श्रीकृष्ण जन्माष्टमी
- डॉ. प्रणव पण्ड्या
हिन्दू धर्म का सिद्धान्त है कि जब कभी धर्म की बहुत अधिक हानि हो जाती है और अधर्म का बोलबाला हो जाता है, तो भगवान् अवतार लेकर बिगड़ी हुई परिस्थिति का सुधार करते हैं। ऐसा ही समय भारतवर्ष में अब से लगभग पाँच हजार वर्ष पहले आया था। उस समय सीधे-साधे गणतंत्र राज्यों के स्थान पर बड़े-बड़े साम्राज्यों की स्थापना का सूत्रपात हो गया था और शक्तिशाली तथा कुचक्र रचने में निपुण राजा स्थानीय शासनों का नाश करके अपना साम्राज्य स्थापित करने की लालसा की पूर्ति कर रहे थे। मगध नरेश जरासंध ने बहुत से छोटे-छोटे राजाओं को कैद करके उनके राज्यों पर कब्जा कर लिया था।
मथुरा के राजा कंस की दुष्टता और राज्य लोलुपता इतनी बढ़ गयी थी कि उसने अपने वृद्ध पिता उग्रसेन को कैद कर सिंहासन पर अधिकार कर लिया था। दुर्योधन की घोर स्वार्थपरता के उदाहरण और अन्य राजा-रानियों के चरित्रों से भी यह प्रकट होता है कि उस समय इस देश के बड़े आदमियों में से अधिकांश का चरित्र और धार्मिक दृष्टि का पतन हो गया था और वे विलास और वैभव के आगे नीति और न्याय की परवाह नहीं करते थे।ऐसे समय में स्वभावतः ही ऐसी स्थिति उत्पन्न हो गयी थी कि उससे धर्म का चारों ओर से ह्रास होने लग गया था और लोगों की रुचि अधर्म की ओर बढ़ने लगी थी। सज्जन कष्ट पाने लगे थे और अन्यायी, अत्याचारी, दुराचारी गुलछर्रे उड़ा रहे थे। द्रोणाचार्य जैसे विद्वान् और ज्ञानी भी कौरवों के धन से खरीद लिए गये थे। जिससे द्रौपदी पर घोर अत्याचार होता देखकर भी वे बोलने का साहस न कर सके। ऐसे धर्म संकट के समय में किसी महान् विभूति के आगमन की आवश्यकता थी, जो अधर्म का नाश करके पुनः धर्म की स्थापना करे। परमात्मा की इच्छा से ऐसा ही हुआ और अब से पाँच हजार से कुछ अधिक वर्ष पूर्व भाद्रपद बदी अष्टमी, बुधवार को रोहिणी नक्षत्र में भगवान् श्रीकृष्ण का अवतार हुआ। उनका जन्म कैसी कठिन परिस्थितियों में कंस के कारागार में हुआ, किस प्रकार उनको गुप्त रूप से पालन-पोषण के लिए गोकुल निवासी गोपाधिपति नंद के यहाँ पहुँचा दिया और किस प्रकार छोटी अवस्था में ही उन्होंने अपूर्व तेजस्विता और वीरता का परिचय देकर लोगों को चकित कर दिया, यह कथा सर्वविदित है।
बाल्यावस्था ही नहीं, भगवान् श्रीकृष्ण का समस्त जीवन ही अन्याय का प्रतिकार और न्याय की रक्षा करने में बीता था, उनके चरित्र से हम भी जो सबसे बड़ी शिक्षा ग्रहण कर सकते हैं, वह यही है कि हमको किसी भी प्रलोभन या भय के वशीभूत होकर अन्याय के सम्मुख सिर नहीं झुकाना चाहिए। फिर चाहे वह अन्याय किसी एक व्यक्ति का हो या समाज का हो या राज्य का हो। भगवान् श्रीकृष्ण ने राजनैतिक, सामाजिक, धार्मिक, कला संबंधी सभी क्षेत्रों में कार्य किया और लोगों को असत् मार्ग से हटाकर सन्मार्ग पर चलाया। इसी प्रकार हमको भी अपने समाज में, राज्य में, व्यक्तियों में जो दोष दिखाई पड़ें, जो बातें अन्याय या अत्याचार की जान पड़ें, उनका निर्भय होकर विरोध करना चाहिए। यह एक बहुत बड़ी जनसेवा का कार्य है और इसी के करने से हम भगवान् श्रीकृष्ण की जयन्ती ( श्रीकृष्ण जन्माष्टमी ) मनाने के अधिकारी सिद्ध हो सकेंगे।
इस समय संसार की जैसी परिस्थिति हो रही है, उसमें भगवान् श्रीकृष्ण के उपदेशों को समझकर और तदनुसार कार्य करना और भी आवश्यक हो गया है। ऐसी हालत में प्रत्येक व्यक्ति का कर्त्तव्य है कि किसी आततायी के अन्याय और अत्याचार के सम्मुख सिर न झुकायें और जो व्यक्ति दुर्भाग्य, अन्याय के शिकार बन गए हैं, उनकी सहायता के लिए भी सदा तैयार रहें। यह सच है कि इस प्रकार किसी बड़े शक्तिशाली का विरोध कर सकना हर एक का काम नहीं है, पर अगर हम न्याय के पक्षधर हैं और सच्चे हृदय से कार्य करेंगे, तो हमको अपने जैसे अन्य सहयोगी भी मिल जाएँगे। अगर हम अपने उद्देश्य में पूर्ण रूप से सफल न भी हों, तो सच्ची कर्त्तव्य बुद्धि से किया गया कार्य निष्फल नहीं जाता और किसी न किसी रूप में अग्रसर होता हुआ समय आने पर अवश्य सफल होता है। कृष्ण के इस उपदेश को ध्यान में रखते हुए हमको कभी भी अपने कर्त्तव्यों के पालन से पीछे नहीं हटना चाहिए।
भगवान् श्रीकृष्ण जिनको हम परमात्मा का अवतार मानते हैं, जिन्होंने अपने जीवन में महान् कार्य किए हैं, उनका अनुकरण करके हम भी क्षुद्रता से महानता की ओर अग्रसर हो सकते हैं, किन्तु धर्म क्षेत्र में उनकी इतनी लोकप्रियता है कि लाखों व्यक्ति उनको अपना आदर्श मानकर पूजते हैं। सच्चे अर्थों में उनकी पूजा यही है कि हम भी उनके बताए हुए मार्ग पर चलें। महापुरुषों की जयन्तियाँ उनके आदर्श विचारों और कार्यों को अपने जीवन में उतारने के लिए ही मनाई जाती हैं।
लेखक- अखिल विश्व गायत्री परिवार प्रमुख व विश्व प्रसिद्ध आध्यात्मिक विचारक हैं ( श्रीकृष्ण जन्माष्टमी )।