बाबरी मस्जिद की गुम्बद पर मारी थी पहली कुदाल
अयोध्या, 7 दिसंबर; 6 दिसम्बर 1992 का वो दिन, जिसे आज तक देश नहीं भूल पाया है. इस दिन बाबरी मस्जिद का हजारों कारसेवकों ने विध्वंस कर दिया था. जिसके बाद देशभर में दंगे फैल गए थे और कई लोगों की जानें चली गईं थीं. इस बात को 25 साल पूरे हो चुके हैं. आज तक रामजन्म भूमि-बाबरी मस्जिद स्वामित्व विवाद का कोई फैसला नहीं हो पाया है.
लेकिन इस विध्वंस का दूसरा पहलु भी था….वो था अफ़सोस का पहलू. हजारों कारसेवकों जिन्होंने बाबरी मस्जिद गिराया था, उनमें से कई ऐसे भी हैं, जिन्हें आज तक उस बात का अफसोस है. हर कारसेवक एक जैसा नहीं सोचता. कुछ इस पर गर्व करते हैं, कुछ अपनी उस भूल पर पछताते भी हैं.
अपनाया मुस्लिम धर्म
पानीपत के बलबीर सिंह, जो 1992 में शिवसेना के सदस्य थे, उन्होंने इस्लाम धर्म कबूल कर लिया. उन्हें बाबरी मस्जिद विध्वंस में शामिल होने का दुख है. इन्हीं के जैसे हैं योगेंद्र पाल सिंह, जो मस्जिद ढहाने के लिए उस वक्त उसके गुंबद पर चढ़े थे, इन्होंने भी बाद में इस्लाम धर्म कबूल कर लिया और मुसलमान बन गए.
मुस्लिम धर्म अपनाने के बाद दोनों ने अपना नाम भी बदल लिया है. बलबीर अब मोहम्मद आमिर बन चुके हैं और योगेंद्र अब मोहम्मद उमर के नाम से जाने जाते हैं.
प्रायश्चित के तौर पर कर रहे हैं मंदिर निर्माण
प्रायश्चित के लिए दोनों ने 100 मस्जिदों के निर्माण या मरम्मत की कसम भी खाई है. अब तक दोनों ने 50 मस्जिदों के निर्माण और मरम्मत में सहयोग किया है.
गौरतलब है कि बलबीर बाबरी मस्जिद का गुंबद तोड़ने वाले पहले कारसेवक के तौर पर जाने जाते हैं. जब वे मस्जिद ढहाकर लौटे थे, तो पानीपत में उनका स्वागत हीरो की तरह किया गया था. वे अयोध्या से दो ईंटें लेकर आए थे, जो अभी भी शिवसेना कार्यालय में रखी हैं.
कैसे हुआ ह्रदय परिवर्तन
जब बलबीर उर्फ मोहम्मद आमिर मुस्लिम धर्मगुरु मौलाना कलीम सिद्दीकी को मारने के लिए देवबंद में थे, तब उनका मन बदल गया. मौलाना की धार्मिक बातें सुनकर बलबीर ने तुरंत इस्लाम अपनाने का फैसला कर लिया. इसके लिए उन्होंने अपना शहर छोड़ दिया. वे पानीपत से आकर हैदराबाद में बस गए. उन्होंने मुस्लिम लड़की से निकाह भी किया. उन्होंने अपना नाम तक बदल लिया और आज वे इस्लाम की शिक्षा देने के लिए स्कूल भी चलाते हैं.
बलबीर सिंह और योगेन्द्र पाल दींह के अलावा अयोध्या में बजरंग दल के नेता रहे शिव प्रसाद भी उन्हीं में से एक हैं. शिव प्रसाद ने करीब चार हजार कारसेवकों को खुद ट्रेनिंग दी थी जिन्होंने बाद में बाबरी मस्जिद ढहाई. साल भर बाद ही शिव प्रसाद डिप्रेशन में चले गए. उन्होंने मनोचिकित्सकों, तांत्रिकों, संतों को दिखाया मगर शांति नहीं मिली. अगले पांच साल एकांत में बिताने के बाद वह नौकरी के लिए 1999 में शारजाह चले गये. वहां उन्होंने इस्लाम कबूल कर लिया और मोहम्मद मुस्तफा बन गए.
यह तो स्पष्ट है विध्वंस किसी को खुश नहीं करता. हम हजारों लाखों की भीड़ में कुछ ऐसे कार्य कर जाते हैं जो बाद में आपकी दिल का सुकून चुरा लेते है…शायद ऐसा ही कुछ हुआ था इन कारसेवकों के साथ. जो आज अपने अपने तरीके से प्रायश्चित करने के रास्ते खोज रहे हैं.