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हिन्दी दिवस विशेष : हिन्दी साहित्य के इतिहास की बुनियाद : धर्म के आईने से…

हिन्दी साहित्य के इतिहास की बुनियाद : धर्म के आईने से…

हिन्दी साहित्य के इतिहास की बुनियाद वैष्णव साहित्य के सीमेंट से भरी गयी थी जिसमें जैन और सिख मतावलंबियों की रागात्मकता का गारा नहीं मिलाया गया था। यदि बुनियाद में ही गारे के साथ सिद्धों और नाथों की रचनाओं का मसाला भी इसमें मिला लिया गया होता तो आज हम वैष्णव साहित्य की फ़सीलों पर जैनियों, सूफियों और सिख साहित्य के बहुरंगी झंडे फहरते हुए दिखाई देते और साहित्य एक अलग धर्म के रूप में तमाम मतमतान्तरों से ऊपर उठ कर अपनी एक नयी परिभाषा को परिभाषित कर रहा होता।

ऐसा होता तो इस हवेली के पत्थरों के नाम भी निश्चय ही वैष्णव, जैन, सूफी, सिख, सगुण या निर्गुण नहीं होते। यदि साहित्य धर्म के रूप में उभरता तो बौद्ध धर्म की अविरल धारा क्रान्ति की बाढ़ के बीच वैष्णव साहित्य की हवेली में दरारें डाल कर बड़े-बड़े चिंतकों और विचारकों को बहा कर गलियारों में न ले आती, जिन पर तथाकथित निम्न जातियों के अक्सर पांव पड़ जाया करते थे।

ये वे ही निम्न लोग थे जिन्होंने साबित किया था कि जिस तरह धरती की कोई सरहद नहीं होती है, उसी तरह ज्ञान की भी कोई सीमा या सरहद नहीं होती है। ज्ञान, यानि इल्म जब ज़ह्न (मस्तिष्क) के रगरेशों में सरगोशियां कर जिस्म को यह अहसास कराता है कि देह मिट्टी है और मिट्टी का रिश्ता ज़मीन  से होता है, तो ज़मीन से जुड़े मानस को यह समझने में देर नहीं लगती है  कि जिस्म का रिश्ता ज़मीन से ही जुड़ा होता है।

यहीं पर यह सवाल  भी जन्म लेता दिखाई देता है कि अगर ज़मीन का रिश्ता जिस्म  से है तो रूह यानि आत्मा का  रिश्ता किससे होगा, असमान  से? जहां से बारिश, धूप और चांदनी प्रकृति का वरदान बन ज़मीन  को मालामाल लार देती है? यदि ऐसा है तो असमान का रिश्ता भी हमारी रूह यानि आत्मा से ज़रूर होना चाहिए।

जब कभी मानस के बीच यह अहसास पैदा हुआ तो इल्म हासिल करने के उद्देश्य से मनुष्य का ज़ह्न गुरुकुलो और मदरसो की ओर आकर्षित हुआ़। वहां पहुंचकर उसकी जिज्ञासा ने अपने यक्षप्रश्नों को गुरू के सामने रखा  कि आकाश का हमसे सम्बंध क्या है? गुरू नेजिज्ञासुको मठ और खानकाह की तरफ भेज  दिया।

यहां पर दो संस्थाएं आपस में  विभाजित होती दिखाई दीं। जिज्ञासु गुरुकुल या मदरसे गया तो उसे ग्रंथों के अघ्ययन के लिए मजबूर होना पड़ा। गुरू शिष्य को शिक्षा का मंत्र देता है कि ज्ञानार्जन के लिए शिक्षा ग्रहण करना ज़रूरी है। शिक्षा का ज्ञान जिज्ञासु को प्रकृति के सत्य से जोड़ता है। उसे जीवन का दर्शन समझाता है, हिंसा और अहिंसा के बीच के भेद को बताता है. यहीं पर गुरु और उस्ताद ने शिष्य को धीरे से  यह राज़ भी बता दिया कि यह जो तू इल्म हासिल करेगा, यह इल्म दुनियावी है यानी इल्मेज़ाहिर। इसका इल्मेबातिन से कोई नाता नहीं होगा.

शिष्य उलझ गया, ये इल्मेबातिन क्या है?

