नैतिकता और मन के नियंत्रण के बारे में विवेकानंद के उपदेश
विवेकानंद का जन्म 12 जनवरी 1863 को कोलकाता, भारत में हुआ था. हर साल उनकी जयंती ‘राष्ट्रीय युवा दिवस’ के रूप में मनाई जाती है. संत रामकृष्ण के योग्य शिष्य ने हमेशा गहन और साधारण तथ्य का प्रसार करने की कोशिश की. उन्होने कहा कि “प्रत्येक आत्मा परम दिव्य है और लक्ष्य, बाहरी और आंतरिक स्वरूप को नियंत्रित करके इस दिव्यता को प्रकट किया जा सकता है.” उनके मार्मिक शब्दों ने नेताजी सुभाष चंद्र बोस, अरविन्द घोष और बाल गंगाधर तिलक सहित स्वतंत्रता संग्रामियों की पीढ़ियों को काफी प्रेरित किया.
एक दार्शनिक, एक वक्ता, एक कलाकार और व्यापक रूप से यात्रा करने वाला भिक्षु, स्वामी विवेकानंद के बारे में अक्सर यह कहा जाता है कि “उनके विचार पूर्णतयः सकारात्मक है”. उन्होंने ‘विचार को केंद्रित’ करने का समर्थन किया और अपने शिष्यों से आग्रह किया कि “एक विचार धारण करें, उसी विचार को अपना जीवन बनाएं, उसी के बारे में सोचे, उसी के सपने देखें व अपने मस्तिष्क, मांसपेशियों व नसों के साथ-साथ शरीर के हर हिस्से को उस विचार में लिप्त कर दें और जब तक उसकी प्राप्ति न हो जाए, तब तक अन्य विचारों को त्याग दें.”
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स्वामी विवेकानंद ने बताया कि एक अनियंत्रित मन हमें जीवन में नकारात्मकता की ओर ले जाता है और एक नियंत्रित मन हमें इस नकारात्मकता से बचाता है और हमें इस तरह के विचारों से भी मुक्ति दिलाता है. उन्होंने इस विचार को प्रसारित किया कि ‘आत्म जागरूकता’ एक मन को नियंत्रित करने का सबसे अच्छा तरीका है. इच्छा शक्ति और दृढ़ संकल्प भी मन को भटकने से रोक सकता है. हालाँकि, उनके उपदेश चेतावनी से परिपूर्ण हैं, क्योंकि उनके अनुसार, मन को नियंत्रण में रखने के लिए एक ही विचार की बार-बार साधना करें. मन को नियंत्रित करने की साधना दिन में दो बार विशेष रूप से सुबह और शाम के समय की जानी चाहिए, क्योंकि ये दिन के सबसे शांत पहर हैं. उनका मानना था कि, इससे मन में होने वाले उतार-चढ़ाव में कमी आएगी. मन को नियंत्रित करने के बारे में विवेकानंद ने कहा कि एक एकाग्रता ही मनुष्यों को जानवरों से पृथक करती है और एकाग्रता में अंतर होने के कारण ही एक मनुष्य दूसरे से भिन्न होता है.
नैतिकता और मन के नियंत्रण के बारे में विवेकानंद के उपदेश
परमात्मा से मिलाप और जन विकास का संदेश यह वह सामान्य उपदेश है, जो सभी दार्शनिक प्रवचनों का संयोजन करता है.उनके अनुसार, नैतिकता सीधे मन के नियंत्रण से संबंधित है और एक मस्तिष्क जो मजबूत और नियंत्रित है, वह परोपकारी, शुद्ध और बहादुर ही होगा.
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मन को नियंत्रित करने वाले विवेकानंद के बुद्धिजीवी वचन
- मन को नियंत्रित करना एक दिन का काम नहीं है, बल्कि इसके लिए नियमित और व्यवस्थित साधना की आवश्यकता होती है.जब यह नियंत्रित हो जाता है, तो अंदर से ऐसा महसूस होता है जैसे की परमात्मा की प्राप्ति हो गई है.
- आपका शरीर एक हथियार है और इसे अधिक मजबूत बनाने पर विचार करना चाहिए.आप केवल अपने मन और शरीर को मजबूत बनाने का विचार कीजिए, इससे आप जीवन के महासागर को पार करने में सक्षम होंगे. अपने आप में एक मजबूत विश्वास आपको धार्मिक बनाएगा. इससे आपको काफी खुशी का आभास होगा और आपका मन नियंत्रित रहेगा.
- मन को काबू में रखें, क्योंकि मन एक झील की तरह है, इसलिए इसमें गिरने वाला हर एक पत्थर लहरों को जन्म देगा.ये लहरें नहीं देखती हैं कि हम क्या हैं.
- चुपचाप बैठो और मन को भटकने दो, जहाँ वह जाना चाहता है.परंतु आप अपने आप पर एक दृढ़ विश्वास रखें कि आप अपने मन को सभी यादृच्छिक दिशाओं में देख रहे हैं. अब भगवान से मिलाप करने की कोशिश करें, लेकिन सभी संसारिक मोह माया या रिश्तों को त्यागकर. कुछ समय बाद आप देखेंगे कि आपका मन शांत झील की तरह शांत हो रहा है. यह मन की भटकने की गति को धीमा कर देगा. प्रत्येक दिन इसकी साधना करें और अपने आप को पहचानें. समय के साथ-साथ आपका मन आपके नियंत्रण में होगा.
- मन को प्रफुल्लित लेकिन शांत रहने दें.कभी भी इसे ज्यादा न भटकने दें, क्योंकि इससे ध्यान भ्रमित होगा.
- ध्यान का अर्थ है कि आपने अपने मन पर काबू कर लिया है.वह मन सभी आने वाली विचार-तरंगों और दुनियाभर की मोह-माया से निजात दिलाता है. इससे आपकी चेतना का विस्तार होता है. हर बार जब आप ध्यान करेंगे, तो आप अपने विकास के पथ पर अग्रसर होंगे.
- हमें इस अस्थिर मन पर काबू पाना होगा और इसे भटकने से रोककर एक विचार पर केंद्रित करना होगा.इसे बार बार और कई बार किया जाना चाहिए. इच्छा शक्ति के द्वारा हमें अपने मन को काबू करना चाहिए और इस पर नियंत्रण पाकर ईश्वर की महिमा की स्तुति करें.इससे मन के निरंतर नियंत्रण का प्रवाह स्थिर हो जाता है, क्योंकि जब आप दिन-प्रतिदिन साधना करते हैं, तो मन निरंतर एकाग्रता की शक्ति प्राप्त कर लेता है.
- बाहरी और आंतरिक सभी इंद्रिया, मनुष्य के नियंत्रण के अधीन होनी चाहिए.कड़ी साधना के जरिए ही वह उस मुकाम को हासिल करता है, जहाँ वह प्रकृति के आदेशों व इंद्रियों के खिलाफ अपने मन को एकाग्रचित कर सकता है. वह अपने मन को यह कहने में सक्षम होना चाहिए कि “आप मेरे हो, मैं आपको आदेश देता हूँ कि कुछ भी न देखो और न सुनो” और मन भी कोई स्वरुप या ध्वनि प्रतिक्रिया किए बिना न कुछ सुनेगा और न ही देखेगा.