रह किया कि वे अपनी सिद्धि से बालक को जीवित कर दें; पर टेम्बे महाराज ने अपनी पत्नी को यथास्थिति स्वीकार करने का उपदेश दिया। कुछ समय बाद वे पत्नी के साथ ही पण्ढरपुर की यात्रा पर गये; पर मार्ग में ही उसका स्वर्गवास हो गया।
गृहस्थ के इस बन्धन से मुक्त होने के बाद महाराज जी देश भ्रमण पर निकले। उन्होंने नंगे पैर चलने, कभी वाहन तथा छाता प्रयोग न करने का व्रत लिया था, जिसे उन्होंने जीवन भर निभाया। इस प्रकार कठोर जीवन अपनाते हुए उन्होंने अनेक बार देश भ्रमण किया। दत्त जयन्ती के अवसर पर महाराज जी नरसोबाड़ी में चार मास रहे, तब स्वप्न में आकर दत्त महाराज ने इन्हें मन्त्रोपदेश दिया। वहाँ से लौटते समय वे कागल गाँव से दत्त महाराज की पीतल की मूर्त्ति लाये और अपने जन्मस्थान माणगाँव में अपने हाथ से मन्दिर बनाकर उसमें उसकी प्राण प्रतिष्ठा की। इसके बाद वे लगातार सात वर्ष तक वहीं रहे।
अध्यात्म क्षेत्र में इनके गुरु गोविन्द जी महाराज थे। उनके शरीरान्त के समय इन्होंने उनकी हर प्रकार सेवा की। जब लोग इनसे प्रश्न पूछते थे, तो स्वप्न में दत्त महाराज इन्हें उत्तर देते थे। उनके आदेश पर ही ये उज्जयिनी आये और यहाँ नारायणानन्द सरस्वती स्वामी से विधिवत संन्यास की दीक्षा लेकर दण्ड धारण किया। अब उनका नाम वासुदेवानन्द सरस्वती हो गया।
महाराज जी अपने पास केवल चार लंगोट, दो धोती, दण्ड, लकड़ी या बेल का कमण्डल, उपनिषद की पोथी, पंचायतन का सम्पुष्ट, चादर, दत्त महाराज की दो मूर्तियाँ तथा पानी निकालने की डोर ही रखते थे। वे किसी की सेवा लेना पसन्द नहीं करते थे। द्वारका में चातुर्मास करते समय वहाँ के विद्वानों ने उन्हें शंकराचार्य जी की गद्दी स्वीकार करने का आग्रह किया; पर महाराज जी ने विनम्रतापूर्वक मना कर दिया।
सम्वत् 1835 में टेम्बे महाराज का अन्तिम चातुर्मास नर्मदा नदी के तट पर गरुडे़श्वर में हुआ। यह स्थान महाराज जी को अति प्रिय था। यहीं दत्तप्रभु की इच्छा का सम्मान करते हुए उन्होंने आषाढ़ शुद्ध प्रतिपदा को योगबल से शरीर छोड़ दिया।
सद्गुरु श्री टेम्बे महाराज की आरती…
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महावीर प्रसाद सिहंल, आगरा
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