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 क्यों है सिद्धिविनायक मंदिर के प्रति भक्तों की अद्वितीय श्रद्धा

 क्यों है सिद्धिविनायक के प्रति भक्तों की अद्वितीय श्रद्धा

भारत की व्यवसायिक राजधानी मुंबई में सिद्धीविनायक गणेश मंदिर अत्यधिक प्रसिद्ध है जहाँ दर्शन के लिए रोजाना भक्तों की भारी भीड़ लगी रहती है। सिद्धीविनायक से माँगने वाले कभी खाली हाथ नहीं लौटते। इसी मान्यता एवं भावना के साथ हर तबके के लोग प्रत्येक मंगलवार की रात मुबंई की चारों दिशाओं से मीलों पैदल चलकर रात में ही दर्शन के लिए लम्बी-लम्बी कतारों में लग कर घण्टों इंतजार करते रहते हैं। आखिर भगवान गणेश के इस मंदिर के प्रति भक्तों की इतनी अटूट श्रद्धा के पीछे कारण क्या है?

सिद्धीविनायक के प्रति भक्तों की अद्वितीय श्रद्धा का कारण है मंदिर परिसर की वास्तुनुकूलताएँ।

वास्तुशास्त्र के अनुसार किसी भी धार्मिक स्थल को मिलने वाली प्रसिद्धि और भक्तों की उमड़ने वाली भारी भीड़ केवल इस कारण होती है कि, उस स्थान की भौगोलिक स्थिति और उस पर हुए निर्माण पूर्णतः वास्तु सिद्धान्तों के अनुकूल होते है। जो धार्मिक स्थल वास्तुनुकूल होते हैं वहाँ सकारात्मक ऊर्जा की अधिकता होती है जो श्रद्धालुओं को अपनी ओर आकर्षित करती है। इसी आकर्षण से दर्शनार्थियों की संख्या बढ़ती है। सकारात्मक ऊर्जा के प्रभाव से ही दर्शनार्थी वहाँ मन्नतें माँगते हैं और मन्नतें पूर्ण भी होती हैं। इसके विपरीत जिस मंदिर में वास्तुनुकूलता नहीं होती है वहाँ नकारात्मक ऊर्जा की अधिकता होती है जो दर्शनार्थियों को उस स्थान के प्रति आकर्षित नहीं होने देती है। उस स्थान पर जिस प्रकार के वास्तुदोष होते हैं उन दोषों के अनुरूप वहाँ पर समस्याएँ भी बनी रहती है।

मुम्बई के प्रभादेवी में यह मंदिर श्री लक्ष्मण विट्ठू एवं दियोभाई पाटिल ने मिलकर सन् 1801 में बनवाया था। उस समय इसका आकार मात्र3.6mrtX3.6mrt अर्थात् लगभग 140 वर्गफीट था और मंदिर के फर्श का लेवल बाहर सड़क के लेवल के समानान्तर था। सन् 1952 के पहले तक यहाँ आने वाले भक्तों की संख्या काफी कम थी। सन् 1952 में एलफिस्टन रोड़ के पास सियानी रोड़ के निर्माण कार्य के दौरान वहाँ कार्य कर रहे मजदूरों को खुदाई में हनुमान जी की प्रतिमा मिली, जिसे इसी मंदिर में लाकर स्थापित किया गया। हनुमान जी की प्रतिमा को स्थापित करते समय किए गए निर्माण कार्य सहज भाव से वास्तुनुकूल हुए, जिससे मंदिर में भक्तों की संख्या में इजाफा हुआ, किन्तु आज हम इस मंदिर में जो लम्बी-लम्बी कतारें देखते हैं यह 1965 के बाद लगना शुरू हुई। 1965 के दौरान किए गए निर्माण कार्य कुछ इस प्रकार हुए, कि मंदिर परिसर की वास्तुनुकूलता और अधिक बढ़ गई। मंदिर परिसर की उत्तर दिशा में सिद्धी विनायक की प्रतिमा के सामने एक बड़ा बेसमेंट बनाया गया जहाँ आजकल एक कमरे में भगवान् के वस्त्र एवं आभूषण रखे जाते हैं और दूसरे कमरों में छोटे-छोटे लाकर हैं, जिनका उपयोग मंदिर की सेवा में लगे कर्मचारी करते हैं। यह नवनिर्माण मंदिर की वास्तुनुकूलता को उसी प्रकार बढ़ा रहा है जैसे शिर्डी के सांईबाबा के समाधि मंदिर दर्शन के लिए जाते समय विभिन्न हाॅल से होकर गुजरना पड़ता है। इस रास्ते में कुछ भाग बेसमेंट का भी आता है। यह बेसमेंट मुख्य मंदिर की उत्तर दिशा में हैं। सांई मंदिर में इस बेसमेंट निर्माण के बाद दर्शनार्थियों की संख्या बढ़ी है।

