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भाग्य क्या है? इसका वैदिक आधार क्या है? What is fate according to Vedic Wisdom ?

भाग्य क्या है? इसका वैदिक आधार क्या है? What is fate according to Vedic Wisdom ?

भाग्य क्या है? यह अपने आप में ही एक बड़ा प्रश्न है। सबके लिए भाग्य की परिभाषा अलग अलग हो सकती है। जैसे कुछ लोगों के लिए भाग्य के अंतर्गत धन-संपत्ति आ सकती है, कुछ सुख शांति होने पर खुद को भाग्यशाली मानते हैं, तो कुछ कर्म के आधार भाग्य की उत्पत्ति मानते हैं। यानि जो लोग कहते हैं की कर्म करते हैं पर भाग्य साथ न देता तो वो पूरी तरह कर्मठ नहीं है।

एक कहावत है कि समय से पहले और भाग्य से अधिक कभी किसी को कुछ नहीं मिलता। लेकिन ज़रा सोचिये 84 लाख योनियों में मनुष्य योनी में जन्म भाग्य की ओर इशारा नहीं करता, संसार में कई ऐसे विरले पड़े हैं जिनको पारिवारिक प्रेम नहीं मिला लेकिन समाज में उन्हें पूर्ण सम्मान प्राप्त है, यह भी भाग्य का ही एक रूप माना जा सकता है.

वास्तव में भाग्य-यश, प्रेम, धन, स्वास्थ्य; इन सभी रूपों में या किसी एक रूप में आपके पास हो सकता है. ईश्वर सभी को योग्यता व कर्मानुसार भाग्य प्रदान करता ही है। अतः जरूरत है कि हम हमारे हिस्से में आए आशीर्वाद को सस्नेह ग्रहण करें और ईश्वर से संतोषरूपी धन की याचना करें, क्योंकि ‘हर स्थिति में संतुष्ट रहने से ही सुख प्राप्त होता है.’

क्या है भाग्य का वैदिक आधार?

हिंदू धर्म के अनुसार कहते हैं कि भाग्य की रचना भगवान ब्रह्मा करते हैं। ऐसा भी सुनने में आता है कि कर्म-रेखाएँ जन्म से पहले ही लिख दी जाती हैं। ऐसा भी कहा जाता है कि तकदीर के आगे तदवीर (योजना) की नहीं चलती। ये किंवदंतियाँ एक सीमा तक ही सच हो सकती हैं। जन्म से अंधा, अपंग उत्पन्न हुआ या अशक्त, अविकसित व्यक्ति ऐसी विपत्ति सामने आ खड़ी होती है, जिससे बच सकना या रोका जा सकना अपने वश में नहीं होता। अग्निकाण्ड, भूकम्प, युद्ध, महामारी, अकाल, मृत्यु, दुर्भिक्ष, रेल, मोटर आदि का पलट जाना, चोरी, डकैती आदि के कई अवसर ऐसे आ जाते हैं और ऐसी विपत्ति सामने आ खड़ी होती है, जिससे बच सकना या रोका जा सकना अपने वश में नहीं होता। ऐसी कुछ घटनाओं के बारे में भाग्य या होनी की बात मानकर संतोष किया जाता है।

पुरुषार्थ का नियम है और भाग्य उसका अपवाद। अपवादों को भी अस्तित्व तो मानना पड़ता है, पर उनके आधार पर कोई नीति नहीं अपनाई जा सकती, कोई कार्यक्रम नहीं बनाया जा सकता। कभी- कभी स्त्रियों के पेट से मनुष्याकृति से भिन्न आकृति के बच्चे जन्म लेते देखे गए हैं। कभी- कभी कोई पेड़ असमय में ही फल-फूल देने लगता है, कभी-कभी ग्रीष्म ऋतु में ओले बरस जाते हैं, यह अपवाद है। इन्हें कौतूहल की दृष्टि से देखा जा सकता है, पर इनको नियम नहीं माना जा सकता। इसी प्रकार भाग्य की गणना अपवादों में तो हो सकती है, पर यह नहीं माना जा सकता कि मानव जीवन की सारी गतिविधियाँ ही पूर्व निश्चित भाग्य-विधान के अनुसार होती हैं। यदि ऐसा होता तो पुरुषार्थ और प्रयत्न की कोई आवश्यकता ही न रह जाती। जिसके भाग्य में जैसा होता है, वैसा यदि अमिट ही है, तो फिर पुरुषार्थ करने से भी अधिक क्या मिलता और पुरुषार्थ न करने पर भी भाग्य में लिखी सफलता अनायास ही क्यों न मिल जाती?

