अघोरियों का संसार काफी रहस्यमयी माना जाता है. मनुष्य योनी में जीवन प्राप्ति के बाद भी एक अज्ञात जिंदगी के अनुसरणकर्ता कहलाए जाते हैं ये ‘अघोरी साधु’। इनका उठना-बैठना, खान-पान यहां तक कि विचार आम इंसान से काफी भिन्न होते हैं.
इस खास हिन्दू संप्रदाय का अंकुरण पौराणिक काल से बताया जाता है। इन्हें हिन्दू धर्म के अंतर्गत अघोर पंथ का माना गया है। जिनका संबंध भगवान शिव से ज्यादा रहा है। देखा जाए तो अघोरी हमेशा से ही खास चर्चा का विषय रहे हैं। इस बार रिलीजन वर्ल्ड लेकर आया है आपके लिए अघोरियों की रहस्यमयी दुनिया पर एक नयी सीरीज़. इस सीरीज़ में आप जानेंगे अघोरपंथ के बारे में.
क्या है अघोरपंथ
अघोर पंथ, अघोर मत या अघोरियों का संप्रदाय, हिंदू धर्म का एक संप्रदाय है. इसका पालन करने वालों को ‘अघोरी’ कहते हैं. इसके प्रवर्त्तक स्वयं अघोरनाथ शिव माने जाते हैं. रुद्र की मूर्ति को श्वेताश्वतरोपनिषद (३-५) में अघोरा वा मंगलमयी कहा गया है.
या ते रुद्र शिवा तनूरघोराऽपापकाशिनी।
तया नस्तनुवा शंतमया गिरिशन्ताभिचाकशीहि॥
अर्थात-“हे गिरिशन्त अर्थात् पर्वत पर स्थित होकर सुख का विस्तार करने वाले रुद्र . आप हमें अपनी उस मङ्गलमयी मूर्ति द्वारा अवलोकन करें,जो सौम्य होने के कारण केवल पुण्यों का फल प्रदान करने वाली है .”
विदेशों में, विशेषकर ईरान में, भी ऐसे पुराने मतों का पता चलता है तथा पश्चिम के कुछ विद्वानों ने उनकी चर्चा भी की है.
हेनरी बालफोर की खोजों से विदित हुआ है कि इस पंथ के अनुयायी अपने मत को गुरु गोरखनाथ द्वारा प्रवर्तित मानते हैं, किंतु इसके प्रमुख प्रचारक मोतीनाथ हुए जिनके विषय में अभी तक अधिक पता नहीं चल सका है.
अघोर पंथ की उत्पत्ति और इतिहास
इस पंथ के प्रणेता भगवान शिव माने जाते हैं. कहा जाता है कि भगवान शिव ने स्वयं अघोर पंथ को प्रतिपादित किया था. अवधूत भगवान दत्तात्रेय को भी अघोरशास्त्र का गुरू माना जाता है. अवधूत दत्तात्रेय को भगवान शिव का अवतार भी मानते हैं. अघोर संप्रदाय के विश्वासों के अनुसार ब्रह्मा, विष्णु और शिव इन तीनों के अंश और स्थूल रूप में दत्तात्रेय जी ने अवतार लिया.
इस संप्रदाय के एक संत के रूप में बाबा किनाराम की पूजा होती है. अघोर संप्रदाय के व्यक्ति शिव जी के अनुयायी होते हैं. इनके अनुसार शिव स्वयं में संपूर्ण हैं और जड़, चेतन समस्त रूपों में विद्यमान हैं. इस शरीर और मन को साध कर और जड़-चेतन और सभी स्थितियों का अनुभव कर के और इन्हें जान कर मोक्ष की प्राप्ति की जा सकती है.
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अघोर दर्शन और साधना
मुख्यतः अघोर साधनाएं शमशान घाटों और निर्जन स्थानों पर की जाती है. शव साधना एक विशेष क्रिया है जिसके द्वारा स्वयं के अस्तित्व के विभिन्न चरणों की प्रतीकात्मक रूप में अनुभव किया जाता है. अघोर विश्वास के अनुसार अघोर शब्द मूलतः दो शब्दों ‘अ’ और ‘घोर’ से मिल कर बना है जिसका अर्थ है जो कि घोर न हो अर्थात सहज और सरल हो.