मदरसे के उस्ताद ने शागिर्द  को समझाया कि  मेरे इल्म की अपनी हदें हैं लेकिन तेरे तजस्सुस (जिज्ञासा) की कोई हद नहीं है, इसलिए तू खानकाह में जा। यहां मदरसे में जो इल्म था वह इल्मेज़ाहिर है लेकिन खानकाह में तुझे जो इल्म मिलेगा वह इल्मेबातिन होगा। यहां के इल्म को तेरे जिस्म ने हासिल किया लेकिन खानकाह में जो इल्म मिलेगा, उसे तेरी  रूह हासिल करेगी। उसने यह भी बताया कि खानकाह रूह के इल्म का गह्वारा है, वहां का इल्म, यहां के इल्म में जब अपना सामंजस्य बिठायेगा, तो तुझे समझ में आयेगा कि जिस्म का रिश्ता ज़मीन से क्या है और आसमान का रिश्ता रूह से क्यों है?

यही है इल्मुलअहसान, यानीदीन का इल्मजो तुझे महसूस करायेगा कि ईर्ष्या, द्वेष, घृणा और वैमनस्य की शक्लें नहीं हुआ करतीं, ये तोरूह को बीमार करने वाले जरासीम यानि कीटाणु हैं। इनसे जब इंसान पाक हो जाता है तो उसका मन खुद ब खुद तसव्वुफ़ यानी सूफ़ीवाद की तरफ मुड़ जाता है। फिर हम नहीं सोचते कि तसव्वुफ् का सफ़र बसरा से शुरू हुआ था या मिस्र के अहरामों से। वहदतुलवजूद का फ़लसफ़ा इब्ने अरबी के जह्न की इख्तरा थी या हजारो साल पुराने काहनों (पंडोपुजारियों) के ज़हनों की फ़िक्र या अतार, रूमी, जामई, मंसूर हलाज और खवाजा हाफ़िज़ या दूसरे भरतीय सूफ़ीसंतों का आत्मचिंतन।

अब्दुल्लाह इब्ने मसूद बताते हैं कि अल्लाह ने कुरआन को सात हरफ़ों, सात किरातों और सात तरीकों में उतारा है और हर हर्फ़ का एक ज़ाहिर माना है तो एक बातिल माना भी है। लेकिन इतनी समझ तो सिर्फ हज़रत अली को ही हो सकती थी जिन्हें हमारे रसूल  मुहम्मद साहब ने बाबुलेइल्म (इल्म का दरवाज़ा) कहा था। यह आम लोगों की समझ से बाहर का इल्म था।

अबूहुरैरा की हदीस में दो प्रकार के इल्म का ज़िक्र किया गया है। वह लिखते हैं कि हमने दो तरह के इल्म आनहज़रत से सीखे। एक मैं जो  हर एक से बयान करता हूं, और दूसरा इल्म अगर बयान कर दूं तो मेरा सिर कलम कर दिया जायेगा। इतिहास में कितने ऐसे उदाहरण हैं कि जब दूसरे तरह के इल्म का लोगों ने इज़हार किया तो उन्हें मौत की सज़ाएं दे दी गयीं। क्योंकि मेंढक समुद्र के विस्तार की बात को नहीं समझ पाते हैं।

भारतीय सूफ़ीवाद का तत्व चिंतन इसी देश की धरती से उपजा जहां गांवों के गलियारों और उनकी चौपालों के वारिसों की भाषा शास्त्राचार्यों की भाषा जैसी नहीं थी, न ही उनका तत्व.चिंतन इतना गूढ़ था जो ब्रह्म, जीव और जगत को सही तौर पर परिभाषित न कर पाता हो।

जो लोग ब्रह्म को प्राप्त करने या अल्लाह की तरफ़ जाने के लिए इबादतें करते हैं, वे अल्लाह के मुखलिस बंदे कहे जाते है। जो मुखलिस इबादतेइश्केइलाही में पूरी तरह से डूब जाते हैं, वे अल्लाह के मुखलस हो जाते हैं। मुखलिस उन्हें कहते हैं जो अल्लाह की तरफ़ चलकर जाते हैं लेकिन मुखलस उन्हें कहते हैं जिनकी इबादतों से खुश होकर अल्लाह अपने बंदे की तरफ़ खुद चलकर आता है। ऐसे मुखलस सूफ़ियायेकराम की खशबुएं जब हिन्दुस्तान की फ़िज़ा में फैलीं तो इबादत का फ़लसफ़ा ही बदल गया। आमजन ने महसूस किया कि उनकी निजात तो इसी दरिया की किश्ती से है और वे तसव्वुफ़ की किश्तियों में आआकर बैठने लगे। इसी किश्ती से बू अली कलंदर की आवाज़ सुनाई दी,‘सजन सकारे जाएंगे, नैन भरेंगे रोय/विधना ऐसी कीजियो, और कदी न होय।

