क्या कहता है कर्म का सिद्धांत: जानिए कैसे मिलता है कर्मों का फल
अवश्यमेव भोताव्यम कृतं कर्म शुभाशुभम
नाभुकतम क्षीयते कर्म कल्पकोटीश्तैरपी
“अपना किया हुआ जो भी कुछ शुभ अशुभ कर्म है, वेह अवश्य ही भोगना पड़ता है. बिना भोगे तो सैंकड़ो-करोड़ो कल्पों के गुजरने पर भी कर्म नहीं ताल सकता.”
गहना कर्मणो गतिः अर्थात कर्मों की गति बड़ी गहन होती है. शास्त्रों के अनुसार हमारे द्वारा किये गए शुभ अशुभ कर्म हमारे समक्ष यहीं आते हैं. काला हिरन शिकार मामले में सलमान खान को 20 साल बाद सजा हुयी. सजा हुयी वो भी पांच साल के लिए. ऐसे में भी कई लोगों ने यह प्रश्न खड़ा कर दिया इतने सालों बाद इस सजा का क्या औचित्य है. लेकिन जैसा कहा जाता है कर्म अच्छा हो या बुरा भोगना हमें इसी जीवन में पड़ता है. सलमान खान के साथ भी यही स्थिति आई. पर यहाँ पर कर्म के सिद्धांत की आवश्यकता है. गीता में भी लिखा है जैसा कर्म करोगे वैसा ही फल प्राप्त होगा . आपको अपने अच्छे और बुरे कर्मों का हिसाब यहीं देना होगा. वह हिसाब आपसे कैसे लिए जायेगा यह तो ईश्वर निर्धारित करेगा.
क्या है कर्म का सिद्धांत
कर्म का आत्मा के साथ संयुक्त होने से ही आत्मा विभिन्न योनियों तथ ऊँची-नीची गतियों में भ्रमण करता रहता है। प्राणी जो कुछ भी कर्म करता है, उन कर्मों का फल उसे भोंगना ही पड़ता है। क्योंकि कर्मों का फल कर्म करने वाले को दिये बिना रहता, यह उसका स्वाभाविक गुण है।
कर्म सिद्धान्त के अनुसार ही शुभ कर्मों का फल शुभ दायक और अशुभ कर्मों का फल अशुभ दायक होता है। जब यह जीव राग- द्वेष से युक्त होता है तब वह नवीन कर्मों का बंध करता है और इन नवीन कर्मों के कारण ही उसे नरक, मनुष्य, तिर्यंच और देव गतियों में भ्रमण करना पड़ता है। इन गतियों में जीव के जन्म ग्रहण करने पर राग-द्वेष परिणाम होते रहते हैं और राग-द्वेष से कर्मों का बन्ध होता रहता है। जिससे प्राणी नरकादि गतियों में जन्म लेता है। इस प्रकार कर्म प्रवाह के फलस्वरूप नवीन जन्म होता रहता है। इस नवीन जन्म को ही पुनर्जन्म, पूनर्भव, जन्मांतर, भावान्तर, परलोक, पुनरुत्पत्ति आदि नामों से जाना जाता है
कर्म सिद्धान्त का यह नियम है कि प्राणी जो भी कर्म करता है उसके फल को भोगने के लिए उसे दुबारा जन्म लेना पड़ता है, क्योंकि पूर्वकृत कर्म-फल पूर्व जन्म में पूरा नहीं हो पाता है अर्थात् कुछ कर्म इस प्रकार के होते हैं जिनका फल इस जन्म में (वर्तमान पर्याय) में मिल जाता है और कुछ कर्म इस प्रकार के होते हैं जिनका फल इस जन्म में नहीं मिलता है इसलिए अगला जन्म (पुनर्जन्म) लेना पड़ता है। जिन कर्मों का फल वर्तमान जन्म में फलित नहीं होता है, उसको भोगने के लिए उचित समय पर वर्तमान शरीर का त्याग करके नवीन शरीर धारण करना पड़ता है। यह पुनर्जन्म कहा जाता है। इस पुनर्जन्म में जो आत्मा पूर्व पर्याय में रहती है वर्तमान शरीर को त्याग करने को मृत्यु और नवीन शरीर धारण करने को जन्म कहा जाता है। इस जन्म और मृत्यु के बीच आत्मा सदा एक सी रहती है।
यहाँ पर मृत्यु का मतलब स्पष्ट है कि वर्तमान शरीर जर्रर या रोगी होने पर या आयु पूर्ण होने पर उस शरीर में रहने वाला आत्मा उस शरीर को त्याग देता है और शेष कर्मों का फल भोगने के लिए आत्मा नवीन शरीर धारण कर लेता है, इस प्रकार आत्मा का नवीन शरीर धारण करने का पुनर्भव कहा गया है। व्यावहारिक भाषा में जिस प्रकार मनुष्य फटे, पुराने वस्त्रों को छोड़कर नवीन वस्त्रों को धारण करता है उसी प्रकार आत्मा भी अपने पुराने जीर्ण-शीर्ण शरीर को छोड़कर नये शरीर को धारण कर लेता है।
षटड्खण्डागम ग्रंथराज के अनुसार – ‘यत् क्रियते तत् कर्म’ अर्थात् किसी कार्य या व्यापार का करना कर्म कहलाता है। जैसे – पढ़ना, लिखना, सोना आदि क्रियाएँ कर्म है। जैन-साहित्य में कर्म को पुद्गल परमाणु पिण्ड माना गया है। तदनुसार यह लोक तेईस वर्गणाओं से व्याप्त है। उनमें से कुछ पुद्गल परमाणु कर्म-रूप से परिणत होते हैं, उन्हें कर्मवर्गणा कहते हैं। कर्म बनने योग्य पुद्गल परमाणु राग- द्वेष से आकृष्ट होकर आत्मा की स्वाभाविक शक्ति का घात करके उसकी स्वतंत्रता को रोक देते हैं इसलिए ये पुद्गल परमाणु कर्म कहलाते हैं।
