क्या सीता टेस्टट्यूब बेबी थीं ?
हिंदू धर्म के सबसे पावन ग्रंथ रामचरितमानस को महर्षि वाल्मीकि ने लिखा। इस ग्रंथ को आदर्श की स्थापना के लिए समाज में सदैव आस्था की दृष्टि से देखा जाता रहा है। सदियों से राम नाम की महिमा को समाज में स्थापित किया है रामायण में। आज हम भगवान राम, सीता, लक्ष्मण और हनुमान की अनुपम गाथा को सदैव श्रद्धा से अपनाते है, और अपने परिवार, बच्चों और समाज में एकरूपता और मूल्यों के सिंचन के लिए बहुधा उपयोग करते हैं।
रामायण में मां सीता के जन्म का जिक्र बालकांड में मिलता है। ‘वाल्मीकि रामायण’ के अनुसार, भगवान राम के जन्म के सात वर्ष, एक माह बाद वैशाख मास के शुक्ल पक्ष की नवमीं को राजा जनक द्वारा खेत में हल की नोंक (सीत) के स्पर्श से एक कन्या मिली, जिसे उन्होंने सीता नाम दिया। हल की नोंक एक घडे से टकराई थी, जिसके अंदर सीता जन्मरूप में मौजूद थी।
हाल ही में एक राजनेता ने इस बात को कहकर एक नया विमर्श खड़ा कर दिया कि सीता एक टेस्टट्यूब बेबी थी। आस्था और विश्वास को विज्ञान के समक्ष रखकर उसे सिद्ध करने की जरूरत आज की सोच का हिस्सा हो चली है। तर्क के समक्ष हर आस्था के प्रश्न को रखकर हम समाज में नई अवधारणाएं और मौजूद विश्वास के लिए आधार को और मजबूत करना चाहते है। तो क्या सीता सचमुच टेस्टट्यूब बेबी थी ?
स्वामी करपात्रीजी ने स्वरचित ”रामायण मीमांसा” में लिखा है – “पुराणकार किसी व्यक्ति का नाम समझाने के लिए कथा गढ़ लेते है। जनक पुत्री सीता के नाम को स्पष्ट करने के लिए उन्होंने वैदिक सीता (= हलकृष्ट भूमि) से सम्बन्ध जोड़कर उसका जन्म ही भूमि से हुआ बता दिया”
तुलसीदासजी ने तो माता = जननी का नाम भी इस चौपाई में लिख दिया है :- जनक वाम दिसि सोह सुनयना । हिमगिरि संग बनी जिमि मैना ।। (रामचरितमानस बालकाण्ड 356/2)
विष्णु पुराण, अंश 4, अध्याय 4, वाक्य 27-28 है जिसका वाल्मीकि रामायण में प्रक्षेप कर दिया गया है। जन्म को पृथ्वी से मानकर सीता का अंत भी पृथ्वी में समाने की कल्पना करके ही किया गया है ।
मां सीता को अनेक स्थलों में अयोनिजा कहा गया है। पृथ्वी से उत्पन्न होने का अर्थ माता-पिता के बिना अर्थात स्त्री-पुरुष के संयोग के बिना उत्पन्न होना है। इसी को अयोनिज सृष्टि कहते है, क्योंकि इसमें गर्भाशय से बाहर निकलने में योनि नामक मार्ग का प्रयोग नहीं होता।
वैसे कालांतर में लिखे गए कई ग्रंथों में अजीब अजीब से दावे भी किए गए। जैसे अद्भुत रामायण। अद्भुत रामायण संस्कृत भाषा में रचित 27 सर्गों का काव्यविशेष है। कहा जाता है, इस ग्रंथ के प्रणेता वाल्मीकि थे। किंतु इसकी भाषा और रचना से लगता है, किसी बहुत परवर्ती कवि ने इसका प्रणयन किया है। इसके अनुसार, “ श्रीराम तथा सीता इस घटना से ज्ञात होता है कि सीता राजा जनक की अपनी पुत्री नहीं थीं। धरती के अंदर छुपे कलश से प्राप्त होने के कारण सीता खुद को पृथ्वी की पुत्री मानती थीं। लेकिन वास्तव में सीता के पिता कौन थे और कलश में सीता कैसे आयीं, इसका उल्लेख अलग-अलग भाषाओं में लिखे गये रामायण और कथाओं से प्राप्त होता है। ‘अद्भुत रामायण’ में उल्लेख है कि गृत्स्मद नामक ब्राह्मण लक्ष्मी को पुत्री रूप में पाने की कामना से प्रतिदिन एक कलश में कुश के अग्र भाग से मंत्रोच्चारण के साथ दूध की बूंदें डालता था। एक दिन जब ब्राह्मण कहीं बाहर गया था, तब रावण इनकी कुटिया में आया और यहाँ मौजूद ऋषियों को मारकर उनका रक्त कलश में भर लिया। यह कलश लाकर रावण ने मंदोदरी को सौंप दिया। रावण ने कहा कि यह तेज विष है। इसे छुपाकर रख दो। मंदोदरी रावण की उपेक्षा से दुःखी थी। एक दिन जब रावण बाहर गया था, तब मौका देखकर मंदोदरी ने कलश में रखा रक्त पी लिया। इसके पीने से मंदोदरी गर्भवती हो गयी।
इन सब बातों के आधार पर ये कहना कि वे मां सीता किसी वैज्ञानिक प्रयोग के परिणामस्वरूप उत्पन्न हुई थी, कठिन है। राजा जनक के हल चलाने और उसके कई पहलुओं से जुड़े होने की बात हमें हमारे धर्मग्रंथों में मिलती है। मां सीता देवी का रूप मानी जाती है। और उनके उत्पन्न होने के पीछे कई और विश्वास भी जुड़े है। विज्ञान की कसौटी पर हमारे विश्वास को कसने से कई बार जवाब कम और सवाल ज्यादा खड़े हो जाते है। ऐेसे में हमारे धार्मिक विश्वास को आज के हिसाब से सिद्ध करने से कई बार नतीजा कमजोर ही निकलेगा। हमें अपनी वैभवशाली संस्कृति, ज्ञान-विज्ञान, परंपराओं पर गर्व होना चाहिए और ऋषियों द्वारा दी गई विशाल संपदा के संरक्षण और संवर्धन की पुरजोर हिमायत करनी चाहिए। हिंदू ऋषियों के वैज्ञानिक और दूरदर्शी होने की बात करें तो, महर्षि सुश्रुत ने शल्य क्रिया दी तो महर्षि पतंजलि ने योग, महर्षि कणाद ने परमाणु सिद्धात का प्रतिपादन किया तो षि भारद्वाज ने विमान शास्त्र ग्रंथ 600 ईसा पूर्व लिखा। बौधायन ने ज्यामिती के सिद्धांत पर श्रौतसूत्र लिखा और ज्यामिती, रेखागणित और त्रिकोणमिति को ‘शुल्व शास्त्र’ के तहत विकसित किया। ऋषि भास्कराचार्य ने न्यूटन के 500 वर्ष पहले गुरुत्वाकर्षण की बात अपनी पुस्तक ‘ सिद्धांतशिरोमणि’ में लिखी। सन 1163 में ही भास्कराचार्य ने ‘करण कुतूहुल’ ग्रंथ में सूर्यग्रहण और चंद्रग्रहण की व्याख्या की, जो आज मान्य है।