जागृति का शंखनाद है शिवरात्रि पर्व
- डॉ. प्रणव पण्ड्या
भगवान् शिव को प्रसन्न करने के लिए महाशिवरात्रि पर्व मनाया जाता है; चूँकि प्रसन्नता सभी को प्रिय है- अभीष्ट है, इसलिए यह पावन पर्व बड़े समारोह व सुव्यवस्थित ढंग से मनाया जाता है। ‘शिव’ का अर्थ है ‘शुभ’। ‘रा’ का अर्थ है देना एवं ‘त्रि’ का अर्थ है तीन। अर्थात् शिवरात्रि पर्व पालन में भगवान् शंकर हमें तीन प्रकार के शुभ देते है- शारीरिक, मानसिक एवं आत्मिक। क्योंकि यह शिवरात्रि पर्व हमें अपने अंश का बोध कराने आती है; क्योंकि इस समय हम एक संधि की ओर (माया और मुक्ति के बीच की ओर) बढ़ रहे होते हैं। माया का अर्थ है अविद्याजनित विषय लिप्सा एवं मुक्ति व मोझ से तात्पर्य है निर्विकारिता व निर्लिप्तता। साधारणतः हम विषय मोहग्रस्त होकर जीवन जीते हैं। हम प्रायः लिप्साओं-आकांक्षाओं के पीछे पड़े रहते हैं। शिवरात्रि पर्व हमें शिवत्व जैसे गुण अपनाने के लिए प्रेरित करता है। वह कहता है कि ‘मनुष्यो! जागो और अपने पर्व (भाग व अधिकार) को पहचानो कि तुम सिर्फ शरीर ही नहीं, इससे भी परे कुछ (आत्मा, विशुद्ध चेतना) हो।’
शिवरात्रि के समय मनुष्य के अन्तःकरण पर यह आवाज टकराती है और इसलिए मनुष्य में इस समय विशेष तत्परता पाई जाती है कि कुछ खुशी मनायी जाय, पर बहरे कान को क्या कहा जाय! उसे समझ में नहीं आता कि यह आवाज कैसी है, कहाँ से आ रही है और क्यों आ रही है? ध्यान तो है श्री- वैभव जुटाने में, तो शिवरात्रि के सुपावन शुभ संदेश को कौन सुने? वर्ष भर के तीन सौ चौंसठ दिन जब बीत जाये नाच-बाज-ताज-साज के चक्कर में, तो सिर्फ एक ही दिन की आवाज है यह। फिर भी यह पर्व याद दिलाता है कि तुम एक संधिकाल में हो। थोड़ा-सा आगे बढ़ों, तो शिव तुम्हारा इंतजार कर रहा है कुछ देने के लिए तुम्हें…….। शिवरात्रि स्वयं ही बता रही है कि शुभ का वरण करो और सुख की नींद लो। अपने पर्व (कर्त्तव्य-उत्तदायित्व) व अपनी वसीयत को पहचानों और यह पर्व-संधि का सार्थक उपयोग कर लो, पर अशिव बन विषय-विष की प्यास हम रखते हैं और तीरछी आँखों से स्मर-भस्म-शक्ति की सुनहरे सपने देखते हैं। इससे स्मर (कामदेव) भस्म तो नहीं होता। हाँ, स्मरण शक्ति निश्चित रूप से भस्म हो जाती है और हमें श्रम, अवसाद, हताशा, निराशा ही मात्र हाथ लगती है।
भगवान् शंकर का परिवार व उनके निजी जीवन को देखो, कैसा त्याग पूर्ण, आदर्श पूर्ण है। दो पुत्रों को उन्होंने ऐसा सुयोग्य बनाया है कि एक देवताओं का सेनापति हो गया और दूसरा ज्ञान का भण्डार-गणों का नायक बन गया। इधर स्वयं शक्ति को साथ लिये सदा निष्काम निर्विकार ही रहे। तमाम वैभव औरों को देते तथा स्वयं के लिए एक छोटी-सी झोपड़ी भी सुरक्षित नहीं रखते। न तन में कोई परिधान और न बदन के लिए कोई तेल। हम बिना सौन्दर्य प्रसाधन के शिवरात्रि समारोह में भाग लेने नहीं जाते। कम से कम शंकर जी से त्याग, बैराग्य, तप-तितिक्षा, योग-संन्यास को अगर ग्रहण कर नहीं पाये, तो उनसे अपने जीने लायक पारिवारिक आदर्श सिद्धान्त को तो सीखना ही चाहिए। शिव जी जीते हैं दूसरों के लिए, हम अपनी भलाई के लिए तो जियें। यदि इतना भी हमसे नहीं बनता, तो फिर हमारा पर्व पालन एक विशुद्ध मनोरंजन भर हो सकता है। इससे ज्यादा लाभ और कुछ भी नहीं मिल सकता।
शास्त्र का कथन है कि ’शिवोभूत्वा शिवं यजेत्’ अर्थात शिव बनकर शिव की पूजा करोगे तो शिव आशुतोष बनेंगे, उनकी कृपा प्राप्त होगी। संत-सुधारक पं. श्रीराम शर्मा आचार्य जी के तात्विक विवेचनानुसार सन्मार्ग का अवलम्बन ही वस्तुतः शिव-पूजन है। अब भी समय है श्रावण कृष्ण चतुर्दशी की शुभरात्रि अब भी हमारी अन्तर्वीणा की तंत्रियों को झंकृत करने आ रही है। अब भी हम माया-मुक्ति के संधि वेला में अपने अस्तित्व की पहचान की तैयारी में हैं। अपना शिव (कल्याण) अपनी ओर ताक रहा है कि हम कुतर्कों का फंदा कब त्यागें और महत् का स्वागत कब करें! आओ! शिव रात्रि की पावन वेला में हम अपने अन्दर की दुष्प्रवृत्तियों को सुदृढ़ संकल्पपूर्वक दूर भगायें और सद्प्रवृत्तियों की उनके स्थानों पर स्थापना करें। अशिव का दमन करें, शिव का नमन करें, ताकि हमारा शिवरात्रि पर्व पालन सार्थक हो।
लेखक – देव संस्कृति विश्वविद्यालय के कुलाधिपति व आध्यात्मिक मासिक पत्रिका अखण्ड ज्योति के संपादक हैं।