मिच्छामी दुक्कड़म : ये सॉरी कहने जैसा नहीं है
जैन धर्म में पर्यूषण पर्व के आखिरी दिन एक -दूसरे से “ मिच्छामी दुक्कड़म ” कहने की परंपरा है।
पर्यूषण पर्व, जैन धर्म के प्रमुख पर्वों में से एक है। श्वेताम्बर जैन इसे 8 दिन तक और दिगंबर जैन 10 दिन तक मनाते हैं। इस दौरान लोग पूजा, अर्चना, आरती, समागम, त्याग, तपस्या, उपवास आदि में अधिक से अधिक समय व्यतीत करते हैं।
इस पर्व का आखिरी दिन क्षमावाणी दिवस (Kshamavani Divas) के रूप में मनाया जाता है जिसमे हर किसी से “मिच्छामी दुक्कड़म” कह कर क्षमा मांगते हैं।
“मिच्छामी दुक्कड़म ” का शाब्दिक अर्थ है , “जो भी बुरा किया गया है वो फल रहित हो ”
‘ मिच्छामी’ का अर्थ क्षमा करने से और ‘दुक्कड़म’ का बुरे कर्मों से है। अर्थात मेरे बुरे कर्मों के लिए मुझे क्षमा कीजिये।
ये सॉरी कहने जैसा नहीं है, सॉरी तो हम हर दूसरी बात में बोल देते हैं; ये उससे कहीं बढ़ कर है, क्योंकि यहाँ क्षमा ह्रदय से और हर तरह की गलती के लिए मांगी जाती है, फिर चाहे वो शब्दों से हुई हो या विचारों से, कुछ करने से हुई हो या अकर्मण्य बने रहने से, जानबूझकर की गयी हो या अनजाने में।
प्राकृत भाषा में काफी जैन ग्रंथों की रचना हुई है। ‘मिच्छामी दुक्कड़म्‘ भी प्राकृत भाषा का शब्द है। पर्युषण महापर्व जैन धर्मावलंबियों में आत्मशुद्धि का पर्व है। इस तरह पर्युषण पर्व आत्मशुद्धि के साथ मनोमालिन्य दूर करने तथा सभी से क्षमा-याचना मांगने का सुअवसर प्रदान करने वाला महापर्व है।
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आचार्य महाश्रमण के अनुसार- क्षमापना से चित्त में आह्लाद का भाव पैदा होता है और आह्लाद भावयुक्त व्यक्ति मैत्रीभाव उत्पन्न कर लेता है और मैत्रीभाव प्राप्त होने पर व्यक्ति भाव विशुद्धि कर निर्भय हो जाता है। जीवन में अनेक व्यक्तियों से संपर्क होता है तो कटुता भी वर्षभर के दौरान आ सकती है। व्यक्ति को कटुता आने पर उसे तुरंत ही मन में साफ कर देनी चाहिए और संवत्सरी पर अवश्य ही साफ कर लेना चाहिए।
जैन धर्म के पयुर्षण पर्व से विदेश भी अछूता नहीं है। यहां रहने वाले जैन धर्मावलंबी भी इन दिनों तप-आराधना करके ‘मिच्छामी दुक्कड़म्‘ का पर्व मनाते हैं और अपने से दूर रहने वाले अपने सगे-संबंधी तथा परिचितों-मित्रों से माफी मांगकर क्षमापना पर्व को मनाते हैं। यह पर्व भारत के अलावा दुनिया में अन्य कई जगहों, जैसे अमेरिका, कनाडा, ब्रिटेन, ऑस्ट्रेलिया, जर्मनी, जापान व अन्य अनेक देशों में भी यह पर्व धूमधाम से मनाए जाते हैं।
माना जाता है कि क्षमा देने से आप अन्य समस्त जीवों को अभयदान देते हैं और उनकी रक्षा करने का संकल्प लेते हैं। तब आप संयम और विवेक का अनुसरण करेंगे, आत्मिक शांति अनुभव करेंगे और सभी जीवों और पदार्थों के प्रति मैत्रीभाव रखेंगे। आत्मा तभी शुद्ध रह सकती है, जब वह अपने से बाहर हस्तक्षेप न करे और बाहरी तत्व से विचलित न हो। क्षमाभाव ही इसका मूलमंत्र है।
भगवान महावीर ने कहा है…
खामेमि सव्वे जीवा, सव्वे जीवा खमंतु मे।
मित्तिमे सव्व भुएस् वैरं ममझं न केणई।
यानी सभी प्राणियों के साथ मेरी मैत्री है, किसी के साथ मेरा बैर नहीं है। यह वाक्य परंपरागत जरूर है, मगर विशेष आशय रखता है। इसके अनुसार क्षमा मांगने से ज्यादा जरूरी क्षमा करना है।