प्रत्येक मानव जन्मजात रूप से अघोर अर्थात सहज होता है. बालक ज्यों ज्यों बड़ा होता है त्यों वह अंतर करना सीख जाता है और बाद में उसके अंदर विभिन्न बुराइयां और असहजताएं घर कर लेती हैं और वह अपने मूल प्रकृति यानी अघोर रूप में नहीं रह जाता. अघोर साधना के द्वारा पुनः अपने सहज और मूल रूप में आ सकते हैं और इस मूल रूप का ज्ञान होने पर ही मोक्ष की प्राप्ति संभव है.
इस संप्रदाय के साधक समदृष्टि के लिए नर मुंडों की माला पहनते हैं और नर मुंडों को पात्र के तौर पर प्रयोग भी करते हैं. चिता के भस्म का शरीर पर लेपन और चिताग्नि पर भोजन पकाना इत्यादि सामान्य कार्य हैं. अघोर दृष्टि में स्थान भेद भी नहीं होता अर्थात महल या श्मशान घाट एक समान होते हैं.
अघोर पंथ की शाखाएं
अघोर पंथ की प्रमुख शाखाएं तीन हैं-
1. औघर
2. सरभंगी
3. घुरे
औघर शाखा में कल्लूसिंह थे जो बाबा किनाराम के गुरु थे. कुछ लोग इस पंथ को गुरु गोरखनाथ के भी पहले से प्रचलित बतलाते हैं और इसका संबंध शैव मत के पाशुपत अथवा कालामुख संप्रदाय के साथ जोड़ते हैं. बाबा किनाराम अघोरी वर्तमान बनारस जिले के रामगढ़ गाँव में उत्पन्न हुए थे और बाल्यकाल से ही विरक्त भाव में रहते थे.
इन्होंने पहले बाबा शिवाराम वैष्णव से दीक्षा ली थी, किंतु वे फिर गिरनार के किसी महात्मा द्वारा भी प्रभावित हो गए. ऐसी मान्यता है कि वो महात्मा कोई और नहीं गुरु दत्तात्रेय ही हैं,जिनकी ओर इन्होंने स्वयं भी कुछ संकेत किए हैं.
बाबा किनाराम ने इस पंथ के प्रचारार्थ रामगढ़, देवल, हरिहरपुर तथा कृमिकुंड पर क्रमश चार मठों की स्थापना की जिनमें से कृमिकुंड चौथा प्रधान केंद्र है. इस पंथ को साधारणतः ‘औघढ़पंथ’ भी कहते हैं.
अघोर पन्थ की ‘घुरे’ नाम की शाखा के प्रचार क्षेत्र का पता नहीं चलता किंतु ‘सरभंगी’ शाखा का अस्तित्व विशेषकर चंपारन जिले में दीखता है जहाँ पर भिनकराम, टेकमनराम, भीखनराम, सदानंद बाबा एवं बालखंड बाबा जैसे अनेक आचार्य हो चुके हैं. इनमें से कई की रचनाएँ प्रचुर मात्रा में उपलब्ध हैं और उनसे इस शाखा की विचारधारा पर भी बहुत प्रकाश पड़ता है.
प्रमुख ग्रन्थ
‘विवेकसार’ इस पंथ का एक प्रमुख ग्रंथ है जिसमें बाबा किनाराम ने आत्माराम की वंदना और अपने आत्मानुभव की चर्चा की है. उसके अनुसार सत्य वा निरंजन है जो सर्वत्र व्यापक और व्याप्य रूपों में वर्तमान है और जिसका अस्तित्व सहज रूप है.
ग्रंथ में उन अंगों का भी वर्णन है जिनमें से प्रथम तीन में सृष्टिरहस्य, कायापरिचय, पिंडब्रह्मांड, अनाहतनाद एवं निरंजन का विवरण है; अगले तीन में योग साधना, निरालंब की स्थिति, आत्मविचार, सहज समाधि आदि की चर्चा की गई है तथा शेष दो में संपूर्ण विश्व के ही आत्मस्वरूप होने और आत्मस्थिति के लिए दया, विवेक आदि के अनुसार चलने के विषय में कहा गया है।
इसके अनुयायियों में सभी जाति के लोग, (यहाँ तक कि मुसलमान भी), हैं। विलियम क्रुक ने अघोरपंथ के सर्वप्रथम प्रचलित होने का स्थान राजपुताने के आबू पर्वत को बतलाया है, किंतु इसके प्रचार का पता नेपाल, गुजरात एवं समरकंद जैसे दूर स्थानों तक भी चलता है और इसके अनुयायियों की संख्या भी कम नहीं है.
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सोर्स: सोनमा आश्रम, हिंदी मंतव्य, upanishads.org.in,भारतीय पंथ
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