सिद्धिविनायक मंदिर विदिशा भूखण्ड पर बना है, जिसमें दिशाएँ मध्य में न होकर कोने में स्थित है। यहाँ भगवान् पूर्वमुखी विराजमान हैं, इसी कारण भगवान् की मूर्ति हाल में तिरछी लगी है। मूर्ति के ठीक सामने जो प्लेटफार्म बना है (जिस पर लोग खड़े होकर दर्शन करते हैं) उसके नीचे भूमिगत पानी की टंकी है। इस प्रकार मंदिर परिसर की उत्तर दिशा बेसमेंट के कारण और पूर्व दिशा इस टंकी के कारण नीची हो रही है जो इसकी वास्तुनुकूलता को बढ़ा रही है। मंदिर परिसर के बाहर बनी सड़क पर लगातार डामरीकरण होने के कारण सड़क ऊँची होती चली गई जिससे परिसर को भी ऊँचा किया गया। इस कारण मंदिर का गर्भगृह नीचा रह गया जो कि, परिसर का पश्चिम भाग है। भारतीय वास्तुशास्त्र के अनुसार पूर्व दिशा में ऊँचाई  और पश्चिम दिशा में ढलान का होना अच्छा नहीं माना जाता है, परन्तु देखने में आया है कि ज्यादातर वो स्थान जो धार्मिक कारणों से प्रसिद्ध हैं, (चाहे वह किसी भी धर्म से सम्बन्धित हो) उन स्थानों पर पूर्व की तुलना में पश्चिम दिशा नीची होती है और दक्षिण दिशा हमेशा उत्तर दिशा की तुलना में ऊँची रहती है। (जैसे उज्जैन का महाकालेश्वर मंदिर, कटरा जम्मू स्थित वैष्णोदेवी मंदिर इत्यादि।)

गर्भगृह के सामने उत्तर दिशा में लगी लिफ्ट का गड्ढा भी वास्तुनुकूल होकर मंदिर की प्रसिद्धि बढ़ाने में सहायक हो रहा है।

कुछ वर्ष पूर्व मंदिर परिसर के बाहर मुख्य सड़क से सटकर सुरक्षा की दृष्टि से ऊँची दीवार बनाकर कव्हर कोरिडोर का निर्माण किया गया है (जैसा कि, चित्र में दिखाई दे रहा है।) इस निर्माण से मंदिर परिसर की उत्तर दिशा फैल गई है। मंदिर परिसर की उत्तर दिशा के इस फैलाव के कारण वास्तुनुकूलता और अधिक बढ़ने से दर्शनार्थियों की संख्या और बढ़ गई है।

मंदिर परिसर में आने-जाने के कई द्वार हैं। सबसे ज्यादा सुसज्जित द्वार गर्भगृह के पीछे पश्चिम दिशा में स्थित है, परन्तु वह द्वार वास्तुनुकूल स्थान पर न होने के कारण स्वतः ही बंद रहता है। दक्षिण दिशा स्थित हार-फूल वाली गली से होकर आने वाला प्रवेश द्वार वास्तुनुकूल होकर अपनी ओर अधिक से अधिक लोगों को आकर्षित करता है और निकासी का द्वार उत्तर दिशा में वास्तुनुकूल स्थान पर है।

मंदिर परिसर देखने से यह स्पष्ट है कि, यहाँ जब भी निर्माण कार्य हुए उसमें वास्तु सिद्धान्तों के बारे में बिल्कुल भी नहीं सोचा गया, किन्तु श्री सिद्धीविनायक की कृपा से अभी तक हुए निर्माण सहज भाव से वास्तुनुकूल होेते रहे हैं, जिसके कारण ही भगवान् श्री सिद्धिविनायक के दर्शन के लिए भक्तों की भारी भीड़, अगाध श्रद्धा, विश्वास के साथ दर्शन के लिए जुटने लगी है।

(वास्तु गुरु कुलदीप सलूजा, उज्जैन)

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