तत्वार्थवार्तिक के अनुसार – ‘‘निश्चयनय की दृष्टि से वीर्यान्तराय और ज्ञानावरण के क्षयोपशम की अपेक्षा रखने वाले आत्मा के द्वारा आत्म-परिणाम और पुद्गल के द्वारा पुद्गल परिणाम एवं व्यवहारनय की दृष्टि से आत्मा के द्वारा पुद्गल परिणाम और पुद्गल के द्वारा आत्म-परिणाम करना कर्म है।
आचार्य विक्रमादित्य से इस विषय पर बात की तो उन्होंने कहा, “हर व्यक्ति के द्वारा कुछ शुभ किया जाता है कुछ अशुभ किया जाता है तो हमको किसी और के कर्म का भोग मिल रहा है यह गलत होगा कहना. इस प्रकार से काला हिरन शिकार मामले में जो भी कार्य हुआ है वहां कहीं न कहीं किसी न किसी की थोड़ी त्रुटियाँ है. उस व्यक्ति को इसका पश्चाताप करना चाहिए और सजा एक पश्चाताप का माध्यम है और उसका पश्चाताप के द्वारा संशोधन किया जा सकता है. इसके द्वारा जीवन में आगे आने वाले समय को सुखमय बनाया जा सकता है. कहना का तात्पर्य है की सजा को व्यक्ति सजा की तरह न लेकर पश्चाताप की तरह ले. भारतीय संस्कृति में जो कहा गया उसको अपनाना चैये और इस वजह से किसी को दुःख नहीं पहुंचना चाहिए.”
आचार्य विक्रमादित्य जी आगे कहते हैं, “जो लोग सलमान खान मामले में आक्षेप कर रहे हैं, लोगों के अपने अपने मंतव्य हैं.कुछ पोलिटिकल पॉइंट ऑफ़ व्यू से कुछ इमोशनल पॉइंट ऑफ़ व्यू से…अपनी बहनों के कारन से आक्षेप कर रहे हैं. लेकिन जो आक्षेप कर रहे हैं उन्हें भी यह सोचना चाहिए की वो भी कोई न कोई कर्म कर रहे हैं. उसका फल उनको भी प्राप्त होगा. इस बात का उन्हें भी विचार करना चाहिए. इन बात के इतिहास में भी प्रमाण भी है कि अपनी अभिव्यक्ति के कारण ही लोगों ने जीवन में दारुण दुःख पाया है और दारुण सुख पाया है. तो दोनों प्रकार की अभिव्यक्तियाँ है और लोग अपनी बात कहने का तरीका रखते हैं. प्रकृति में कोई भी चीज़ अक्षम्य नहीं है. प्रकृति हमेशा अपना प्रभाव रखती है सामने दिखाती है, उसे कोई रोक नहीं सकता.उसे अगर कोई रोक सकता है तो आपका शुभ कर्म ही. आपके द्वारा किये गए दुष्कर्म को रोकने का माध्यम आपके द्वारा किये गए शुभ कर्म है. और शुभ कर्म करने से ऐसे ही बड़े बड़े दुष्कर्म कट जाते हैं.”
इस विषय पर स्वामी चक्रपाणी ने रिलिजन वर्ल्ड से बात की और उसे इस प्रकार अभिव्यक्त किया-
जो प्रकृति के नियमों का पालन करता है। वह परमात्मा के करीब है, लेकिन ध्यान रहे यदि परमात्मा भी मनुष्य के रूप में अवतरित होता है तो वह उन सारे नियमों का पालन करता है जो सामान्य मनुष्यों के लिए हैं। लौकिक और पारमार्थिक कर्मों के द्वारा उस परमात्मा का पूजन तो करना चाहिए, पर उन किए हुए कर्मों और संसाधनों के प्रति अपनी आसक्ति न बढ़ाएं। मात्र यह मानें कि मेरे पास जो कुछ है, उस परमात्मा का दिया हुआ है। हम निमित्त मात्र हैं। तो बात बनते देर नहीं लगती है। कर्म को पूजा मानते हुए व्यक्ति जब राग-द्वेष को मिटा देता है तब उसके स्वभाव की शुद्धि होती है। उसके लिए समूची वसुधा एक परिवार दिखती है। उसका हर कर्म समाज के हित के लिए होता है। साधारण तौर पर हम कह सकते हैं कि कर्म किए बगैर व्यक्ति किसी भी क्षण नहीं रह सकता है। कर्म हमारे अधीन हैं, उसका फल नहीं। महापुरुष और ज्ञानी जन हमेशा से कहते रहे हैं कि अच्छे कर्मों को करने और बुरे कर्मों का परित्याग करने में ही हमारी भलाई है। किसी संत से एक व्यक्ति ने पूछा कि आपके जीवन में इतनी शांति, प्रसन्नता और उल्लास कैसे है? इस पर संत ने मुस्कराते हुए कहा था कि अपने कर्मों के प्रति यदि आप आज से ही सजग और सतर्क हो जाते हैं, तो यह सब आप भी पा सकते हैं। सारा खेल कर्मों का है। हम कर्म अच्छा करते नहीं और फल बहुत अच्छा चाहते हैं। यह भला कैसे संभव होगा?
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