संतों और सूफ़ियों ने जब किश्ती को प्रतीक का रूप दिया तो किश्ती में सवार लोगों के व्यवहार में प्रेम के भावों का प्रस्फुृटन होने लगा। प्रेम ने फारसी और संस्कृत को आत्मसात कर कबीर को ऐसी ज़बान दे दी जिसने ज्ञानमार्ग के हर चौराहे को रोशनियों से भर दिया। यहां न भरतीय वेदांत था न खालिस बसरे से आयातित तसव्वुफ़, यहां कागद की लेखी का कोई महत्व न होकर जो देखा, वही निजात का मंतर बन गया, हिन्दू तुरक की एक राह है, सतगुरु इहै बताई/कह कबीर सुनो हो संतो, राम न कहेउ खुदाई।

ऐसा नहीं था कि ज्ञानमार्गियों के ये मुसाफ़िर किश्ती में अकेले थे, रज्जब थे, बाबा शेख फ़रीद थे, यारी साहब हों या दरिया साहब, शाह बरकतुल्लाह हों या अब्दुल समद। बुल्लेशाह से लेकर सालस, यकरम और कायम तक सभी ने सदा सनेही सुमिरन की बात कही।

यह वह पीढ़ी थी जो साधारण जातियों के अलाव से तप कर निकली थी और जनता की भाषा में उनसे संवाद करती थी। संवाद की यही साधारण भाषा बहती हुई सूफियों, नाथों और दरवेशों के मठों, खानकाहों, दरगाहों के हुजरों तक पहुंचती चली गयी, जिसने कालांतर में एक नए युग का सूत्रपात किया।

भारतीय सूफी दर्शन ने अपनी दलील दी कि हर बाह्यरूप का एक अंतःकरण होता है। उदाहरण देते हुए उन्होंने बताया कि जैसे हर फल के शरीर पर छिलके के रूप में एक आवरण होता है। उसी तरह आवरण के अंदर तत्व यानी गूदा होता है।

मिसाल के रूप में हम केले को लें। केले का आकारप्रकार जहां भी वह पैदा होता है, एक ही रूप में जन्म लेता है। आवरण से अनुमान लगाया जाता है कि केला सेहतमंद होगा या नहीं। आवरण फल का बाह्यरूप है जो हमें केले की मिठास, सुगंध, सड़ांध, उसके सौंदर्य और विद्रूपता से परिचित कराता है किन्तु हम छिलके के भीतर के सत्य को उस समय तक नहीं जान पाते हैं जब तक हम उसका सेवन न कर लें। तो, गूदा बातिन है और छिलके का आवरण उसका ज़ाहिर यानी, बाह्यरूप।

यही सम्बंध शरीर और आत्मा का है। अंतःकरण की स्थिति अदृश्य अवश्य है किन्तु वही सत्य है जिसे हम आत्मा की शक्ति कहते हैं। शरीर स्वस्थ होता है, पौष्टिक आहार से और आत्मा स्वस्थ होती है संयम, नियम, त्याग, अध्यात्म और खुदा की इबादत से। यह सगुण और निर्गुण के परस्पर संघर्ष की अन्विति थी।

इस युग में जिस निर्गुण काव्य की सर्जना हुई, वह संत और सूफी काव्य के वर्गीकरण से मूलतः मुक्तकाव्य सिद्ध हुआ जिसकी दार्शनिक व्याख्या ब्रह्मवाद से लेकर अद्वैतवाद तक की गयी। नतीजा यह  हुआ कि जो बौढ्धिक जाति का भाषायिक साहित्य संवत 1250 से 1550 तक नाथों, सूफियों और संतों की मार्फ़त जातेता झील में एकत्र हुआ, उसे हवेलियों के तत्वचिंतकों ने उलीचने की कोशिशें नहीं कीं, क्योंकि तत्कालीन बौद्धिक वर्ग इस दौरान की भाषायिक क्रान्ति को मान्यता देने के लिए कतिपय तैयार नहीं था। वह यह समझने के लिए भी कतिपय तैयार नहीं था कि कौमों और समुदायों के अपने कुछ अलग विश्वास, आस्थाएं और अकीदे होते हैं, लेकिन जीने के तरीके और तरीकों से जन्मी समस्याएं समान होती हैं, जिन्हें अलग.अलग धर्मों में नहीं बांटा जा सकता है, शासक वर्ग का एक ही धर्म होता है, शासन और सत्ता पर कब्ज़ा बनाए रखना। वह शासक चाहे मौर्य हो या अफगान, तुर्क हो या जाट, लोदी हो या गुर्जर, मुग़ल हों या राजपूत, ब्राह्मण हो या शूद्र, शासक अत्याचार करता है और शासित अत्याचार सहता है। जब इन दोनों में टकराव की स्थिति जन्म लेती है तो क्रान्ति की आंधी चलती है और आंधियां कभी भी दिशाहीन नहीं हुआ करती हैं।