भाग्य का निर्माण कर्म के द्वारा ही होता है। अगर आप मेहनत करेंगे तो भाग्य खुद बा खुद चमक उठेगा। तो यहाँ यह बात तो स्पष्ट है कि आपकी अंतरात्मा भी पुरुषार्थ यानि मेहनत पर भरोसा करती है।

भाग्य ओर कुछ नहीं बल्कि हमारे कर्मों का ही परिणाम है. हर कार्य के पीछे कारण छुपा हुआ होता है. बिना कारण के कुछ भी घटित नहीं होता. इसी तरह जिन विशेष परिस्थितियों को भाग्य कह दिया जाता है‚ उनका कारण हमारे पहले के कर्म ही होते हैं. क्योंकि हमारे कर्म हमारे व्यक्तित्व पर निर्भर करते हैं इसलिए यह कहा जा सकता है कि जैसा हमारा आज का व्यक्तित्व है वैसा ही हमारा कल का भाग्य होगा.

कर्म का वैज्ञानिक आधार

ज्योतिष कर्म एवं भाग्य की सही व्याख्या करता है। प्रत्येक व्यक्ति अपने कर्मों के आधीन रहता है, इसलिए उसे कर्म अवश्य करना है, और जीवन का सार यही है। प्रत्येक कर्म का प्रतिफल होता है-यह एक सर्वमान्य सत्य है। वैदिक विचारधारा यह बताती है कि कर्म और उसका प्रतिफल एक साथ कार्य नहीं करते। हमें अकसर किसी कर्म का फल बहुत अधिक समय के बाद फलित होता दिखाई देता है। कर्म और कर्मफल को जानना एक गुप्त रहस्य है। इसे केवल ज्योतिष के आधार पर जाना जा सकता है। प्रत्येक व्यक्ति को अपनी इच्छाओं का मेल अपनी योग्यताओं से करना चाहिए. 1.पुनर्जन्म, 2.कर्म: मनुष्य कर्म करने से बच नहीं सकता, यह संभव ही नहीं कि मनुष्य कर्म न करे। 3. कर्म प्रतिफल के अंतर्गत अच्छे या बुरे कर्मों का भोग यही कर्म चक्र है।

मनु स्मृति में कहा गया है- “अवश्यमनु भोक्तव्यं कृतं कर्म शुभाशुभम्. ना भुक्तं क्षीयते कर्म कतप कोटि शतैरपि..” अर्थात प्रत्येक मनुष्य अपने कर्मों का अच्छा या बुरा फल अवश्य भोगता है. पुनर्जन्म के विषय हिंदू वैदिक ज्योतिष की आस्था है. तभी तो भगवत् गीता में भगवान ने कहा है ‘‘जातस्यहि ध्रुवो मृत्यु र्धुवं जन्म मृतस्य च. तस्मादपरिहार्ये न त्वं शोचितुर्महसि..’’ अर्थात जिसका जन्म हुआ है उसकी मृत्यु निश्चित है. उसी प्रकार जो मर गए हैं उनका जन्म निश्चित है. भाग्यरूपी बीज से जो वृक्ष तैयार होता है वह कर्म है. प्रकरांतर से कर्म वृक्ष का बीज भाग्य है. इस बीज को प्रारब्ध यानि भाग्य कहा गया है. बीज तीन प्रकार के होते हैं. 1.वृक्ष से लगा अपक्व बीज (क्रियमाण कर्म) 2.वृक्ष से लगा सुपक्व बीज जो बोने के लिए रखा है (संचित कर्म) 3. क्षेत्र में बोया गया बीज जो कि अंकुरित होकर विस्तार प्राप्त कर रहा है (प्रारब्ध कर्म) इससे स्पष्ट है कि कर्म ही भाग्य है. जो कर्म किया जा रहा है और पूरा नहीं हो पाया है वह क्रियमाण कर्म है. जो कर्म किया जा चुका है किंतु फलित नहीं हुआ है वह संचित कर्म है. यही जो संचित हो चुका है, जब फल देने लगता है, तो भाग्य कहलाता है. यह दिखाई नहीं देता क्योंकि यह पूर्व कर्मों का अच्छा या बुरा फल है. यह अदृष्ट है, यही भाग्य है. कर्म के अतिरिक्त और कुछ भी नहीं है.  अतः संकल्पपूर्वक कर्म करना चाहिए. यही कारण है कि धार्मिक कर्मकांडों में संकल्प पूर्व में पढ़ा जाता है. यह संकल्प कर्म व्यक्ति का पीछा करता रहता है. जब तक कर्ता नहीं मिल जाता तब तक वह उसे ढूंढता रहता है, भले ही इसमें पूरा युग ही क्यों न लग जाए. सैकड़ों जन्मों तक कर्ता को अपने कर्म फल का भोग करते रहना पड़ता है, इससे पिंड नहीं छूटता. शास्त्र में कहा गया है: यथा धेनुसहस्रेषु वत्सो विन्दति मातरम्. तथा पूर्व कृतं कर्म कर्तारम अनुगच्छति.. अर्थात जिस प्रकार हजारों गौओं के झुंड में बछड़ा अपनी माता का ठीक ठाक पता लगा लेता है, उसी प्रकार पूर्व में किया गया कर्म अपने कर्ता को ढूंढ लेता है.

सूचना साभार: अखिल विश्व गायत्री परिवार, www.vedicaim.com, ज्योतिषाचार्य प्रदीप भट्टाचार्य

Post By Shweta