“संत” नरसी मेहता
‘वैष्णव जन तो तैणे कहिए जे पीड़ पराई जाणे रे’ यह भजन आपने सैंकड़ों बार कहीं ना कही सुना होगा और यह भजन हमारे राष्ट्रपिता महात्मा गांधी जी का प्रिय भजन और उनका जीवन दर्शन भी था, लेकिन क्या आपको पता है कि ये भजन किसने लिखा था और वो कौन थे जिन्हें गुजरात का सबसे महान संत माना जाता है।
ये भजन दरअसल गुजरात के महान कृष्ण भक्त नरसी मेहता का है। नरसी एक महान कृष्ण भक्त थे जिन्हें मीरा और चैतन्य के समतुल्य माना जाता है। नरसी की कृष्ण भक्ति ऐसी थी कि कहा जाता है कि कई बार स्वयं वासुदेव कृष्ण भेष बदल कर उनकी रक्षा करने आते थे। नरसी मेहता वैसे तो किसी विशेष वैष्णव संप्रदाय से संबंधित नहीं थे, लेकिन वैष्णव संप्रदाय पुष्टिमार्ग में वो वधेयो के नाम से जाने जाते थे। कहा जाता है कि नरसी को भगवान कृष्ण की भक्ति करने का आदेश स्वयं भगवान शिव ने दिया था।
भक्त नरसी का जन्म गुजरात के जूनागढ के तलाजा गांव में 15वीं शताब्दी में हुआ था। वो बचपन में आठ वर्ष तक गूंगे रहे थे। फिर एक साधु के आशीर्वाद से वो बोलने लगे। इसके बाद नरसी बचपन से ही साधु संतो के सत्संग में लग गए । साधुओं के साथ रहने के कारण उनकी भाभी उन्हें बहुत बुरा भला कहती थीं। कृष्ण भक्त बनने से पूर्व वो भगवान शिव की भक्ति में लीन रहते थे। घर के काम काज पर ध्यान ना देने की वजह से उन्हें एक बार उनकी भाभी ने इतना ताना मारा कि वो जंगल चले गए और वहीं सात दिनों तक बिना कुछ खाए पिए भगवान शिव की भक्ति करने लगे। कहा जाता है कि भगवान शिव स्वयं एक साधु के रुप में आए और नरसी के वृंदावन रासलीला दिखाने ले गए। नरसी रास लीला देखने में इतने मग्न हो गए कि मशाल से अपनी हाथ जला बैठे। लेकिन भगवान कृष्ण ने नरसी के हाथ को स्पर्श कर जैसे ही उनका हाथ पहले जैसा कर दिया नरसी भगवान शिव की प्रेरणा से कृष्ण भक्त बन गए। इसी प्रकार भगवान श्री कृष्ण ने कई बार नरसी मेहता कि मदद की जिसका उल्लेख “हुंडी”, “झारी”, “ममेरु” और “हार” प्रसंगो में मिलता है।
“ढेढ” प्रसंग भी नरसी की जीवनी में यथेष्ट महत्व रखता है क्योंकि उसके फलस्वरूप उनका सामाजिक बहिष्कार कर दिया गया। वे स्त्री और शूद्र को भक्ति का अधिकारी समझते थे, जिसके कारण समस्त नागर जाति उनसे क्षुब्ध हो गई थी। नरसी ने अपनी अंतर्वृत्ति का बाह्य प्रभावों से कुंठित नहीं होने दिया। यह उनके व्यक्तित्व की सबसे बड़ी विशेषता है। इस प्रसंग की कहानी कुछ यूं है कि एक बार नरसी और उनके भाई तीर्थ यात्रा के दौरान एक जंगल से गुजर रहे थे। सबको उस वक्त बहुत भूख लगी थी। एक समय नरसिंह और उनके भाई तीर्थ यात्रा पर जाते समय एक जंगल में से गुजर रहे थे। दोनों बहुत थक चुके थे और भूख भी बहुत लगी थी। कुछ दुरी पर एक गाँव दिखाई दिया। उस गाँव के कुछ लोग इन दोनों के पास आये और कहा की अगर आप कहें तो हम आप के लिये खाना ले आते हैं, पर लेकिन हम शूद्र जाति के हैं। नरसिंह जी ने उन्हें कहा की सभी परमेश्वर की संतान हैं आप तो हरि के जन हैं मुझे आप का दिया भोजन खाने में कोई आपत्ति नहीं। नरसिंह ने खुशी से भोजन खाया लेकिन उनके भाई ने भोजन खाने से इनकार कार दिया। चलने से पहले नरसिंह जब गाँव वालों का धन्यवाद करने के लिये उठे तो उन्हें कहीं भी गाँव नजर नहीं आया।
इसी तरह सांवल शाह की कहानी और उनकी बेटी की शादी में भगवान श्री कृष्ण द्वारा उनकी लाज बचाने की कहानी भी गुजरात में बहुत प्रसिद्ध है। नरसी मेहता कि बेटी की शादी की कहानी आज भी गुजरात और राजस्थान में ‘नानीबाई का माइरा’ की कथाओं में सुनाई जाती है। कहा जाता है कि नरसी की बेटी की शादी में उनकी समधिन की दोस्त में नरसी की गरीबी का मजाक उड़ाते हुए कहा कि बहू के मामा की तरफ से तो कोई भी दान दहेज नहीं आया। यह सुनते ही नरसी भगवान से अपनी लाज बचाने के लिए प्रार्थना करने लगे। तभी एक व्यक्ति व्यापारी का वेष बदल कर आया ।उस व्यापारी ने अपनी पगड़ी पर मयूर पंख लगा रखे थे जैसे भगवान श्री कृष्ण लगाते थे। उसने कहा कि वो लड़की का मामा है और अपने साथ बैलगाड़ियों पर दान दहेज का सामान लाया है। दहेज का सामान देने के बाद वो व्यापारी गायब हो गया । बाद में जब बैलगाड़ियों के सामान को खोला गया तो उसमें सोना चांदी और अनाज भरे मिले। ऐसा सुनते ही नरसी भगवान श्री कृष्ण की भक्ति में रोने लगे और कहने लगे कि भगवान ने आज उनकी लाज बचा दी।
नरसी की नजर में सभी जाति के लोग कृष्ण की उपासना कर सकते थे और वो शूद्रों और स्त्रियों को भी बराबर का अधिकार देते थे ।इस वजह से भी उन्हें कई बार सामाजिक बहिष्कार झेलना पड़ा।नरसी मेहता एक प्रकार से गांधीजी से पहले गुजरात में जातिप्रथा और छुआछूत के विरोध के सबसे बड़े नामों में एक थे।नरसी के यही विचार बाद में गांधीजी की छुआछूत और हरिजन उद्धार आंदोलन की नींव बने।नरसी मेहता ने भगवान श्रीकृष्ण की भक्ति में अनेक रचनाएं की थी जिनमें सूरत संग्राम, गोविंद गमन, सुदामाचरित आज भी जन-जन में लोकप्रिय हैं।
लेखक – अजीत मिश्रा
सुनिए….‘वैष्णव जन तो तैणे कहिए जे पीड़ पराई जाणे रे’