तो, जब सामाजिक और सांस्कृतिक क्रान्ति ने दस्तक दी तो कबीर ने खालिस हिन्दुओं के पाखंड को ही नहीं लताड़ा, उन्होंने मुसलामानों के पाखंडों पर भी हमला किया। गुरू नानक देव ने मुल्लाओं को लताड़ा तो पंडितों को भी नहीं बख्शा। उस आंधी में हमें सूफियों, संतों और जातेता साहित्यकारों की घनगरज साफ़ सुनाई देती है।

इस तरह यदि हम देखें तो पायेंगे कि जहाँ सूफियों ने हुमायूं पर फिकरे कसे, तो वहीं मलिक मोहम्मद जायसी ने अलाउद्दीन खिलजी को भी नहीं बख्शा। यहीं पर सूफीवाद का तत्वचिंतन हमें एक नए आसमान के नीचे लाकर खड़ा कर देता है, जहाँ हम महमूद..अयाज़ का मतलब एक पंक्ति में आकर समझने लग जाते हैं। यही तत्वचिंतन के सूत्र और आस्था हमें तमाम मतमतान्तरों से ऊपर जाकर सामान्य जनता के बीच ला खड़ा करते है, जो आमजन के रूप में शोषण का शिकार होती हैं और सीधीनाथों, योगियों तथा शास्त्रचार्यों के बीच का अन्तर जान लेती हैं और पहचान लेती हैं कि शंकराचार्य का बौद्धिक.चिंतन गोरखनाथ, बाबा फरीद, कबीर दास, गुरू नानक और तुलसी दास से कितना पृथक और गूढ़ है।

वह जान लेती है कि सूफियों की साधनापद्धति नाथ योगियों की साधना.पद्धति से कितनी भिन्न और सरल है जिसमें चमत्कार नहीं, यथार्थ की साँसों का नियंत्रण है। पाखंडी योगियों का तिलिस्म नहीं, आस्थां, विश्वास और कर्म का सत, तत्वचिंतन है। उसका कारण यह था कि सूफी.संतों का तत्वचिंतन घृणा पर बसेरा नहीं डाले हुए था। उनका मूलमन्त्र था, प्रेम! मानव का मानव से प्रेम, जो भावाभिव्यक्ति में नाथ, योगी और वैष्णव शब्दावली से इतर नहीं, केवल केव्लत्ववादी के अत्यन्त समीप था और केवलवाद का यही सिद्धांत अवतारवाद से सम्बन्ध जोड़ कर उसे इब्नेअरबी को अपनी ओर खींच लाया।

शायद इसी केवलत्व के सिद्धांत ने महमूद शबिस्त्री को भी आकर्षित कर उसे गुलशनेराज़ जैसी कृति की रचना करने पर बाध्य कर दिया। फैजी ने नलदमन की कथा को फ़ारसी में पिरोया। मौलाना रूम की मसनवियों में भारतीय लोककथाओं के पात्र फ़ारसी के रास्ते ईरान और फिर अरब तक पहुंचे। जायसी के अखरावट, आखरी कलाम और पद्मावत ने सूफी काव्य की चिंतनधारा को नए आयाम दे दिये।

एक लहर थी जो बसंत की बयार बन कर तत्वज्ञानियों के दार्शनिक चिंतन को छूती हुई सूफीवाद को जीवन्तता प्रदान करती हुई आम जनता की साँसों में घुलती चली गयी। हमीदुद्दीन नागौरी ने सिद्ध किया कि चित्त जगत के बाहर है और जगत चित्त के बाहर। साधक के चित्त में प्रवेश करते ही जगत बाहर आ जाता है और जगत में प्रवेश करते ही चित्त से बाहर आ जाता है।

शेख साहब का वह्दतुलवजूद के दर्शन में विश्वास था कि सृष्टि पदार्थ देखने में कितने ही भिन्न क्यों न हों, यदि उनकी वास्तविकता पर विचार किया जाए तो वे मूलतः एक ही हैं। पुस्तक में समां, (जिसमें शेख हमीदुद्दीन नागौरी की काफ़ी रूचि थी) को लेकर फुतहसलातीन  के हवाले से एक किस्से का ज़िक्र किया गया है।

विद्वान लेखक लिखता है कि सुलतान इल्तुतमिश के राज्यकाल में शेख नागौरी दिल्ली पधारे। वहाँ वह दिनरात समां सुनते रहते और उसी में मगन रहते। सम्राट उनका बहुत मानसम्मान करता था। दरबार में मुफ्तियों ने बादशाह के कान भरे तो उन्हें दरबार में बुलाकर उनसे सवाल किया गया कि समां शरीअत के विरूद्ध है या नहीं? उत्तर मिला कि समा, आलिमों के लिए हराम है और साधकों के लिए हलाल। इस प्रकार हम देखते हैं कि शहाबुद्दीन नागौरी का सूफी चिंतन नाथपंथी प्रवृतियों को आत्मसात करने वाला था। शेगनी गयी जोगिनी करी, गनी गयी को देस। अयन रसायन संचरे, रंग जो मोर ओस।

तसव्वुफ़ का यह चिंतन तत्कालीन नाथ योगियों पर भी पड़ा, गोरखबानी में आए शब्द इसका प्रमाण हैं। जैसे बाबा गोरखनाथ की यह स्वीकृति कि उत्पति हिंदू जरना जोगी, अकलि परी मुसलमानी। इसका उदहारण है। इसी परम्परा के एक अन्य कवि हैं अलख दास। इनका असली नाम अब्दुल कुद्दूस गंगोही था इन्होने दाऊद कृत चंदायन का फ़ारसी में पद्यान्वाद किया और ख़ुद भी केवलत्व के सिद्धांत का प्रतिपादन करते हुए अपनी रचना रुश्दनामा में इसको व्याख्यायित किया।

उन्होंने सच्चे सूफी की पहचान को परिभाषित करते हुए कहा कि जो लोग परम सत्य को प्राप्त कर लेते हैं, और ईश्वर के अलावा दूसरी सभी वस्तुओं से विमुख हो चुके होते हैं, वे ही सूफी कहलाते हैं। उनके अनुसार सच्चा इंसान समस्त वाह्याडम्बरों से मुक्त होता है।

हमें सूफी संतसाहित्य में कबीर और नानक भी इसी चिंतन का सर्वत्र अलख जगाते दिखाई देते हैं। इन्हीं संतों, कवियों और दार्शिनिकों ने हमें सोच के नए आयाम दिए और हम ये समझ पाये कि मानव जीवन की अभिव्यक्ति ही साहित्य का सहज धर्म  है। इस धर्म का नाम हिन्दूमुसलमान नहीं है। अमृता प्रीतम के अनुसार ये तो मैं से आगे मैं तक पहुंचने की यात्रा है। उस मैं तक पहुँचने की जिसमें सबसे पहले मैं की पहचान जमा होती है। जहाँ गैर सा गैर दर्द अपना हो जाता है. इस प्रकार हम कह सकते हैं कि इसीलिए साहित्यकार से साहित्य का गहरा नाता स्थापित हुआ, इसे हम चिंतन का भी नाम दे सकते हैं। चिंतन जितना गहरा, जितना यथार्थ और मानवमूल्यों की उन्नति का प्रेरक होगा, उतना ही वह आत्मीय, टिकाऊ और लोकप्रिय होगा। यूसुफ़.-जुलेखा की कहानी हो या रानी पद्मावती और रत्नसेन की कथा, जब वे अपनी आत्मा की गहराइयों के साथ आम.जन तक पहुँचती हैं तो सरहदें लाँघ जाती हैं, भले ही उनकी अभिव्यक्ति की भाषा कोई भी क्यों न रही हो। खुसरो से लेकर बुरहानुद्दीन जानम या इनसे लेकर इंशाल्लाह खां तक हिन्दी साहित्य की यात्रा कहीं भी अजानी महसूस नहीं होती, क्योंकि हिन्दी भाषा और इसके साहित्य की समृद्धि में भारत के सभी धर्मों और सम्प्रदायों के अनुयाइयों ने समान रूप से अपना योगदान दिया है

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Dr.Ranjan Zaidi

ईमेल – ranjanzaidi786@yahoo.com

साभार – https://alpst-politics.blogspot.in

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